India WorldDelhi NCR Uttar PradeshHaryanaRajasthanPunjabJammu & Kashmir Bihar Other States
Sports | Other GamesCricket
Horoscope Bollywood Kesari Social World CupGadgetsHealth & Lifestyle
Advertisement

सुप्रीम कोर्ट की लोक अदालत

01:28 AM Aug 05, 2024 IST
Advertisement

भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई. चन्द्रचूड़ ने न्यायप्रणाली के भीतर लोक अदालतों की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते हुए इसे आम आदमी के दरवाजे तक न्याय पहुंचाने की प्रणाली बताया है। उनके इस कथन से यह भी स्पष्ट होता है कि भारत की न्याय व्यवस्था में लोक अदालतों के माध्यम से सामान्य नागरिक को जल्दी न्याय दिया जा सकता है। इसकी वजह यह है कि बीते वर्ष 2023 में लोक अदालतों के माध्यम से आठ करोड़ से भी अधिक मुकदमे निपटाये गये। लोक अदालतों का आयोजन ‘राष्ट्रीय विधि सेवा प्राधिकरण’ करता है। न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ का यह कहना कि ‘लोग इतना त्रस्त हो जाते हैं कोर्ट के मामलों से कि वे कोई भी निपटारा चाहते हैं’। इसका कारण यह है कि अदालतों में मुकदमे लम्बे खिंचते रहते हैं जिसकी वजह से यह प्रक्रिया ही एक सजा लगने लगती है। श्री चन्द्रचूड़ के ये विचार बताते हैं कि उन्हें भारत की जमीनी हकीकत की पहचान है। जब राष्ट्रपति पद पर भारत रत्न स्व. प्रणव मुखर्जी आशीन थे तो सर्वोच्च न्यायालय से सम्बन्धित एक समारोह में उन्होंने आह्वान किया था कि गरीब नागरिकों को सस्ता न्याय सुलभ कराने के बारे में गंभीरतापूर्वक विचार किया जाना चाहिए क्योंकि संविधान के 136वें अनुच्छेद में इसकी व्यवस्था है। इसका जिक्र श्री चन्द्रचूड़ ने भी किया और कहा कि भारत की गरीबी को देखते हुए हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान की रचना एक सेवा अभियान (मिशन) के तौर पर की थी। यह अभियान वर्तमान समय में भी क्रियाशील रहना चाहिए और सर्वोच्च न्यायालय के वकीलों को गरीब आदमी को भी न्याय दिलाने के लिए कार्यरत रहना चाहिए।
भारत के गांवों में अब भी यह कहावत प्रचिलित है कि दीवानी का मुकदमा आदमी को ‘​िदवाना’ बना देता है। जहां तक फौजदारी के मुकदमों का सवाल है तो इसके लिए सत्र न्यायालय सेशंस कोर्ट होते हैं जिन्हें अपने कम से कम सत्रों में मुकदमा निपटा देना चाहिए। सत्र न्यायालयों की अवधारणा के पीछे यही उद्देश्य था। इसी वजह से इसका नाम सत्र न्यायालय रखा गया था। मगर इनमें भी मुकदमे लम्बे खिंचते रहते हैं। जहां तक लोक अदालतों का प्रश्न है तो इनमें मुकदमों का निपटारा बहुत जल्दी होता है और प्रायः वादी व प्रतिवादी दोनों सन्तुष्ट भी रहते हैं। इनके फैसलों को बाद में किसी अदालत में चुनौती भी नहीं दी जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय भी अपनी लोक अदालत एक सप्ताह तक चलायेगा। श्री चन्द्रचूड़ के अनुसार पहले केवल सात पीठ बना कर ही लोक अदालतें लगाने का विचार था मगर मुकदमों की संख्या को देखते हुए इन्हें बढ़ाकर 13 किया गया। यदि हम गंभीरता के साथ देखें तो लोक अदालतों की अवधारणा के पीछे ‘पंच परमेश्वर’ की भावना काम करती है।
भारत में ग्राम स्तर पर न्याय देने की जो प्रणाली थी लोक अदालत उसी का वृहद स्वरूप है। हमारे संविधान में बाबा साहेब अनुच्छेद 136 में साफ लिख कर गये हैं कि गरीब आदमी को भी अपने हकों के लिए सीधे सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का अधिकार है मगर इसे मूर्त रूप देने के लिए वकील कम ही आगे आते हैं लेकिन सवाल अदालतों की लम्बी कार्यवाही का भी है। खासकर निचली अदालतों में जिस प्रकार मुकदमें सालों-साल लटकते रहते हैं उससे आम आदमी की न्याय पाने की भूख ही मिट तक जाती है और वह सब कुछ भगवान भरोसे छोड़ देता है। आजाद भारत में इस तरफ राजनीतिज्ञों का ध्यान 60 के दशक में जाना शुरू हुआ था। इस तरफ सबसे पहले ध्यान स्व. चौधरी चरण सिंह का गया था। इसका कारण यह भी हो सकता है कि वह स्वयं वकील भी थे और गांवों की हालत उन्होंने अच्छी तरह देखी थी। 1969 में जब उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर अपनी पृथक पार्टी भारतीय क्रान्ति दल बनाई तो उसके घोषणा पत्र में लिखा कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई तो निचली अदालतों के काम करने के बारे में आवश्यक संशोधन किये जायेंगे। जाहिर तौर पर ये सुधार जजों को छोड़ कर दफ्तरी कामकाज के बारे में ही थे जहां सर्वाधिक भ्रष्टाचार उस समय भी होता था और आज भी होता है। अतः सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपनी लोक अदालतों की पीठें स्थापित करना बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। क्योंकि इससे सामान्य नागरिक में न्याय प्रणाली के प्रति और अधिक विश्वास पैदा होगा और उसे लगेगा कि सुप्रीम कोर्ट में जाने का हक केवल अमीर लोगों को ही नहीं है। देश की सबसे बड़ी अदालत उनकी आवाज भी सुनेगी। श्री चन्द्रचूड़ इस मामले में बहुत आशावादी हैं और लोक अदालत के गठन को सांस्थनिक बदलाव में स्थापित करना चाहते हैं। यदि हम भारत में लम्बित मुकदमों की संख्या को देखें तो वह करोड़ों में जाकर होगी। सुप्रीम कोर्ट के पास ही यह संख्या कम नहीं है। श्री चन्द्रचूड़ ने अपनी बात जिस बेबाकी से की है उसका मन्तव्य भी यही है कि न्याय पर इस देश के हर नागरिक का एक समान अधिकार है। इसलिए लम्बी न्यायिक प्रक्रिया सजा के तौर पर नहीं दिखनी चाहिए। लोक अदालतें इस प्रक्रिया को न केवल छोटी करती हैं बल्कि तुरन्त न्याय भी प्रदान करती हैं।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

Advertisement
Next Article