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राष्ट्रीय राजनीति का बदलता विमर्श

03:00 AM Aug 24, 2024 IST
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क्या भारत की राष्ट्रीय राजनीति का विमर्श (नैरेटिव) बदल रहा है? स्वतन्त्र भारत की राजनीति में इसे अजूबा किसी भी तरह नहीं माना जा सकता क्योंकि यदि हम 1952 से लेकर 2024 तक के अभी तक के हुए चुनावों का वैज्ञानिक विश्लेषण करें तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि भारत में लगभग 10-15 साल बाद राजनैतिक विमर्श राजनैतिक विचारधारा व सिद्धान्तों के कलेवर में बदल जाता है। बेशक भारत पर सबसे अधिक समय 55 वर्ष तक कांग्रेस ने ही राज किया है परन्तु इसने भी लगभग इतने अंतराल के बाद अपने विमर्श में संशोधन किया है। पिछले 76 साल के इ​ितहास में सबसे बड़ा संशोधन स्व. पी.वी. नरसिम्हा राव के शासन के दौरान किया गया जिन्होंने पं. नेहरू की जनमूलक समाजवादी नीतियों को बेमानी तक करार दे दिया और कांग्रेस को उदारवादी हिन्दुत्व की तरफ धकेल दिया।
कुछ लोग इसे राजनीति की त्रासदी भी कहते हैं क्योंकि इसी दौर 1991 से 1996 तक के बाद भारत में भारतीय जनता पार्टी को अपना हिन्दुत्ववादी विमर्श फैलाने का स्वर्ण अवसर मिला। परन्तु 1952 से लेकर 1962 तक के चुनावों में कांग्रेस की विचारधारा और गांधीवादी सिद्धान्तों के अनुरूप सामुदायिक समन्वय व सौहार्द का दौर रहा जिसकी कमान पं. जवाहर लाल नेहरू स्वयं संभाले हुए थे। परन्तु 1964 में उनकी मृत्यु हो जाने के बाद 1967 के चुनावों में तत्कालीन जनसंघ (आज की भाजपा) व स्व. चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की स्वतन्त्र पार्टी समेत डा. राम मनोहर लोहिया की संयुक्त समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस के विमर्श में सेंध इस प्रकार लगाई कि इसमें उत्तर भारत में प्रखर राष्ट्रवाद के साये में हिन्दुत्व की भावना प्रबल हुई औऱ पश्चिम में स्वतन्त्र पार्टी के साये तले समाजवादी नीतियों को चुनौतियां दी गई जबकि शेष भारत में डा. राम मनोहर लोहिया ने क्रान्तिकारी गांधीवादी नीतियों के आधार पर लोगों का सम्मोहन कांग्रेस से तोड़ा।
1967 के चुनावों में कांग्रेस का विमर्श कहीं कमजोर पड़ रहा था और टुकड़ों में बिखरे विपक्ष के समानान्तर बाजारवादी विमर्श का लोगों पर असर होने लगा था। इसी वजह से देश के नौ राज्यों में कांग्रेस पार्टी अपना बहुमत खो बैठी और इसमें से भारी स्तर पर दल-बदल हुआ था लोकसभा चुनावों में यह 520 सदस्यों के सदन में केवल 280 के आसपास ही सीटें जीत पाई। इसकी वजह यह थी कि एक तरफ स्वतन्त्र पार्टी के नेता प्रोफेसर एन. जी. रंगा व मीनू मसानी यह नारा लगा रहे थे कि ‘नेहरू का समाजवाद दम तोड़ रहा है’ और दूसरी तरफ जनसंघ 1965 के भारत-पाक युद्ध में भारतीय सेनाओं द्वारा पाकिस्तान की सीमाओं के अन्दर प्रवेश कर जाने के बावजूद ताशकन्द में भारत-पाक समझौते में भारतीय सेनाओं के पीछे हटने को मुद्दा यह कह कर बना रही थी कि ‘भारत की सेनाओं ने युद्ध के मैदान में जो जीता वह नेता वार्ता की मेज पर बैठ कर हार गये’।
उस समय तक इन्दिरा गांधी देश की प्रधानमन्त्री बन चुकी थीं। इंदिरा को एक सफल राजनीतिज्ञ माना जाता था । उन्होंने पूरे देश में जनसंघ व स्वतन्त्र पार्टी और संयुक्त समाजवादी पार्टी के गैर कांग्रेसी विमर्श को जब फैलते हुए देखा तो कांग्रेस पार्टी के 1967 के जयपुर अधिवेशन में बैंकों के राष्ट्रीयकऱण के प्रस्ताव को रखने का प्रय़ास किया परन्तु इस प्रस्ताव के प्रति उन्हीं की सरकार में वित्त मन्त्री स्व. मोरारजी देसाई ने बहुत उपेक्षा भाव से देखा और कांग्रेस के सिंडीकेट गुट के सदस्य समझे जाने वाले नेताओं के साथ मिल कर इसे वहीं दबा दिया। परन्तु इन्दिरा गांधी यह समझ गई थीं कि राजनीति का विमर्श कांग्रेस से हाथ से निकल कर विपक्षी दलों के मिले-जुले विमर्श की की तरफ जा रहा है। अतः उन्होंने बहुत बड़ा जोखिम लिया और 1969 में 14 बैंकों का राष्ट्रीयकऱण करने का अध्यादेश राष्ट्रपति से आधी रात को जारी करवा दिया। इसकी खबर अगले दिनों मोरारजी देसाई को समाचार पत्रों से ही मिली।
इसी दौरान राष्ट्रपति डा. जाकिर हुसैन की असामयिक मृत्यु हो गयी और राष्ट्रपति चुनाव आ गये। सिंडीकेट गुट के दबाव में इदिरा गांधी ने कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष स्व. नीलम संजीव रेड्डी के नाम का प्रस्ताव तो कर दिया मगर उपराष्ट्रपति वी. वी. गिरी को भी चुनाव लड़ने का पैगाम भिजवाया। श्री गिरी उपराष्ट्रपति पद से इस्तीफा देकर चुनाव में जब खड़े हो गये तो इंदिरा ने कांग्रेस सांसदों व विधायकों से आह्वान किया कि वे अन्तर्आत्मा की आवाज पर मत दें। नतीजा यह हुआ कि श्री रेड्डी बहुत मामूली अन्तर से चुनाव हार गये। इसके बाद कांग्रेस का विभाजन हो गया और इंदिरा गांधी ने एक साल पहले ही लोकसभा भंग करा कर इसके चुनाव करा दिये। यह सारी कवायद इन्दिरा जी ने बदलते राजनैतिक विमर्श को वापस कांग्रेसी समाजवादी पटरी पर लाने के लिए ही की।
अतः 1967 में विपक्ष ने जो राजनैतिक विमर्श बदला था वह वापस कांग्रेस की दिशा में ही मुड़ गया और लोकसभा चुनावों में सारा विपक्ष इकट्ठा होकर भी हाशिये पर खिसक गया। यदि हम गौर से देखें तो इन्दिरा गांधी ने एक तीर से कई शिकार कर दिये थे। स्वतन्त्र पार्टी, जनसंघ संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के अलावा उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में उभरे ग्रामीण राजनीति की धारा भी कुन्द करते हुए व्यापक स्तर पर आम गरीबों का जनविमर्श खड़ा कर दिया था। इसकी तुलना अगर हम करना चाहें तो 2024 के चुनावी विमर्श से कर सकते हैं क्योंकि कई दृष्टियों से परिस्थितियां मेल खाती हैं।
बेशक कांग्रेस के धनुर्धर बने राहुल गांधी को व्यापक स्तर पर पूरे देश में एक समान रूप से विमर्श बदलने में सफलता नहीं मिली है परन्तु हिन्दुत्ववादी राष्ट्रीय विमर्श को शान्त कर दिया है और इसके लिए गांधीवादी व नेहरू के राजनैतिक औजारों का प्रयोग किया है। भाजपा का वर्तमान विमर्श विशुद्ध रूप से हिन्दू राष्ट्रीयता पर टिका हुआ है। इसमें इस पार्टी ने भारत के मध्ययुगीन इतिहास की राजनैतिक घटनाओं को राष्ट्र धर्म की विसंगतियों के रूप में प्रस्तुत करने में सफलता प्राप्त की। अतः हिन्दू-मुस्लिम के आधार पर पाकिस्तान का निर्माण होने की हकीकत ने आजादी के 75 सालों बाद भी भारतीयों के मन में विषाद की व्यग्रता को बनाये रखा। यह व्यग्रता कहीं-कहीं तो प्रतिशोध तक में बदलती देखी गई। परन्तु राहुल गांधी ने इस विमर्श को अपनी भारत यात्राओं के जरिये बदलने की कोशिश की और गांधीवादी विमर्श की तरफ बढ़ने का भारतवासियों से आह्वान किया। इसमें उन्हें अभी आंशिक सफलता ही मिली है। इस प्रकार हमने देखा कि 1967 में विमर्श बदला।
1971 में इदिरा गांधी ने बदलते विमर्श को रोका। इसके बाद खुद ही इंदिरा जी ने 1975 मे इमरजेंसी लगा कर विमर्श को बदल डाला और भारत मे लोकतन्त्र का विमर्श उभरा। मगर 1980 में पुनः इंदिरा गांधी का सुशासन का विमर्श चला। इसके बाद 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राष्ट्रीय आक्रोश में राजनैतिक मुद्दे गुम हो गये। 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध जो अभियान चलाया उससे कांग्रेस की कमर टूटी।
1991 में कमर टूटी कांग्रेस को नरसिम्हा राव ने पूरी तरह बदल कर बाजारवाद का विमर्श खड़ा किया। मगर इसके बाद 1996, 1998, 1999 में भाजपा का हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद नरसिम्हा राव द्वारा दी गई जमीन पर ही पनपा। मगर 2004 में पुनः कांग्रेस व उसकी विचारधारा से मेल खाती पार्टियों ने विमर्श को यथारूप में चालने का प्रयास किया और 2009 में भी यही स्थिति रही। मगर 2014 में बजारवाद ने दम तोड़ा और बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में भ्रष्टाचार जब मुद्दा बना तो कांग्रेस की सारी पूंजी लुट गई। मगर 2024 के आते-आते राहुल गांधी ने कांग्रेस के मूल विमर्श पर उतर कर भाजपा को चुनौती दी अपनी लुटी हुई सम्पत्ति के कुछ भाग को वापस प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की। अब यह विमर्श जन विमर्श बनता जा रहा है जिससे आगे की राजनीति की दिशा समझी जा सकती है।

- राकेश कपूर

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