मायावती की सियासत का ‘मायाजाल’
भारत को आजादी मिलने से कुछ पहले ही जब लन्दन से प्रकाशित होने वाले अंग्रेजी के एक प्रतिष्ठित अखबार में पं. जवाहर लाल नेहरू ने एक लेख लिख कर यह कहा कि भारत कभी भी ‘गरीब मुल्क’ नहीं रहा तो उनके सामने अपनी ही लिखी हुई तर्कों औऱ वैज्ञानिक विश्लेषण से युक्त ‘डिस्कवरी आफ इंडिया’ (भारत की खोज) पुस्तक अवश्य रही होगी जिसमें उन्होंने वैदिक काल से लेकर अपने समय तक के भारत के विभिन्न कालखंडों की मीमांसा प्रस्तुत की थी। नेहरू स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान गांधी के बाद पूरे देश में सर्वाधिक लोकप्रिय नेता थे जिन्होंने 1952 के पहले चुनाव में ही हिन्दू नागरिक आचार संहिता (हिन्दू कोड बिल) को मुद्दा बना कर जनता से कांग्रेस पार्टी के लिए वोट मांगे थे।
नेहरू बेशक कश्मीरी ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे मगर पूजा-पाठ या मजहबी आचरण उनके लिए केवल निजी मामला था। यह संयोग नहीं था कि 26 नवम्बर 1949 को भारत का पूरा संविधान लिखने वाले बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने भारत के नागरिकों को धार्मिक स्वतन्त्रता निजी तौर पर देते हुए लिखा कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र रहेगा औऱ राजनीति में भक्ति के लिए कोई स्थान नहीं होता है। इसका सीधा मतलब था कि राज-काज चलाने वाले लोगों के लिए उनका धर्म निजी मामला रहेगा और मतदाता लोकतन्त्र का ‘स्वयंभू सम्राट’ रहेगा। पिछले 75 सालों में नेहरू के प्रधानमन्त्री रहते ही वह अवसर भी आय़ा जब भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने बनारस में हिन्दू धर्म के पीठ अधिष्ठाता शंकराचार्य समेत अन्य प्रकांड पंडितों के चरण धोये।
डा. राजेन्द्र प्रसाद की प्रारम्भिक शिक्षा एक ‘मदरसे’ में ही हुई थी। यह वह दौर था जब हिन्दू नागरिक भी मौलवी हुआ करते थे। इन हिन्दू मौलवियों के लिए उर्दू के प्रख्यात शायर अकबर इलाहाबादी ने एक शेर भी लिखा ः
रखी है शेख ने दाढ़ी सफेद सन्त की सी
मगर वह बात कहां मौलवी ‘मदन’ की सी
पं. नेहरू मानते थे कि अंग्रेजों ने भारत की आर्थिक शक्ति को निचोड़ कर उसे बुरी तरह निर्धन व खोखला बना दिया। नेहरू के पास इसी निर्धन भारत की बागडोर आयी थी इसी वजह से उन्होंने भारत में औद्योगिकरण व कृषि क्षेत्र की बड़ी सिंचाई परियोजनाओं को भारत के नये मन्दिरों की संज्ञा दी और निश्चय किया कि विज्ञान को भारत की गरीबी दूर करने के लिए प्रयोग किया जायेगा। इन ‘मन्दिरों’ की अपार क्षमता के बूते पर ही 1964 में उनकी मृत्यु हो जाने के बाद भारत लगातार तरक्की करता हुआ पहले विकासशील देश बना और आज विकसित बनने के लिए छटपटा रहा है।
भारत की पिछले 75 सालों की यात्रा को हम विज्ञान यात्रा भी कह सकते हैं क्योंकि आज दुनिया भर में भारत कम्प्यूटर व साफ्ट वेयर क्षेत्र में जिस तरह ‘शिखर’ पर जाकर बैठा है उसके पीछे यही असली कारण इस देश के लोगों का बढ़ता वैज्ञानिक मिजाज ही रहा है। परन्तु इन 75 सालों में राजनीति इसका अपवाद कही जा सकती है क्योंकि इस दौरान पिछले तीन दशकों में भारत की सियासत जिस तरह जातियों व धर्म के सांचे में ढली है उसमें विज्ञान की सभी धाराओं को एक सिरे से नकारा है और भारतीय समाज में फैली विसंगतियों व दकियानूसियत के सहारे वोटों की खेती की है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण उत्तर प्रदेश की बहुजन समाज पार्टी की नेता सुश्री मायावती हैं। उन्होंने हिन्दू मनुस्मृति का पुरजोर विरोध करते हुए उसमें वर्णित कथित शूद्र समाज के लोगों अर्थात दलितों को उनकी जाति के नाम पर ही अलग से ताकत बना कर उनके वोटों का खुद को राजनैतिक व्यापारी बना दिया।
डा. अम्बेडकर की मृत्यु के बाद अभी तक जितने भी दलित नेता हुए उनका अन्तिम शरण स्थल जनसंघ या भारतीय जनता पार्टी ही रहा। इनमें सबसे बड़ा नाम स्वर्गीय बुद्ध प्रिय मौर्य का है जिनकी रिपब्लिकन पार्टी का यह नारा हुआ करता था ‘हरिजन मुस्लिम भाई- भाई -हिन्दू कौम कहां से आयी’। मगर उन्हीं बुद्धप्रिय मौर्य ने अपने जीवन के अन्तिम समय को भाजपा की सदस्यता लेकर ही काटा। यही हाल अपने जमाने के सबसे बड़े समाजवादी रहे जार्ज फर्नांडीज का भी रहा।
इसकी वजह यही मानी जा सकती है कि ये लोग कांग्रेस पार्टी को ही अपना दुश्मन नम्बर एक मानते थे हांलाकि जीवन भर वे जनसंघ या भाजपा को साम्प्रदायिक पार्टी बताते रहे और पानी पी-पी कर आलोचना भी करते रहे। राजनैतिक शब्दावली में इसका अर्थ यही निकाला जा सकता है कि भाजपा की राजनीति एेसे नेताओं के लिए आक्सीजन देने का काम करती रही है। वर्तमान में सुश्री मायावती का यह एेलान कि वह लोकसभा चुनाव अपने बूते पर ही स्वतन्त्र रूप से लड़ेंगी बताता है कि उनकी इच्छा भी अन्य बड़े दलित नेताओं से अलग नहीं हो सकती। वह इंडिया गठबन्धन में इसीलिए शामिल नहीं हुई है जिससे उत्तर प्रदेश का उनका 12 प्रतिशत वोट सत्ता के खिलाफ प्रयोग न हो सके। वैसे यह अवधारणा पूरी तरह कागजी है कि कोई भी समाज लम्बे समय तक किसी नेता की अपनी जागीर बना रह सकता है। एक जमाना था जब मायावती का वोट 18 प्रतिशत से भी अधिक हुआ करता था। इसमें लगातार कमी दर्ज होना बता रहा है कि मायावती अब हाशिये पर खिसकती जा रही है और उनके समानान्तर ‘चन्द्रशेखर रावण’ की पार्टी अपनी पैठ बनाती जा रही है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में यह नया समीकरण है जो इस राज्य के ग्रामीण इलाकों में जाने पर प्रकट होता है। इसका अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब एक तरफ अयोध्या में श्रीराम मन्दिर निर्माण को लेकर भाजपा लोगों में जबर्दस्त जोश भर रही है तो गांवों में दलित समाज के लोग बुद्ध कथा का आयोजन भी कर रहे हैं और मायावती इस हकीकत से भाग रही हैं जबकि चन्द्रशेखर एेसे आयोजनों का समर्थन कर रहे हैं।
यदि हम गौर से देखें तो मायावती औऱ भाजपा की राजनीति में कोई सैद्धान्तिक अन्तर नहीं है। वह भी गांधीवादी नजरिये और राजनीति की धुर विरोधी हैं। दलित वोट बैंक बना कर वह भी इस वर्ग के लोगों की ‘महारानी’ जैसा आचरण करती हैं और सामान्य दलित को उसके ही हाल पर खड़ा देख कर वह दूसरी तरफ नजरें घुमा लेती हैं।
यदि मैं फिर नेहरू पर लौटूं तो उनका नजरिया दलित व आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षण को पुख्ता बनाना था जिससे सरकारी नौकरी से लेकर सत्ता में उनकी भागीदारी लगातार पुख्ता होती जाये। परन्तु देश में निजीकरण व सरकारी कम्पनियों में विनिवेश भी 1991 में कांग्रेस ने ही शुरू किया था मगर वर्तमान में इसके नेता मल्लिकार्जुन खड़गे स्वयं में दलित होते हुए ‘लोक कल्याणकारी राज’ की बात कर रहे हैं और राहुल गांधी दलितों व पिछड़ों को सत्ता में पुरजोर भागीदारी देने का विमर्श गढ़ते नजर आ रहे हैं जबकि भारत का वातावरण ‘राम मय’ बना हुआ है। ऐसा लगता है कि राहुल गांधी पं. नेहरू के फलसफे की पहचान कर रहे हैं और कह रहे हैं कि जब भारत एक गरीब मुल्क नहीं है तो पैसे की चमकाहट शहरों से गांवों की तरफ क्यों नहीं फैल रही है।
- राकेश कपूर