मुख्यमंत्रियों की गाथा
पिछले हफ्ते तक, दो मुख्यमंत्रियों ने इस्तीफा देने की इच्छा जताई थी और इस हफ्ते की शुरुआत होते-होते तो एक ने अपना इस्तीफा दे ही दिया और दूसरे ने बातचीत शुरू कर दी जिसका कुछ निष्कर्ष निकलता दिख रहा है|
दोनों ही मुख्यमंत्रियों ने लोकप्रिय भावना के आधार पर सत्ता हासिल की। दोनों ने भ्रष्टाचार से लड़ने की कसम खाई थी और इसके खिलाफ जमकर खड़े रहे। दोनों ने अपने करियर की शुरुआत छोटे स्तर से की और फिर राजनीतिज्ञ बने, और आख़िरकार मुख्यमंत्री भी बने। इसमें कोई शक नहीं है कि यहां पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी और दिल्ली के अरविंद केजरीवाल की ही बात की जा रही है। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि पिछले हफ्ते ममता बनर्जी ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने की बात छेड़ी। ठीक उसी तरह जैसे केजरीवाल, जिन्होंने अंततः अपने पद से इस्तीफा दे दिया। हालांकि, दोनों के कारण अलग थे।
बनर्जी कोलकाता के आर. जी. कर अस्पताल में एक युवा प्रशिक्षु डॉक्टर के बलात्कार और हत्या के बाद विवादों में हैं। इस मामले के खराब प्रबंधन और उसे ढकने के स्पष्ट प्रयासों ने राज्य सरकार को सवालों के घेरे में ला दिया है। डॉक्टरों ने अगस्त में काफी बड़े पैमाने पर हड़तालें की। उनके और मुख्यमंत्री के बीच बातचीत असफल रही थी, लेकिन प्रदर्शनकारियों की कुछ मांगें मानने से हालात में सुधार होता दिख रहा है। हालांकि राज्य सरकार को पीड़िता का शव अस्पताल के सेमिनार हॉल में मिलने के बाद की प्रारंभिक गड़बड़ी के लिए दोष मुक्त नहीं किया जा सकता है, लेकिन यह भी सच है कि ममता बनर्जी ने विरोध कर रहे डॉक्टरों से सुलह करने की कोशिश की है। इसी संदर्भ में उन्होंने "लोगों के लिए" अपना इस्तीफा दिया और बंगाल के लोगों से माफी मांगी "मैं कुर्सी नहीं चाहती, मैं न्याय चाहती हूं" यह उनका कहना था।
जहां तक केजरीवाल का सवाल है, सुप्रीम कोर्ट ने उनकी जमानत को मंज़ूरी दी और वे हाल ही में जेल से बाहर आए हैं। केजरीवाल को 11 मार्च को दिल्ली शराब नीति मामले में प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने गिरफ्तार किया था। उन्हें जमानत देते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें मुख्यमंत्री कार्यालय में प्रवेश करने और किसी भी आधिकारिक फाइल पर हस्ताक्षर करने से मना किया था।
विडंबना यह है कि जब उन्हें जेल भेजा गया था तो उनके इस्तीफे की मांग उठी, लेकिन केजरीवाल ने इसे मानने से इनकार कर दिया। वास्तव में, आम आदमी पार्टी (आप) के नेताओं ने स्पष्ट कर दिया था कि केजरीवाल मुख्यमंत्री बने रहेंगे और जेल से ही सरकार चलाएंगे। उन्होंने ऐसा महीनों तक किया, जब तक कि उनकी रिहाई के बाद अप्रत्याशित रूप से उन्होंने घोषणा कर दी "मैं दो दिनों बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दूंगा। मैं तब तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नहीं बैठूंगा, जब तक कि लोग अपना निर्णय नहीं देते..." उन्होंने यह भी कहा कि मनीष सिसोदिया, जो शराब नीति मामले में एक आरोपी हैं और हाल ही में जमानत पर जेल से बाहर आए हैं, वे भी कोई पद नहीं संभालेंगे और तभी सरकार में लौटेंगे जब नया जनादेश प्राप्त होगा। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने “दिल्ली में विधानसभा चुनाव, महाराष्ट्र और झारखंड के साथ, नवंबर में कराये जाने की मांग की। दिल्ली में चुनाव अगले साल फरवरी में होने हैं।
यह स्पष्ट है कि केजरीवाल के इस कदम के पीछे राजनीति और रणनीति है। भले ही भाजपा ने इसे "पीआर स्टंट" कह कर नकार दिया हो, लेकिन यह उससे कहीं अधिक है। पहले आपको राणनीति समझा दें- केजरीवाल ने नवंबर में चुनाव कराने की मांग की है लगभग तीन महीने पहले। यह इसलिए है क्योंकि वे जेल में होने की सहानुभूति की लहर पर सवार होना चाहते हैं और भाजपा के सामने झुकने के बजाय खड़े होने वाले व्यक्ति के रूप में उभरना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में, उन्होंने दबाव में झुकने से इनकार कर दिया। दरअसल, इस्तीफा देकर, केजरीवाल खुद को एक शहीद के रूप में पेश कर रहे हैं, जो एक कारण के लिए अपने पद का बलिदान देने को तैयार हंै। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि उनकी वजह से राज्य को भारी कीमत चुकानी पड़ी, जबकि शालीनता के आधार पर उन्हें गिरफ्तारी के बाद इस्तीफा दे देना चाहिए था। लेकिन केजरीवाल सोचते हैं कि वे बयानबाजी के उस्ताद हैं और उनके शब्द वो कर सकते हैंजो कार्यवाही नहीं कर पाई।
देखा जाए तो यह चुनावों से पहले बिना किसी रोक-टोक के प्रचार करने और हर संभव तरीके से भाजपा की आलोचना करने की एक चाल है। पद और उसे चलाने की ज़िम्मेदारी के बिना, केजरीवाल के पास न केवल दिल्ली में बल्कि हरियाणा जैसे पड़ोसी राज्यों में भी, जहां आम आदमी पार्टी की हिस्सेदारी है, ज़ोर-शोर से दौरा करने और प्रचार करने की आज़ादी और समय होगा। राजनीतिक रूप से यह समझ में आता है, लेकिन क्या यह चुनावी रूप से काम करेगा, यह देखना अभी बाकी है।
बहुत लोगों को लगता है केजरीवाल से जितना हो सके उससे ज़्यादा ही किया है। उनके द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा बेचारापन शायद ही कोई असर डालेगा या उन्हें वह सहानुभूति दिलाएगा जिसकी उन्हें तलाश है। उनकी "मिस्टर क्लीन" छवि को धक्का लगा है, जैसा कि उनके सुशासन के रिकॉर्ड को भी।
इसलिए भाजपा इसे "स्टंट" कहकर हल्के में ले रही है। दरअसल, यह खोई हुई इज्जत को कवर करने और जेल में रहे मुख्यमंत्री के टैग का फायदा उठाने की एक हताश चाल है। भाजपा ने भले ही बदले की राजनीति की हो, लेकिन यह केजरीवाल और उनकी पार्टी को बेबस शिकार के रूप में पेश नहीं करता। राजनीति के इस गंदे खेल में, कोई भी निर्दोष नहीं है।
केजरीवाल जितनी जल्दी यह समझ लें, उतना ही उनके लिए अच्छा होगा क्योंकि एक लोकप्रिय कहावत के अनुसार, आप कुछ लोगों को हर समय मूर्ख बना सकते हैं और सभी लोगों को कुछ समय के लिए, लेकिन आप सभी लोगों को हर समय मूर्ख नहीं बना सकते। एकदम ही सही बताएं तो, यह केवल केजरीवाल के बारे में नहीं है, बल्कि अधिकांश राजनेताओं के बारे में है क्योंकि वे उससे कहीं अधिक वादा करते हैं जितना वे निभा सकते हैं। और वर्षों के दौरान, इस देश के लोगों ने इस कड़वी सच्चाई को स्वीकार कर लिया है।
हालांकि यह बात काफी निराशाजनक है कि ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल जैसे नेता, जिन्हें लोग बदलाव के प्रतीक मानते हैं, राजनीति को लोगों के ऊपर रखते हैं।
देखा जाए तो दोनों में, बनर्जी नेक इरादे वाली, विश्वसनीय और परिस्थितियों का शिकार लगती हैं। दूसरी ओर, केजरीवाल पूरी तरह से एक राजनेता के रूप में सामने आते हैं, जो अपने समर्थकों की भावनाओं का लाभ उठाने का इरादा रखते हैं।