फूटी कौड़ी, दमड़ी, पाई-पाई का किस्सा
संभावना है कि आपकी पोती या नातिन आप से यह सवाल पूछ बैठे, यह ‘कौड़ी’ या ‘दमड़ी’ क्या होती है। वह इसलिए पूछ सकती है क्योंकि आप ऐसे मुहावरे रोज-रोज बोलते हैं, ‘वह दो फूटी कौड़ी का आदमी नहीं है।’ या ‘चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए।’ और शायद सच बात तो यह है कि आपके बेटे-बेटियों को भी शायद इन सिक्कों का ज्ञान न हो। चलिए। थोड़ा-थोड़ा इन सिक्कों व शब्दों को भी संभाल लेते हैं। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद की पीढ़ी यह तो जानती है कि वर्ष 1957 तक हमारे देश में रुपए, आने और पैसे का चलन था। ये सब सिक्के थे। वर्ष 1957 के बाद रुपया व नया पैसा आया। इनमें चार आना या 25 पैसे का सिक्का भी होता था और 50 व 100 पैसे का भी।
इससे पूर्व कुछेक सिक्के इस तरह के भी होते थे-
3 फूटी कौड़ी = एक कौड़ी
10 कौड़ी = एक दमड़ी
एक दमड़ी = 1.5 पाई
1.5 पाई = एक धेला
2 धेला= 1 पैसा
3 पैसा = एक टका
दो टका = एक आना
दो आना = एक दवन्नी
चार आना : एक चवन्नी
आठ आना : एक अठन्नी
16 आना = एक रुपया
समग्र रूप में एक रुपया = 20 टका = 40 दमड़ी = 320 दमड़ी
स्वाधीनता प्राप्ति से पूर्व कुछ राजशाहियों के अपने ही सिक्के होते थे। मसलन, कच्छ स्टेट- यहां 1819 से 1947 तक एक कौड़ी = 2 आधियों = 4 दयाला = 8 टका, एक कौड़ी= 2 आधियो= 48 ट्राम्बिया= 96 बाबुकिया। वहां कौड़ी एक ताम्बे का सिक्का होता था। बाद में इसका स्थान स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात एक रुपया हो गया।
ट्रावणकोर राजशाही की अपनी ही मुद्राएं थीं। वहां का एक रुपया= 7 फनम, एक फनम= 4 चुकरम, एक चुकरम= 16 नकद
वस्तुत: शेरशाह सूरी से पहले अलग-अलग रियासतों की अपनी टकसालें थीं। पहली बार तब चांदी का रुपया (1542) में आया था। इसका वज़न 176 ग्रेन था। शाह अल्ला (द्वितीय) के शासनकाल में पहली बार भारतीय मुद्रा में एकरूपता लाने का प्रयास हुआ। तब बड़ौदा की राजशाही में सिक्कों पर शाह आलम का चित्र भी था।
प्रथम ब्रिटिश भारतीय रुपया का वज़न लगभग 179 ‘ट्राय ग्रेन’ वर्ष 1757 में कलकत्ता में गढ़ा गया था। ‘सिक्का’ शब्द का प्रयोग गुजरात में पहली बार हुआ था। अकबर के शासन में स्वर्ण मुद्राएं भी गढ़ी गई। ईस्ट इंडिया कंपनी ने आखिरी मुहर 1918 में गढ़ी, जिसका वज़न 15 रुपया था। वैसे कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी रुपए का उल्लेख टका (टांका) के रूप में था।
शब्द ‘पैसे’ की शुरुआत चालुक्य वंश (9वीं, 10वीं सदी) से मानी जाती है। शाह आलम द्वितीय (1760-1806) के समय इसे ‘फैलू’ कहा जाता था। ब्रिटिश शासन में इसे ‘पाईस’ कहा जाने लगा। यह एक आने का चौथाई भाग होता था। वर्ष 1957 के बाद इसे एक रुपया का 100वां भाग मान लिया गया। अर्थात् 100 पैसे का एक रुपया। पाई का अंतिम बार सिक्के में ढलाई वर्ष 1942 में हुई थी और वर्ष 1947 में ‘पाई पाई का हिसाब’ वाली पाई की चलन रोक दिया गया।
अकबर के शासनकाल में ‘दाम’ व सोने की मुहरें भी चलतीं थीं। सबसे छोटी मुद्रा ‘दाम’ होती थी। वैसे इसकी शुरुआत शेरशाह सूरी ने की थी। ‘धेला’ भी मुगलों की देन था। बाद में सिख साम्राज्य में भी इसका चलन जारी रहा। तब इसका मूल्य आधा पैसा था अर्थात् एक आना का एक चौथाई भाग। अब भारत में सिक्के का एकमात्र अधिकार भारत सरकार का है। सिक्कों की ढलाई मुम्बई, अलीपुर (कोलकाता), सैफाबाद (हैदराबाद) और नोएडा (यूपी) में होती है। देश में कुल 4422 मुद्रा तिजोरियां (सरकारी क्षेत्र में) हैं और छोटे सिक्कों के 3784 डिपो भी देश भर में फैले हैं।
मुगलकालीन सिक्कों के संग्रह की दिशा में चंडीगढ़ के एक युवा छात्र अविरल अग्रवाल ने विलक्षण कार्य किया है। उसने अरबी-फारसी में टंकित सिक्कों की एक ‘कॉफी टेबल बुक’ तैयार की है और उसमें उस काल के सिक्कों का पूरा इतिहास भी बयान किया गया है। हरियाणा के एक आईएएस उच्चाधिकारी का यह बेटा अभी कॉलेज का छात्र है और उसने अपनी लग्न से पहले फारसी सीखी और फिर विवरण तैयार किया।
एक हिन्दू परिवार का युवा अब अपनी ज्ञान वृद्धि के लिए हरियाणा उर्दू अकादमी के एक कातिब हन्नान संरक्षण में फारसी सीखता है तो यह वाकई सराहनीय है। इसके पिता अतिरिक्त मुख्य सचिव के पद पर हैं।
अविरल अग्रवाल का अध्ययन एवं शोध मालवा, दिल्ली, गुजरात, कश्मीर और बंगाल के सुल्तानों की अवधि और मुगलकाल के 45 सिक्कों पर आधारित है। हर सिक्के पर दो या तीन भाषाओं में विवरण दर्ज है। अरबी, फारसी भी इनमें मिलती हैं और कहीं-कहीं कुछ सिक्कों पर अंग्रेजी, हिन्दी व उर्दू को भी जगह दी गई है। इन सिक्कों की कलात्मक ‘कैलियोग्राफी’ भी अद्भुत है। इसी संदर्भ में उर्दू शायर नरेश कुमार शाद का एक शेअर याद हो आता है :
जब जेब में सिक्के बजते हैं
तब पेट में रोटी होती है
उस वक्त ज़र्रा, हीरा है
उस वक्त यह शबनम मोती है !!