खास हैं ये ‘दिव्यांग’ एथलीट
पेरिस पैरालंपिक में भारतीय एथलीटों के शानदार प्रदर्शन से दिख गया है कि सरकार की योजनाओं का धरातल पर असर है। पिछले 10 सालों से मोदी सरकार ने खेल ढांचे पर अच्छा निवेश किया है जिसके परिणाम दिख रहे हैं। हालांकि हाल ही में संपन्न हुए ओलंपिक में कई पदकों से बाल-बाल चूकने से भारतीय खेमें में निराशा का माहौल था लेकिन विभिन्न शारीरिक व्याधियों से ग्रसित एथलीटों ने अपनी जिजीषिवा से दिखाया कि कोई भी विकलांगता सफलता के आड़े नहीं आ सकती और इन एथलीटों ने साबित किया कि जीवन के किसी भी क्षेत्र में बाधाओं के बावजूद आगे बढ़ा जा सकता है। पैरा-एथलीटों ने जीवन जीने के तरीके को अलग ढंग से परिभाषित किया है। इस बार भारत ने पेरिस पैरालंपिक में अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए 29 मेडल जीतकर 18वें स्थान पर अपना सफर खत्म किया। यह जश्न मनाने लायक प्रदर्शन है। साल 2016 में रियो में चार पदक के साथ 43वें स्थान और साल 2020 में 19 मेडल के साथ टोक्यो में मिले 24वें स्थान से तुलना करें, तो यह एक बड़ी छलांग है और यह भारतीय पैरालंपिक दल को सरकार से मिल रही सहायता के साथ निरंतर बेहतरी को भी दर्शाता है। चूंकि दोनों जगहों की चुनौतियां भी अलग-अलग हैं, इसलिए पैरा-एथलीटों की कामयाबी की तुलना ओलंपिक में हिस्सा लेने वाले एथलीटों के साथ करना बेमानी होगी।
वर्ष 2024 पैरालंपिक में भारत का प्रदर्शन, अपार बाधाओं का सामना करने के बावजूद पैरा-एथलीटों द्वारा उत्कृष्ट प्रदर्शन की ललक को जाहिर करता है। सात स्वर्ण, नौ रजत और 13 कांस्य पदकों में से अधिकांश (कुल 17), पैरा-एथलेटिक्स में आए। इनमें भाला फेंक और ऊंची छलांग का योगदान सबसे ज़्यादा है। वहीं, चार पदक उन श्रेणियों में आए जिन्हें इस खेल में ‘विकार’ के रूप में वर्गीकृत किया गया है। पैरा-बैडमिंटन (पांच), पैरा-शूटिंग (चार), पैरा-तीरंदाजी (दो) और पैरा-जूडो (एक) ने मिलकर पदक तालिका को पूर्ण बनाया। निशानेबाज अवनी लेखरा और नया पैरालंपिक रिकॉर्ड कायम करने वाले भाला फेंक खिलाड़ी सुमित अंतिल ने अपने-अपने स्वर्ण पदक को बरकरार रखा। ऊंची छलांग में मरियप्पन तंगावेलु ने लगातार तीसरा पदक जीता। 17 साल की बिना बांहों वाली शीतल देवी सबसे कम उम्र में यह पदक जीतने वाली भारतीय खिलाड़ी बनी, तो वहीं हरविंदर सिंह ने पैरा-तीरंदाजी में पहला स्वर्ण जीता। सौ मीटर टी35 स्पर्धा में कांस्य पर कब्जा करके प्रीति पाल ने ट्रैक में भारत को पहले पदक का स्वाद चखाया। इसके बाद उन्होंने 200 मीटर में भी कांस्य जीता। वहीं, कपिल परमार ने भारत को पैरा-जूडो में पहला पदक दिलाया। नगालैंड के 40 वर्षीय सैनिक होकाटो सेमा इस प्रतियोगिता में शॉट पुटर के रूप में चमके। ड्यूटी के दौरान अपने एक पैर गंवा चुके सेमा ने अद्यम जिजीविषा को दर्शाया।
देश के विभिन्न हिस्सों से आने वाले इन एथलीटों की कहानी अलग-अलग है लेकिन संघर्ष एक जैसा। सामाजिक ताने-बाने में इन दिव्यांगों को हर जगह रोकने के लिये दीवारें खड़ी की जाती हैं लेकिन बाधाओं को पार करके चैंपियन बनने वाले इन पैरा-एथलीटों को परिवार, समाज और सरकार के समर्थन ने जीवन जीने की राह दिखाई है जो अन्य ऐसे ही लोगों के लिये प्रेेरणा का काम करेगा। बिना बाहों वाली कश्मीर की तीरंदाज शीतल देवी के सामने तो अर्जुन जैसा धुरंधर भी हार मान ले। दोनों पैरों के प्रयोग से एकदम सटीक निशाना लगाने वाली शीतल के जीवन में बहुत कठिनाइयां रही लेकिन आज सारा देश इस तीरंदाज को पहचानने लगा है।
पैरालंपिक में दिव्यांग बेटियों का शारीरिक आधा-अधूरापन, उनकी असहायता, असमर्थता और अपाहिज होने की स्थिति भी उनके खेल-हुनर को बांध नहीं सका और पेरिस पैरालंपिक में भी बेटियां पदकवीर बनीं। राजस्थान की अवनि लेखरा ने तो इतिहास ही रच दिया, जब टोक्यो के बाद पेरिस पैरालंपिक में भी उन्होंने निशानेबाजी का स्वर्ण पदक हासिल किया। निशानेबाजी में ही, राजस्थान की ही, मोना अग्रवाल ने कांस्य पदक जीत कर एक और मील-पत्थर स्थापित किया है। आज मोना 37 वर्षीय और दो बच्चों की मां हैं, लेकिन उन्हें वह लम्हा आज भी याद है, जब उन्होंने घर छोड़ा था, क्योंकि उन पर शादी का दबाव बनाया जा रहा था। मोना को 2016 से पहले तक यह भी नहीं पता था कि पैरालंपिक खेल भी होते हैं। निशानेबाजी में मात्र 3 साल के अनुभव ने ही उन्हें पैरालंपिक पदकवीर बना दिया। कभी कल्पना की जा सकती थी कि दिव्यांग, धावक बेटी 100 मीटर की दौड़ में हिस्सा लेगी और पैरालंपिक में कांस्य पदक विजेता बनेगी? मेरठ की प्रीति पाल ने यह लक्ष्य हासिल कर ‘अभूतपूर्व कारनामा’ करके दिखा दिया। पिता ने दूध बेचकर और अपना सर्वस्व दांव पर लगाकर दिव्यांग बेटी को पैरालंपिक पदकवीर बनाकर तमाम विरोधाभासों को खारिज कर दिया। निशानेबाजी में ही रुबीना फ्रांसिस के खेल को विस्मृत नहीं कर सकते। उन्होंने भी कांस्य पदक हासिल किया। किसी दुर्घटना में बेटी अपाहिज हो गई। किसी को प्रकृति ने ही विकलांग जन्म दिया। किसी को बीमारी ने आधा-अधूरा कर दिया।
किसी का निचला हिस्सा बिलकुल निष्क्रिय है, किसी की टांगें नहीं रहीं, किसी की एक बाजू और पांव टेढ़ा है, किसी को कृत्रिम अंग लगवाने पड़े हैं। कितनी तकलीफ, कितनी यंत्रणा और कितने तनाव से गुजरी होंगी ये खिलाड़ी बेटियां। उसके बावजूद ये सफलताएं अंतर्राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्वियों को पराजित कर हासिल की हैं। ये कम उपलब्धियां नहीं हैं। बेशक सरकार इन खिलाडि़यों को आर्थिक मदद दे रही है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रशिक्षण दिलाए हैं, फिर भी प्रतिभा तो खिलाड़ियों की है, जो नए प्रतिमान स्थापित कर रही है। अब भी भारत पैरालंपिक में 18वें स्थान पर है।
पीएम मोदी ने भी उनसे खास तौर पर बात की है। इन पैरा एथलीटों की सफलता हमें बताती है कि किसी भी स्थिति का सामना किया जा सकता है और सफलता प्राप्त की जा सकती है। इन एथलीटों के जज्बे को सलाम। देश के लोगों को भी दिव्यांगों को लेकर अपना नजरिया बदलना चाहिए और उनके साथ समानता का व्यवहार करना चाहिए। दिव्यांगों को लेकर हमारा सामाजिक ताना-बाना बेचारगी भरा है और ऐसे लोगों को समान अवसर नहीं मिलते। हालांकि अब परिदृश्य बदलने लगा है और दिव्यांगों को भी बराबर मौके मिले हैं। इन बदलावों का स्वागत किया जाना चाहिए।