विनेश, हसीना और कुछ सुलगते सवाल...
बीते सप्ताह दुनिया भर में जिनकी चर्चाएं होती रहीं उनमें भारत की पहलवान विनेश फोगाट हैं और दूसरी हैं बंगलादेश की अपदस्थ प्रधानमंत्री शेख हसीना। दोनों का कोई तालमेल नहीं है फिर भी ये दोनों मेरे इस कॉलम का विषय बनी हैं क्योंकि दोनों से जुड़ी घटनाएं कहीं न कहीं राजनीति से जुड़ी हुई हैं। एक खेल की राजनीति है तो दूसरी षड्यंत्र की राजनीति है, दोनों ही मामलों में कुछ लोगों का अहंकार भी शामिल है। चलिए सबसे पहले अपने देश की उस बेटी के बारे में बात करते हैं जो खेल में घुसी राजनीति का बुरी तरह शिकार हुई हैं, राजनीति की दबंगई और शोषण के खिलाफ उनके संघर्ष की कहानी आप सबको पता है। उसे दोहराने की जरूरत नहीं है लेकिन जो विनेश के संघर्ष से आहत थे उनके लिए खुद का अहंकार, खुद की राजनीति, विनेश को सबक सिखाने का मौका देश और राष्ट्र ध्वज से भी बड़ा हो गया। विनेश मूलत: 53 किलो वजन श्रेणी में मैच खेलती हैं। उन्हें उसी श्रेणी में ओलंपिक में भेजा जाना चाहिए था लेकिन उनकी जगह अंतिम पंघाल नाम की वैसी पहलवान को भेजा गया जो पहले ही राउंड में बाहर हो गईं और बाद में अपने कार्ड पर बहन को खेल स्टेडियम में घुसाने को लेकर भारत को शर्मसार भी किया। विनेश के पास 50 किलो श्रेणी में पहलवानी के अलावा विकल्प नहीं था, लेकिन इस बेटी ने बता दिया कि वह हार मानने वाली नहीं है।
विनेश जब फाइनल में पहुंचीं तो उनका रजत पदक पक्का हो चुका था और पूरा देश स्वर्ण की उम्मीद बांधे हुए था लेकिन 100 ग्राम ज्यादा वजन की खबर ने 140 करोड़ भारतीयों का स्वर्ण-सपना और विनेश का दिल तार-तार कर दिया, करोड़ों खेल प्रेमियों को सदमा लगा। मैं यह कहने को मजबूर हूं कि भारतीय खेलों को राजनीति ने अपनी दासी बना रखा है। खेल में बदहाली का बड़ा कारण यही है अन्यथा हमारे युवाओं में कोई कमी नहीं कि हम ओलंपिक में अमेरिका या चीन जैसा स्वर्ण भंडार न खड़ा कर दें। आप पदक तालिका देखिए और उन देशों की जनसंख्या को जोड़िए, यदि चीन को हटा दें तो शीर्ष के 30 देशों की कुल आबादी भी हमारे देश के बराबर नहीं है। हम विज्ञान, तकनीक और प्रबंधन के क्षेत्र में दुनिया में सिरमौर हो सकते हैं तो खेल में क्यों नहीं? लेकिन यहां तो खेल में राजनीति घुसी हुई है, क्या करें? ये राजनीति है ही बड़ी विचित्र चीज, यह हर चीज पर कब्जा करना चाहती है। जागीरदारी इसके स्वभाव में है, ऐसा न होता तो क्या बंगलादेश में शेख हसीना की ऐसी दुर्दशा होती? हसीना ने 15 साल पहले जब सत्ता संभाली थी तो बंगलादेश खस्ताहाल राष्ट्र के रूप में जाना जाता था लेकिन हसीना ने अपने देश को नए मुकाम पर पहुंचाया। विश्व बैंक ने कहा कि ये तरक्की और विकास की एक प्रेरक कहानी है, बंगलादेश 2031 तक उच्च मध्य आमदनी वाला देश बन सकता है।
एशियन डेवलपमेंट बैंक ने कहा कि बंगलादेश 2026 में सबसे कम विकसित देशों के समूह से बाहर निकल सकता है, उजले आर्थिक पक्ष के साथ ही आतंकवाद के खिलाफ उन्होंने सबसे मजबूत और वास्तविक जीरो टॉलरेंस नीति भी अपना रखी थी। जब इतनी आर्थिक तरक्की हो रही थी तो ऐसा क्या हो गया कि लोग शेख हसीना से इतने नाराज हो गए कि उन्हें देश छोड़कर भागना पड़ा? निश्चय ही हाल के दिनों में बंगलादेश में महंगाई बढ़ी थी, लोग नाराज थे। आरक्षण विरोध का आंदोलन चल रहा था लेकिन यह सब इतना ताकतवर फैक्टर नहीं था कि शेख हसीना की सत्ता पलट जाए। दरअसल वो अंतर्राष्ट्रीय शक्तियां हैं जो भारत के साथ हसीना के मजबूत रिश्ते को लेकर बेहद नाराज थीं। खासतौर पर चीन की नाराजगी तो बिल्कुल स्पष्ट थी, चीन चाहता था कि हसीना बंगलादेश में उसे भी जगह दें। भारत के साथ बंगलादेश के रिश्ते को लेकर दूसरी महाशक्तियां भी काफी नाराज थीं। हसीना इन सबकी नहीं सुन रही थीं, उनके लिए उनका मुल्क ज्यादा महत्वपूर्ण था इसलिए उन्होंने सख्ती दिखाई। इसी बीच छात्र आंदोलन के नाम पर जमात-ए-इस्लामी का स्टूडेंट विंग मैदान में उतर आया जो वर्षों से हसीना को उखाड़ फेंकने के लिए मौके की तलाश में था।
आपको याद दिला दें कि जमात-ए-इस्लामी पाकिस्तान परस्त वह संगठन है जिसने 1971 में बंगलादेश के जन्म का भरपूर विरोध किया था। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि बंगलादेश के राष्ट्रपिता कहे जाने वाले शेख मुजीबुर्रहमान की मूर्ति तोड़ने की कोशिश कोई बंगलादेशी राष्ट्रभक्त छात्र करेगा? स्पष्ट हो चुका है कि मूर्ति तोड़ने वाले जमात-ए-इस्लामी के लोग थे, इसी जमात के लोगों ने बंगलादेश में अल्पसंख्यकों पर हमले किए हैं और उनके घर लूटे हैं। यदि भारत ने समय रहते कदम न उठाए होते तो तख्तापलट करने वाले ये लोग शेख हसीना को मौत के घाट उतार चुके होते, उनके पिता शेख मुजीबुर्रहमान को तो कट्टरपंथियों ने मार ही दिया था। खैर, हसीना भारत आने में कामयाब रहीं और भारत ने उनकी जान बचाकर दुनिया को यह संदेश दे दिया है कि वह संकट की इस घड़ी में बंगलादेश के साथ खड़ा है। हम यह जानते हैं कि पड़ोस की आग में अंतत: हम भी झुलसते हैं इसलिए बंगलादेश को अमन की राह पर वापस लाना और कट्टरपंथियों से बचाना हम सबका दायित्व है।