असम में यह कैसी सियासत
उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में तो हिन्दू-मुस्लिम पर सियासत की आवाजें रोजाना ही सुनाई देती हैं। असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरकार ने जो रवैया अपनाया हुआ है उसको लेकर भी बवाल मचा हुआ है। मुख्यमंत्री लगातार असम में मुस्लिम आबादी बढ़ने और हिन्दुओं के अल्पसंख्यक बनने का खतरा दिखा रहे हैं, उस पर भी विपक्ष सवाल दागने लगा है। इस देश में अधिकारों के दायरे का विस्तार करने के साथ-साथ कानूनी उपायों तक पहुंच को धर्मनिरपेक्ष बनाने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा सामंजस्यपूर्ण व्याख्या का इस्तेमाल किए जाने के शानदार उदाहरण मौजूद हैं। इस प्रक्रिया में अदालत ने हाल ही में इस धारणा को भी निष्प्रभावी बना दिया है कि धर्मनिरपेक्ष प्रावधानों के तहत गुजारा भत्ता मांगने का मुस्लिम महिलाओं का अधिकार 1986 में ही खत्म हो गया है। शीर्ष अदालत ने सीआरपीसी की धारा 125 के तहत मुस्लिम महिलाओं को भी गुजारा भत्ता अधिकार दे दिया है। असम की हिमंता सरकार ने एक बड़ा फैसला लेते हुए असम मुस्लिम विवाह और तलाक पंजीकरण अधिनियम को रद्द करने का फैसला किया है। यद्यपि मुख्यमंत्री का कहना है िक ऐसा बाल विवाह रोकने के लिए किया गया है। इस अधिनियम के तहत मुस्लिमों को बाल विवाह की अनुमति थी।
मुख्यमंत्री का कहना है कि अगर 80 फीसदी बाल विवाह अल्पसंख्यकों में हो रहे हैं तो 20 फीसदी बाल विवाह बहुसंख्यक समुदाय में भी हो रहे हैं। मुख्यमंत्री यह भी कह रहे हैं कि वे बाल विवाह को धार्मिक दृष्टिकोण से नहीं देख रहे हैं। उनकी कोिशश है कि लैंगिक न्याय हो और बाल विवाह कम हों। यह सच है कि आजादी के 75 साल बाद भी बाल विवाह जैसी कुप्रथा अभी समाप्त नहीं हुई है। देश की 70 फीसदी आबादी गांव में रहती है और गांव में बाल विवाह अभी भी प्रचलित हैं। हमारे देश में 1978 में कानून को संशोधित कर लड़कों की शादी की उम्र 21 साल और लड़कियों की 18 साल कर दी गई थी। 2006 में इसमें फिर संशोधन हुआ और इसे गैर जमानती अपराध बनाया गया। अगर फिर भी बाल विवाह होता है तो दोषी पाने पर 2 साल की कैद और एक लाख रुपए जुर्माने की सजा हो सकती है। अगर बाल विवाह रोकने के लिए पहले ही कानून है तो फिर इतना शोर-शराबा मचाने की क्या जरूरत है।
असम मुस्लिम मैरिज एंड डायवोर्स रजिस्ट्रेशन एक्ट, साल 1935 में लाया गया था। इसमें मुसलमानों के निकाह और तलाक के रजिस्ट्रेशन का प्रावधान है। साल 2010 में इस एक्ट में संशोधन किया गया। 'स्वैच्छिक' शब्द की जगह 'अनिवार्य' शब्द जोड़ा गया। इस संशोधन के साथ असम में मुसलमानों का निकाह और तलाक का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य कर दिया गया था। इस कानून में किसी भी शख्स को मुसलमान होने की वजह से निकाह और तलाक के रजिस्ट्रेशन के लिए राज्य को लाइसेंस देने का अधिकार दिया गया था। यह लाइसेंस मुस्लिम रजिस्ट्रार ही जारी कर सकते हैं। यह सरकारी कर्मचारी हो सकते हैं। अधिनियम में मुसलमानों के निकाह और तलाक संबंधी आवेदन की प्रक्रिया और प्रावधान का विस्तार से जिक्र है।
अब राज्य सरकार नया कानून लाएगी और शादियों का पंजीकरण अब काजी नहीं करेंगे बल्कि यह काम राज्य सरकार करेगी। मुस्लिम समुदाय के लोग असम सरकार के फैसले को ध्रुवीकरण की राजनीति से जोड़कर देख रहे हैं। उनका कहना है कि अगर मुस्लिम विवाह पंजीकरण अधिनियम के तहत बाल विवाह हो रहे थे तो पहले से ही मौजूद कानून के तहत काजी के खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है। उनके लाइसैंस रद्द किए जा सकते हैं तो फिर कानून रद्द करने का औचित्य क्या था। जहां तक विवाह और तलाक पंजीकरण का सवाल है सुप्रीम कोर्ट पहले ही विवाह और तलाक का पंजीकरण अनिवार्य बना चुका है। बाल विवाह तो जनजातियों में भी होते हैं तो निशाना एक समुदाय क्यों? असम के मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि राज्य में मुस्लिम आबादी 40 फीसदी हो गई है, जो 1951 में 12 फीसदी थी।
पूर्वोत्तर राज्य में जनसंख्या में बदलाव एक बड़ा मुद्दा है। मुख्यमंत्री के वक्तव्य के विरोध में िवपक्षी दल तर्क दे रहे हैं कि मुख्यमंत्री के सारे दावे झूठ और प्रपंच हैं। 1951 में असम था तब नागालैंड, मिजोरम, अरुणाचल आैर मेघालय नहीं थे। 2001 में आबादी 30.92 प्रतिशत थी और 2011 की जनगणना में यह 34.22 प्रतिशत थी। मुख्यमंत्री बेवजह ढिंढोरा पीट रहे हैं। सरकार मुस्लिम कानून खत्म करेगी तो समुदाय आवाज उठाएगा ही तब वोट की राजनीति के लिए ध्रुवीकरण हो जाएगा। मुख्यमंत्री हिमंता पहले ही इस बात के संकेत दे चुके हैं कि वे उत्तराखंड की तर्ज पर राज्य में समान नागरिक संहिता लागू करने की तरफ बढ़ेंगे। राज्य सरकारों द्वारा कोई भी नया कानून लाने का मकसद किसी भी समुदाय से हो रहे अन्याय को रोकना होना चाहिए। समाज को रुढि़वादी विचारधारा से निकालने के प्रयास भी किए जाने चाहिएं। नई सोच को विकसित करना भी जरूरी है लेकिन एक समुदाय के प्रति घृणा का वातावरण तैयार कर ध्रुवीकरण की सियासत भी अच्छा कदम नहीं है। देखना होगा कि असम सरकार कितने नेक इरादे से नया कानून लाकर आगे बढ़ती है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com