क्या होगा चुनाव परिणामों के बाद ?
लोकसभा चुनावों के मध्य भाषा की मर्यादा में आई गिरावट से भी ज्यादा चिंता इस बात की है कि इन चुनावों के परिणामों के बाद क्या? विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के अब तक के सबसे महंगे चुनावों पर इस बार अरबों रुपए का धन दांव पर लगा है। ज़ाहिर है किसी भी युद्ध या प्रतिद्वंद्विता में एक पक्ष विजय प्राप्त करता है और दूसरा पक्ष पराजय।
प्रश्न यह है कि इस बार पराजित पक्ष क्या हताशा के बावजूद पराजय को सहज व स्वस्थ भाव से स्वीकार कर लेगा? स्पष्ट है कि इन चुनावों में न साधन स्वस्थ हैं, न भाषा। बहुत से क्षेत्रीय दल, संभावित पराजय को अपने अस्तित्व के लिए एक गंभीर खतरा मान रहे हैं। ऐसे दलों में कुछ दक्षिण भारतीय क्षेत्रीय दल, तृणमूल कांग्रेस और ‘आप’ सरीखे तीखे तेवरों वाले दल आशंकित हैं कि यदि पिट गए तो मिट गए। हालांकि ऐसी आशंकाओं का कोई ठोस आधार नहीं है।
तीव्रगामी बदलावों का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि इन चुनावों में मुद्दे भी तेज़ी के साथ बदले हैं। ‘राम मंदिर’ एक मुद्दा था। इसे चुनावी लहर में लाभप्रद माना जाता था। मगर अब जब राम मंदिर बन चुका है, इसके नाम पर वोट बैंक की गगनचुम्बी मीनार की संभावनाएं क्षीण पड़ी हैं। अभी वहां विपक्षी भी कतारों में लगे रहते हैं। धारा 370 हट चुकी है। अब जम्मू-कश्मीर में चुनावी बिसातें बिछ चुकी हैं। मगर धारा 370 अब विशेष मुद्दा नहीं रहा। ‘उत्तर-दक्षिण’ के मध्य दूरियां भी अब कोई मुद्दा नहीं रहीं। उत्तर भारत की भाजपा अब वहां भी चुनौतियां दे रही है। द्रमुक जैसे दलों के नेतृत्व को भाजपा के अलावा अपने ही वंशवृक्ष से भी चुनौतियां मिलने का सिलसिला जारी है। ईडी एवं अन्य केंद्रीय एजेंसियां आरोपों की बौछारों के बावजूद अपनी कार्यशैली जारी रखे हुए हैं। बेरोज़गारी का मुद्दा अभी भी कुछ हद तक बना हुआ है, मगर चुनावी शोर मेें यह भी मद्धम पड़ने लगना है। किसानों के विरोध प्रदर्शन भी अब धीरे-धीरे कुछ-कुछ कुन्द होते जा रहे हैं। उन्हें धरनों पर बैठे रहने के अलावा खेतों में फसलों की कटाई, बिजाई को भी देखना है। इस पर आढ़ती के भुगतान भी तो करना है। चार पैसे और चार दाने घर में नहीं आएंगे तो किसान के रूप में अपनी पहचान भी खो बैठेंगे। मगर आक्रोश अभी भी बना हुआ है।
आरक्षण का मुद्दा उछला। खूब उछला। मगर चार दिन के बाद हाशिए पर सरक गया। जातिवाद अभी भी चुनावी-परिणामों पर असर डालेगा। मसलन हरियाणा में ब्राह्मण, जाट, पंजाबी, बनिया, सैनी, यादव, गुर्जर आदि के वोट-बैंक अपने-अपने क्षेत्र में लामबन्द हैं। संगठित और प्रभावी नहीं हैं तो 37वीं बिरादरी के लोग। इस 37वीं बिरादरी में बुद्धिजीवी, कवि, साहित्यकार, कलाकार, संगीतकार आते हैं। मगर राजनैतिक जागरुकता पर इनका कोई लम्बा-चौड़ा असर नहीं है। विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकों, स्थानीय पत्रकारों, सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों की अपनी ही सीमित दुनिया है। उससे बाहर उनका लम्बा-चौड़ा प्रभामण्डल नहीं है और न ही कोई विशेष दिलचस्पी है।
वैसे भी अब वह समय गया जब कलम वालों का जनता पर असर होता था। बीते समय में दक्षिण में चकवर्ती राजगोपालाचारी, अन्नादुराई, करुणानिधि, एमजी रामचंद्रन आदि अपनी कलम, बौद्धिकता और कला के आधार पर राजनीति में भी प्रभावी भूमिका निभाते थे। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने तो ‘स्वतंत्र पार्टी’ सरीखा असरदार राजनैतिक दल भी गठित कर लिया था। यह वह दल था जिसमें उत्तर भारत से महारानी गोयत्री देवी राजनैतिक विचारक एवं लेखक केएम मुंशी, मीनू मसानी आदि शामिल थे। इस पार्टी ने लोकसभा व विधानसभाओं में भी अपनी विशिष्ट पहचान भी बना ली थी। इधर, उत्तर व मध्य भारत में डॉ. लोहिया, श्री मधुलिमये, विजयदेव नारायण साही आदि का एक अपना प्रभामण्डल था। नेहरू युग में स्वामी करपात्री, प्रभुदत्त ब्रह्मचारी आदि अध्यात्म-पुरुष भी अपनी कुटियाएं व आश्रम छोड़कर चुनावी-संग्राम में शामिल हो गए थे।
मगर उस पीढ़ी के बाद राजनीति में बौद्धिक लोगों का अकाल पड़ गया। अब उनकी जगह ‘आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस’ अर्थात कृत्रिम बौद्धिकता ने ली है। रैलियों व ‘रोड शो’ के सिलसिले जारी हैं, मगर सोशल मीडिया के बवंडर ज्यादा हावी हैं। इनमें से अधिकांश सोशल मीडिया सिर्फ अपने ‘आकाओं’ के नाम पर नफरत फैलाना, ‘फेक न्यूज’ फैंकने में लगा है।
बहरहाल, 37वीं बिरादरी यानि कि बुद्धिजीवियों के लिए यह चिंता और चिंतन का विषय है कि वे कहीं भी प्रभावी नहीं हैं। वे जो लिखते हैं, अपने सीमित पाठकों-श्रोताओं व दर्शकों के लिए लिखते-रचते हैं। कुछ सौ या हज़ार ‘लाइक्स’ मिल जाएं तो वे खुश हो जाते हैं। उन्हें इस बात का भी अनुमान नहीं है कि आखिर देर-सवेर वे पूरी तरह हाशियों पर सरक चुके होंगे।
चलिए जाते-जाते इस पर्व पर एक दृष्टि डाल लें : कुल मतदाता : 96,88,21,923 (18 से 19 साल के (1,84,81,670) पुरुष ः 48,72,31,994, (20 से 29 साल के 19,74,37,160), महिला : 47,15,47,888 (80 प्लस उम्र के- 1, 85,92,918, ई-जेंडर : 48,044, दिव्यांग : 88,35,449, (100 प्लस उम्र के ः 2,18,791), कुल आबादी में मतदाताओं का प्रतिशत : 66.76 महिला मतदाता प्रति हजार पुरुषों
में -948.