For the best experience, open
https://m.punjabkesari.com
on your mobile browser.
Advertisement

चुनाव आयोग व आचार संहिता

12:41 AM Oct 29, 2023 IST | Aditya Chopra
चुनाव आयोग व आचार संहिता

भारत के चुनाव आयोग और चुनाव प्रणाली की दुनिया के सभी लोकतान्त्रिक देशों में बहुत ऊंची प्रतिष्ठा है और स्थिति यह है कि विश्व के बहुत से देश इसका अध्ययन करने अपने प्रतिनिधि दल नई दिल्ली हर वर्ष भेजते रहते हैं। इसका कारण एक ही है कि भारत का चुनाव आयोग ऐसी संवैधानिक और स्वतन्त्र संस्था है जिसे हमारे संविधान निर्माताओं ने सरकार का अंग नहीं बनाया और इसकी सत्ता इस प्रकार स्वायत्त व स्वतन्त्र रखी कि यह देश की समूची राजनैतिक प्रणाली का इस प्रकार नियामक बन सके कि किसी भी पार्टी को अपनी राजनैतिक गतिविधियां जारी रखने के लिए इसके प्रति सीधे जवाबदेह होना पड़े। चूंकि भारत की प्रशासनिक व्यवस्था अन्ततः राजनैतिक दलों द्वारा ही संचालित होती है तो यह जरूरी समझा गया कि राजनैतिक दलों की संविधान व संविधान सम्मत संस्था के प्रति जिम्मेदारी मुकर्रर की जाये। इसके साथ ही चुनाव आयोग को भारत में लोकतन्त्र की आधार भूमि तैयार करने के लिए जिम्मेदार बनाया गया और इसे दायित्व दिया गया कि चुनाव कराते वक्त इसे सभी राजनैतिक दलों को बराबर व एक समान वातावरण देना होगा और सभी दलों के साथ एक समान व्यवहार करना होगा। संविधान में बाकायदा इसकी व्यवस्था जन प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 के तहत की गई।
चुनाव आयोग ने चुनाव कराने के लिए जिस आचार संहिता बनाने का काम किया उसमें भी यह ध्यान रखा गया कि किसी भी सत्तारूढ़ दल और विपक्षी दल के लिए हर हालत में परिस्थितियां अलग-अलग न हों और वे हर दृष्टि से एक समान हों। इसी वजह से आचार संहिता लागू होते ही किसी भी प्रदेश या देश की सम्पूर्ण प्रशासन व्यवस्था का इसे संरक्षक बनाने की व्यवस्था की गई। किसी भी राज्य या देश में चुनावों के समय सत्ता पर काबिज किसी भी दल की सरकारें केवल रोजमर्रा के काम चलाने के ही अख्तियारों से लैस जरूर रहेंगी मगर कोई नीतिगत निर्णय लेने से उन पर रोक लगा दी गई। जहां तक देश की सरकार का प्रश्न है तो लोकसभा चुनावों के समय यह शर्त उस पर भी लागू रहेगी मगर किसी राष्ट्रीय आपदा के समय देश हित में उसे निर्णय लेने का अधिकार होगा क्योंकि भारत में बिना सचेत प्रधानमन्त्री के एक क्षण भी सरकार नहीं रह सकती है। अतः चुनावों के समय भारत में किसी तटस्थ सरकार की कभी जरूरत ही नहीं पड़ती है क्योंकि इसकी व्यवस्था चुनाव आयोग को प्रशासन का संरक्षक बना कर संविधान में पहले से ही कर दी गई है।
भारत की चुनाव प्रणाली की एक और खासियत है कि चुनावों के समय यह एक दूसरी स्वतन्त्र व स्वायत्त संस्था न्यायपालिका का भी चुनावों के मामले सीधे दखल नकार देती है। भारत के संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका को भी सरकार का अंग नहीं बनाया और इसे पूरी तरह निष्पक्ष रहने व देश में संविधान का शासन देखने की जिम्मेदारी सौंपी है। चुनाव आयोग चूंकि एक संवैधानिक संस्था है और राजनैतिक दलों के मामले में इसके पास अर्ध न्यायिक अधिकार भी है अतः चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद सर्वोच्च न्यायालय भी चुनाव सम्बन्धी सभी विवादों से स्वयं को दूर कर लेता है । मगर चुनाव आयोग सभी राजनैतिक दलों के लिए एक समान वातावरण व परिस्थितियां देने के लिए संविधानतः बंधा हुआ है अतः उसे देखना होता है कि किसी भी हालत में ऐसे समय में सत्ता पर काबिज किसी भी दल की सरकार अपने किसी भी विरोधी दल के प्रति कोई दुर्भावनापूर्ण कार्रवाई न कर सके।
यह सवाल इतना व्यापक है कि इसकी समीक्षा अभी तक करने की जरूरत नहीं समझी गई। इसका कारण यह भी रहा कि कभी एेसे हालात पैदा ही नहीं हुए जिनका चुनावों के दौरान इलाज चुनाव आयोग ने न किया हो। इसके साथ यह मुद्दा भी जुड़ जाता है कि चुनाव आचार संहिता के दायरे में कौन-कौन सी कार्रवाइयां आती हैं। सवाल यह भी बहुत महत्वपूर्ण है कि जब किसी राज्य में चुनाव हो रहे हैं तो केन्द्र की जांच एजेंसियां क्या चुनाव आचार संहिता से बाहर रहती हैं। इसका कानूनी जवाब हमें यह मिलता है कि केन्द्रीय जांच एजेंसियों पर चुनाव आचार संहिता लागू नहीं होती क्योंकि उनका काम निष्पक्ष त​रीके से किसी भी मामले की जांच करना होता है और उनके किसी भी कार्य में राजनैतिक दखलन्दाजी नहीं हो सकती। इन एजेंसियों की स्थिति बेशक संवैधानिक नहीं होती मगर ये वैधानिक होती हैं जो संसद इन्हें कानून बना कर प्रदान करती है। ये एजेंसियां चुनाव आयोग के दायरे में चुनाव आचार संहिता लागू होने के बावजूद नहीं आतीं। देश में अधिकतर स्वतन्त्र जांच एजेंसियों का गठन संविधान लागू होने के बहुत अर्से बाद ही किया गया है और समकालीन समय की चुनौतियों को देखते हुए ही किया गया है। जिस प्रकार 1963 में पं. जवाहर लाल नेहरू ने सीबीआई का गठन किया था। मगर चुनावों के समय सभी राजनैतिक दलों को एक समान राजनैतिक वातावरण देने के दायित्व से चुनाव आयोग बंधा होता है। इसे देखते हुए कुछ विधि विशेषज्ञों की राय में यह मामला न्यायिक समीक्षा का मुद्दा बनता है। राजनैतिक दल गत प्रशासनिक प्रणाली में विभिन्न दलों के बीच आरोप- प्रत्यारोप लगना सामान्य चुनावी प्रसंग माना जाता है परन्तु इसमें भी चुनाव आयोग को सत्तारूढ़ दल व विपक्षी दल का विभेद किये बिना अपना रुख पूरी तरह स्वतन्त्र न केवल रखना होता है बल्कि दिखना भी होता है क्योंकि भारत में चुनावों के परिणाम अवधारणा के आर-पार आते हैं। इस मामले में चुनाव आयोग को भी अपने बारे में बनने वाली जन अवधारणा का ध्यान रखना होता है। यह जन अवधारणा भारत के लोकतन्त्र की शुचिता से सीधे जुड़ी होती है।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

Advertisement
Advertisement
Author Image

Aditya Chopra

View all posts

Aditya Chopra is well known for his phenomenal viral articles.

Advertisement
×