चुनाव आयोग और विपक्षी दल
बिहार में चल रहे विशेष सघन मतदाता पुनरीक्षण (एसआईआर) पर जिस तरह देश की विपक्षी पार्टियों और चुनाव आयोग के बीच रस्साकसी शुरू हुई है उसका सीधा प्रभाव भारत के मतदाताओं पर पड़ रहा है। विपक्षी दल खासकर कांग्रेस पार्टी जिस तरह चुनाव आयोग को सीधे निशाने पर ले रही है और चुनाव आयोग उसका सख्त पलट जवाब दे रहा है, उससे निकलने वाले परिणाम भारत के लोकतन्त्र को भी प्रभावित किये बिना नहीं रह सकते। स्वतन्त्र भारत में यह पहला अवसर है जब विपक्षी राजनीतिक पार्टियां चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रही हैं और कह रही हैं कि आयोग सत्तारूढ़ दल के प्रभाव में काम कर रहा है। जरूरत इस बात की है कि एसआईआर पर विवाद जल्द से जल्द खत्म हो। मामला सर्वोच्च न्यायालय में भी चल रहा है जिसके बीच ही मुख्य चुनाव आयुक्त श्री ज्ञानेश कुमार गुप्ता ने मतदाता पुनरीक्षण के मुद्दे पर प्रेस कान्फ्रैंस कर डाली और कांग्रेस नेता श्री राहुल गांधी द्वारा लगाये गये आरोपों को झूठा बताया। श्री ज्ञानेश कुमार अच्छी तरह जानते हैं कि चुनाव आयोग को किसी भी राजनीतिक दल से किसी प्रकार का मतलब नहीं होता। इसलिए उनका यह बयान कि राहुल गांधी सात दिनों के भीतर अपनी शिकायत के साथ शपथ पत्र दाखिल करें अन्यथा लगाये गये झूठे आरोपों पर देश से माफी मांगें, पूरी तरह अवांछित है।
वास्तव में ये शब्द कहते हुए श्री ज्ञानेश कुमार को यह ध्यान रखना चाहिए था कि श्री गांधी लोकसभा में विपक्ष के नेता हैं। उन्होंने कर्नाटक राज्य के एक विधानसभा क्षेत्र की मतदाता सूची में भारी संख्या में फर्जी मतदाताओं के होने की बात कही है। श्री गांधी ने चुनाव आयोग द्वारा दी गई मतदाता सूची में ही गड़बड़ी होने की बात सप्रमाण कही है। अतः चुनाव आयोग की जिम्मेदारी बनती है कि वह पूरे मामले की सघन जांच कराये। भारत के संसदीय लोकतन्त्र में ऐसे मौके कई बार आये हैं जब किसी राजनीतिक दल की लिखित शिकायत पर आयोग ने सख्त जांच कराई है। पिछले 79 वर्षों के भारत के इतिहास में ऐसा मौका पहली बार देखने को मिल रहा है जब मुख्य चुनाव आयुक्त किसी राजनेता से माफी मांगने के लिए कह रहा है और शपथ पत्र देने का निर्देश दे रहा है। यहां यह समझना बहुत जरूरी है कि चुनाव आयोग की कारगुजारियों से सरकार का कोई मतलब नहीं है, चाहे वह सरकार किसी भी राजनीतिक दल की हो। हमारे संविधान निर्माताओं ने देश में चुनाव कराने की प्रक्रिया और इसके पूरे तन्त्र को इसी उद्देश्य से स्थापित किया था कि हर हालत में चुनाव आयोग बिना किसी लाग-लपेट और भेदभाव के देश के चुने हुए सदनों के चुनाव करायेगा और इसके लिए मतदाता मंडल का निर्माण करेगा। यह मतदाता मंडल 18 वर्ष से ऊपर के हर भारतीय नागरिक का होगा।
इसका मतलब यही है कि चुनाव आयोग का मुख्य कार्य सर्वप्रथम ऐसी मतदाता सूची का निर्माण करना होगा जिसमें आलीशान मकान में रहने वाले व्यक्ति से लेकर सड़क पर ही सोने वाले व्यक्ति का नाम दर्ज होगा। इन सबके वोट की कीमत एक बराबर होगी। संविधान निर्माता डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर ने इसे राजनीतिक समानता की संज्ञा दी थी। यह समानता एक वोट के अधिकार से ही आयी जिसे महात्मा गांधी ने स्वयंभू मतदाता के रूप में निरुपित किया। लोकतन्त्र का असली मालिक यही मतदाता होता है। यह बेवजह नहीं है कि भारत में हर पांच साल बाद हर राजनीतिक दल का नेता जनता के बीच जाता है और कसम उठाता है कि यदि वह चुनाव जीतता है तो जनता या मतदाता का हुक्म बजायेगा। मतदाता बहुत सोच-समझ कर अपना वोट जब किसी राजनीतिक दल के प्रत्याशी को डालता है तो वह लोकतन्त्र का राजा होता है। अतः यदि मतदाता सूची से किसी भी भारत के नागरिक का नाम कट जाता है तो यह उसके साथ बेइमानी होती है। इसके उलट यदि मतदाता सूची में फर्जी नाम जुड़ जाते हैं तो यह लोकतन्त्र को प्रदूषित करते हैं।
बिहार में अभी तक 65 लाख मतदाताओं के नाम काट दिये गये हैं जिनमें 22 लाख ऐसे नागरिक हैं जिनकी मृत्यु हो चुकी है। मगर बहुत से मृत लोग जीवित पाये जा रहे हैं। इसे हम गफलत कहेंगे। चुनाव आयोग से अपेक्षा की जाती है कि वह एेसी गलती नहीं करेगा क्योंकि सूची बनाने का काम उसी का है। जहां तक शपथ पत्र का सवाल है तो खुद मुख्य चुनाव आयुक्त भी यह शपथ नहीं ले सकते कि उनके द्वारा बनाई गई सूची पूर्णतः त्रुटिहीन है। दरअसल चुनाव आयोग ऐसी संवैधानिक संस्था है जो भारत के पूरे लोकतन्त्र को अपने कन्धे पर ढोती है क्योंकि उसका कार्य समाप्त होने के बाद ही इस तन्त्र के तीन मुख्य खम्भे अपना कार्य करने में सक्षम हो पाते हैं। बेशक न्यायापालिका पूरी तरह स्वतन्त्र व अराजनीतिक होती है और वह देश में संविधान का शासन देखने के कर्त्तव्य से बन्धी होती है। जबकि कार्यपालिका व विधायिका चुनाव परिणामों पर मयस्सर होती हैं। इसी प्रकार चुनाव आयोग भी पूरी संवैधानिक शुचिता के साथ अपने कार्य को अंजाम देता है। मगर क्या कयामत है कि श्री ज्ञानेश कुमार फरमा रहे हैं कि राहुल गांधी देश से माफी मांगें।
ऐसा करके वह उस लक्ष्मण रेखा को लांघ गये जो संविधान ने ही उनके लिए खींची है। समझने वाली बात यह है कि राजनीतिक दलों की पूरी व्यवस्था देखने का काम जब चुनाव आयोग करता है तो उसे संविधान ने कुछ न्यायिक अधिकार भी दिये हैं। इन अधिकारों के चलते वह सभी राजनीतिक दलों को एक समान देखने के धर्म से बन्धा होता है। उसके लिए सत्ता पक्ष या विपक्ष के कोई मायने नहीं होते। वह केवल राजनैतिक दल की हैसियत ही पहचानता है। हमारे संविधान निर्माता इतनी खूबसूरत व्यवस्था करके गये हैं कि सभी राजनीतिक दलों की नकेल एक ‘अराजनैतिक’ संस्था चुनाव आयोग को दे दी। चुनाव आयोग सरकार का अंग न होते हुए भी देश में राजनीतिक प्रशासन प्रणाली की आधारशिला रखता है लेकिन विपक्ष व चुनाव आयोग की लागडांट अब सीधे जनता व चुनाव आयोग के बीच तनाव पैदा करता दिखता है। इस स्थिति को हर सूरत में टाला जाना चाहिए।