Top NewsIndiaWorld
Other States | Delhi NCRHaryanaUttar PradeshBiharRajasthanPunjabJammu & KashmirMadhya Pradeshuttarakhand
Business
Sports | CricketOther Games
Bollywood KesariHoroscopeHealth & LifestyleViral NewsTech & AutoGadgetsvastu-tipsExplainer
Advertisement

दिल्ली में चुनावोत्सव सम्पन्न

देश की राजधानी दिल्ली में चुनाव महोत्सव सम्पन्न हुआ जिसमें दिल्ली…

10:32 AM Feb 05, 2025 IST | Aditya Chopra

देश की राजधानी दिल्ली में चुनाव महोत्सव सम्पन्न हुआ जिसमें दिल्ली…

देश की राजधानी दिल्ली में चुनाव महोत्सव सम्पन्न हुआ जिसमें दिल्ली की जनता ने अपने वोट के संवैधानिक अधिकार का प्रयोग किया। चुनावी नतीजे क्या होंगे इसका पता तो 8 फरवरी को ही चलेगा परन्तु दिल्ली के चुनावी वातावरण से स्पष्ट हो रहा था कि इस बार मुकाबला बहुत कड़ा है और वह त्रिकोणात्मक है। यह मुकाबला आम आदमी पार्टी (आप), भाजपा व कांग्रेस के बीच रहा। ये तीनों ही पार्टियां चुनाव जीतने के लिए अपने पूरे दम-खम का प्रयोग करते हुए दिखाई भी पड़ीं। अब यह जनता तय करेगी कि किस पार्टी को उसका सर्वाधिक समर्थन मिला। चुनाव वास्तव में आम जनता के लिए राजनैतिक पाठशाला का काम करते हैं जिसमें विभिन्न राजनैतिक दल अपनी-अपनी विचारधारा के अनुसार लोगों से वोट मांगते हैं हालांकि वर्तमान समय में विचारधारा गौण होती जा रही है और व्यक्तिगत लांछनों का शोर बढ़ रहा है। इस स्थिति को किसी भी हालत में लोकतन्त्र के स्वास्थ्य के लिए मुफीद नहीं माना जा सकता।

चुनावों में हमने देखा कि किस प्रकार इन तीनों ही पार्टियों में मतदाताओं को मुफ्त सुविधाएं बांटने की प्रतियोगिता हुई। वैसे लोकतन्त्र में एेसी चीजों से बचने का भी उपाय नहीं है। इसकी वजह यह है कि भारतीय संविधान देश में लोक कल्याणकारी राज स्थापित करने की वकालत करता है। इस राज में लोगों के कल्याण का भाव सर्वोपरि होता है। विशेषकर उन लोगों के विकास के लिए यह तन्त्र समर्पित होता है जो सामाजिक-आर्थिक दौड़ में पीछे रह गये हैं। एेसे लोगों को राहत देने का विश्वास संविधान जुटाता है। इसलिए चुनावी वादों में गरीब तबकों के लोगों को सीधे नकद सहायता करने का वचन असंवैधानिक नहीं होता। बेशक एेसे नकद-रोकड़ा उपायों से बचा जाना चाहिए और सरकार को नीतिगत रूप से वंचितों को ऊपर उठाने के प्रयास करने चाहिएं। मुफ्त सुविधाएं बांटने से लोगों में अकर्मण्यता का भाव पैदा हो सकता है। इसके लिए एक ही उदाहरण काफी है।

भारत जब 1947 में आजाद हुआ था तो इसकी आर्थिक स्थिति बहुत पतली थी क्योंकि लगातार दो सौ वर्षों तक अंग्रेजों ने इसे अपना गुलाम रखकर इसकी सारी सम्पत्ति और धन धान्य की लूट की थी। 1949 में ओडिशा राज्य के मुख्यमन्त्री स्व. हरे कृष्ण महताब ने तब इस बात पर घोर आपत्ति जताई थी कि उनके राज्य के सबसे गरीब माने जाने वाले जिलों में अमेरिका सामुदायिक विकास की परियोजनाएं चलाएं। इन जिलों के नागरिकों को कई सुविधाएं मुफ्त में ही अमेरिका द्वारा प्रदान की जानी थीं। तब डाॅ. महताब ने प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू को एक खुला पत्र लिखा था और कहा था कि यदि हमने अमेरिकी राजदूत चेस्टर बोल्स को एेसी परियोजना चलाने की इजाजत दी तो लोगों में श्रम की महत्ता के कोई मायने नहीं रह जायेंगे और उनमें स्वावलम्बन की भावना समाप्त हो जायेगी। दूसरे लोग जब गोरी चमड़ी वाले अंग्रेजों को अपने बीच देखेंगे तो उनमें यह भावना घर कर सकती है कि आजादी मिलने के बावजूद अंग्रेज अभी भी उनके मालिक हैं। इस खत के बाद पं. नेहरू ने चेस्टर बोल्स को सामुदायिक विकास की परियोजना न चलाने का हुक्म दिया था। वर्तमान सन्दर्भों में यदि हम इस मुफ्त रेवड़ी प्रथा का अवलोकन करें तो पायेंगे कि गरीब लोगों को नकद सहायता देकर सरकार कोई एहसान नहीं कर रही है क्योंकि बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में श्रम की कीमत भी बाजार ही तय करता है जिसके चलते महंगाई पर काबू पाना किसी भी सरकार के लिए बहुत मुश्किल काम होता है। अतः गरीब आदमी को जब नकद रोकड़ा की मदद दी जाती है तो वह बाजार की शक्तियों का मुकाबला करने की हिम्मत जुटा सकता है। परन्तु यह अन्तिम हल नहीं है अन्तिम हल गरीबों के हक में सरकारी नीतियों का निर्धारण ही होता है। ये नीतियां सब्सिडी के रूप में ही हो सकती हंै। इससे नागरिकों में श्रम की समुचित कीमत मांगने का जज्बा बढ़ता है।

खैर आज का दिन इस फलसफे की गहराई में जाने का नहीं है क्योंकि दिल्ली वासियों ने चुनाव में खड़े हर दल के प्रत्याशी का भाग्य ईवीएम मशीनों में कैद कर दिया है। इसके बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि दिल्ली की जनता चाहे जिस पार्टी को भी सत्ता में बैठाये मगर उसका पहला कार्य बदहाल दिल्ली को व्यवस्थित करना ही रहेगा। चाहे राजधानी की सड़कों से लेकर साफ-सफाई का काम हो अथवा बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी का मुद्दा हो। ये प्रश्न एेसे हैं जिनका कुछ न कुछ निदान बनने वाली सरकार को करना ही होगा हालांकि बेरोजगारी व महंगाई राष्ट्रीय मुद्दे हैं मगर दिल्ली के स्तर पर बनी राज्य सरकार भी इनका हल निकालने से बंधी होगी। चुनावी प्रचार में दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था और स्वास्थ्य सेवाओं की भी जमकर चर्चा हुई। इन मुद्दों का जिक्र करना लोकतन्त्र के लिए सुखदायी माना जायेगा। चुनाव में केवल भावनात्मक मुद्दों को उभार कर वोटों की लूट ही होती है क्योंकि उसके पीछे कोई तर्क नहीं होता। इन चुनावों की विशेष बात यह भी रही कि उपरोक्त तीनों पार्टियों ने अपने-अपने उम्मीदवारों का चयन भी बहुत सूझ-बूझ (केवल एक-दो को छोड़ कर) के साथ किया।

एक तरफ भाजपा ने जहां अपने प्रादेशिक महारथियों को उतारा तो कांग्रेस ने भी प्रतिष्ठित राजनीतिज्ञों की फेहरिस्त जारी की और आम आदमी पार्टी ने भी मैदान में अपने मौजिज उम्मीदावरों की सूची जारी की। बेशक चुनाव में बद जुबानी भी रही मगर वह मतदाताओं पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकी। इन चुनावों के परिणामों का जायजा अब एग्जिट पोलों के माध्यम से लिया जायेगा। इन पर विश्वास करने का कोई कारण नहीं बनता है क्योंकि ये पर्दे के पीछे बैठे राजनैतिक आकाओं के इशारों के मोहताज होते हैं। अतः जनता को 8 फरवरी तक इन्तजार करना चाहिए। इन चुनावों में बेशक चुनाव आयोग से शिकायतें करने का पिछला रिकाॅर्ड टूटा है मगर यह कहा जा सकता है कि कमोबेश रूप से चुनाव शान्ति के साथ सम्पन्न हुए।

Advertisement
Advertisement
Next Article