चुनावी वादे और मुफ्त की संस्कृति
भारत में चुनावी राजनीति मुफ्ती संस्कृति (फ्रीबी कल्चर) के इर्द-गिर्द घूमने लगी है। महाराष्ट्र और झारखंड जैसे राज्यों में मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए बड़े पैमाने पर नकद सहायता, सब्सिडी और मुफ्त सेवाओं की पेशकश की…
भारत में चुनावी राजनीति मुफ्ती संस्कृति (फ्रीबी कल्चर) के इर्द-गिर्द घूमने लगी है। महाराष्ट्र और झारखंड जैसे राज्यों में मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए बड़े पैमाने पर नकद सहायता, सब्सिडी और मुफ्त सेवाओं की पेशकश की । हालांकि, ये योजनाएं लंबे समय में राज्यों की वित्तीय स्थिरता पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकती हैं।
महाराष्ट्र में महायुक्ति (एनसीपी-शिवसेना-बीजेपी गठबंधन) ने महिलाओं को 1500-2000 रुपए मासिक नकद सहायता देने का वादा किया है। इस योजना से 2.5 करोड़ महिलाओं को लाभ होगा लेकिन इसका वार्षिक खर्च 63,000 करोड़ रुपए होगा। अन्य वादों को मिलाकर कुल वित्तीय भार 1.55 लाख करोड़ से 1.70 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच सकता है। प्रमुख वादों की वित्तीय लागत महिलाओं के लिए मासिक नकद सहायता 63,000 करोड़, कृषि ऋण माफी 52,000-62,000 करोड़, वृद्धावस्था पेंशन (1000 प्रति माह) 12,000 करोड़, सस्ती बिजली और नवीकरणीय ऊर्जा 10,000 करोड़, 25 लाख नौकरियां और मुफ्त शिक्षा 37,000 करोड़ (5 वर्षों में) इन वादों की पूर्ति राज्य के खजाने पर गंभीर दबाव डाल सकती है, विशेषकर तब जब महाराष्ट्र पहले से ही कर्ज के बोझ तले दबा है।
झारखंड में हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली झारखंड मुक्ति मोर्चा सरकार ने अपने चुनावी वादों के जरिए सत्ता में वापसी की। गरीब महिलाओं को 1000 मासिक नकद सहायता, सार्वभौमिक पेंशन योजना, और बिजली बिल माफी जैसी योजनाओं ने 40 लाख लाभार्थियों को सीधे प्रभावित किया। झारखंड के वादों की लागत। सार्वभौमिक पेंशन योजना 9,000 करोड़ रुपए, मुफ्त शिक्षा 3750 करोड़, 10 लाख नौकरियां 20,000 करोड़, सब्सिडी वाले एलपीजी सिलेंडर 12,000 करोड़, सोरेन सरकार की मुफ्ती योजनाओं की कुल वार्षिक लागत 49,550 करोड़ आंकी गई है। राज्य पहले से ही राजस्व घाटे से जूझ रहा है और ये वादे वित्तीय संकट को और गहरा सकते हैं।
कांग्रेस शासित राज्यों का हाल ः हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, और राजस्थान जैसे कांग्रेस शासित राज्यों में भी मुफ्ती योजनाओं का प्रभाव दिख रहा है। हिमाचल सरकार अपने कर्मचारियों के वेतन और पेंशन देने में भी संघर्ष कर रही है। कर्नाटक में कांग्रेस ने चुनाव से पहले महिलाओं को नकद सहायता और मुफ्त गैस सिलेंडर का वादा किया। राजस्थान में अशोक गहलोत सरकार ने बिजली सब्सिडी और मुफ्त दवा योजनाओं को लागू किया था।
बीजेपी के शीर्ष नेताओं ने ‘रेवड़ी संस्कृति’ की कड़ी आलोचना की थी लेकिन अब उन्होंने इसे सुविधाजनक तरीके से अपना लिया है। यह खतरनाक फॉर्मूला महाराष्ट्र की वित्तीय स्थिति को बर्बाद कर देगा और यही बात झारखंड में जेएमएम पर भी लागू होती है। बीजेपी ने खुद मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में महिलाओं को नकद सहायता देने वाली योजनाएं लागू कीं।
नितिन गडकरी ने ‘लाडली बहन योजना’ के संभावित वित्तीय असर पर सवाल उठाए, जबकि मध्य प्रदेश में बीजेपी ने इसे ‘गेम चेंजर’ के रूप में प्रस्तुत किया। यह विरोधाभास दिखाता है कि राजनीतिक दल शॉर्ट-टर्म लाभ के लिए वित्तीय स्थिरता की अनदेखी कर रहे हैं। बीजेपी और कांग्रेस, दोनों ही पार्टियां वोट बैंक की राजनीति के लिए मुफ्त योजनाओं पर निर्भर हैं। आलोचक इसे ‘आप करो तो पाप, मैं करुं तो पुण्य’ का उदाहरण मानते हैं।
महायुक्ति ने 2024 के चुनावों में महिलाओं के बड़े वोट बैंक को साधने के लिए योजनाओं का सहारा लिया है। महिला सशक्तिकरण योजनाएं -बीजेपी और शिवसेना ने महिलाओं को मासिक नकद सहायता देकर बड़ा संदेश देने की कोशिश की है। कृषि और रोजगार-किसानों और बेरोजगार युवाओं को लुभाने के लिए कृषि ऋण माफी और नौकरियों की पेशकश की गई है।
विशेषज्ञ मानते हैं कि मुफ्ती योजनाओं का कार्यान्वयन बिना ठोस वित्तीय योजना के राज्यों को गहरे कर्ज में धकेल सकता है। महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य के लिए इन वादों का मतलब कर्ज का और बढ़ना है। झारखंड जैसे छोटे राज्यों के लिए वित्तीय घाटा बढ़ने से विकास योजनाओं पर असर पड़ेगा।
झारखंड का फोकस : झारखंड में जेएमएम ने ग्रामीण मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए कृषि, रोजगार और बिजली माफी योजनाओं का सहारा लिया। हालांकि, इन योजनाओं के कारण राज्य को दीर्घकालिक वित्तीय अस्थिरता का सामना करना पड़ सकता है।
राजनीतिक दलों को शॉर्ट-टर्म फ्रीबीज़ के बजाय दीर्घकालिक विकास योजनाओं पर ध्यान देना चाहिए। फोकस क्षेत्रों में निवेश शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे में निवेश से राज्यों को दीर्घकालिक लाभ होगा। वित्तीय अनुशासन : राज्य सरकारों को वित्तीय अनुशासन अपनाकर अनावश्यक खर्चों में कटौती करनी चाहिए। राजनीतिक नैतिकता- दलों को मुफ्त योजनाओं की होड़ छोड़कर जिम्मेदारी से चुनावी वादे करने चाहिए।
महाराष्ट्र और झारखंड जैसे राज्यों में चुनावी वादों की भारी लागत न केवल वित्तीय अस्थिरता को बढ़ा रही है, बल्कि यह दीर्घकालिक विकास पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालेगी/राजनीतिक दलों को समझना होगा कि शॉर्ट-टर्म लाभ के लिए मुफ्त योजनाओं पर निर्भरता राज्यों को कर्ज के जाल में फंसा सकती है।
(लेखक शिमला स्थित सामरिक मामलों के स्तंभकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)