इस हवेली में आती है हर वर्ष एक आत्मा
हरियाणा के जिला झज्जर के एक गांव गुडि़यानी में एक हवेली है, जहां इस समय सिवाय कबूतरों के, और कोई नहीं रहता। कुछेक कोनों में कुछ पुरानी पांडुलिपियां लाल कपड़ों में बंधी रखी थीं, अब शायद नहीं होंगी या वे गठरियां होंगी भी तो उनका रंग भी बदल चुका होगा। इन्हीं दिनों एक आत्मा भी वहां आती है और पूरे जनपद में चक्कर लगाकर लौट जाती है। यह दिव्य-आत्मा उस शख्स की है जो इसी हवेली की ओर, ‘कोलकाता’ से एक सेवादार के साथ रेल द्वारा चला था। यह संभवत: 13-14 सितम्बर, 1907 की घटना है। उसके साथ उसकी एक संदूकची थी, जिसमें कुछ किताबें, कुछ कोरे कागज, कुछ अखबारों की कतरनें, दो टोपियां, दो-तीन जोड़ी कुर्ते-पायजामे व एक छोटी सी सरस्वती प्रतिमा व एक जोड़े तौलिया-मौजे व एक जोड़ी चप्पल थीं। साथ ही दैनिक पूजा-अर्चना के लिए तांबे की एक प्लेट, घंटी व धूपदान भी था।
जब वह शख्स कलकत्ता से चला था तब से उसे तेज बुखार था। सांस उखड़ी हुई थी, उस पर लम्बी यात्रा। एक ही तड़प थी कि किसी तरह अपनी जन्मस्थली पहुंच जाए और वहां पुरखों की हवेली में ही अंतिम दिन कुछ लिखते-लिखाते कटे। मगर रेल पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर देर से पहुंची। उस समय गांव की ओर जाने का कोई साधन नहीं था। सेवक उसे किसी तरह रेलवे स्टेशन के सामने स्थित एक धर्मशाला तक ले आया। मगर मैनेजर ने जब देखा कि रात बिताने के लिए आने वाले शख्स की सांसें उखड़ रही हैं, फतेहपुरी में तो उसने धर्मशाला में कमरा देने से भी इन्कार कर दिया। तब तक सर्दी का मौसम भी दस्तकें दे चुका था। सेवक ने मुश्किल से अपने स्वामी को उसी धर्मशाला के बाहरी बरामदे में िलटा दिया। एक कम्बल उढ़ा दिया और उसी रात किसी क्षण उस दिव्य पुरुष ने ‘हरि ओम’ कहते हुए अंतिम सांस ली। अधखुली आंखों में उस पुश्तैनी हवेली का चित्र था, जहां वह दिव्य पुरुष पहुंच नहीं पाया।
अगले दिन पौ फटने से पहले ही उस सेवक ने एक पुराने जमाने की जीप का सहारा लिया। जीप-ड्राइवर को अपनी जेब की सारी राशि दी और कम्बल में लिपटे उस दिव्य शव को डालकर गांव तक ले आए। वहां गांव वाले एक आवाज पर ‘बाबू जी, बाबू जी’ कहते एकत्र हो गए। पंचायती निर्णय हुआ कि अंतिम-क्रिया विधिपूर्वक हो। उस समय परिजन भी आ पाए या नहीं, यह तो पता नहीं चला लेकिन उस दिव्य पुरुष, जिसकी कलम से लार्ड कर्जन सरीखा वायसराय भी कांपता था, की अंतिम-क्रिया हुई।
उस शख्स ने लगभग 16 कृतियां दी थीं, ‘हिन्दुस्तान’ (कालाकांकर) का सम्पादन किया था। कलकत्ता में उस समय के सबसे बड़े दैनिक ‘भारतमित्र’ का भी सम्पादन किया था। लाहौर से छपने वाले ‘कोहेनूर’ (उर्दू पत्र) व ‘अखबारे चुनार’ (उर्दू) का भी सम्पादन किया था। उनकी चर्चित रचनाओं में ‘शिवशम्भू के चिट्ठे’ के इलावा उर्दू बीबी के नाम चिट्ठी भी शामिल थी। उसके प्रशंसकों के हिंदी के महान विद्वान आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, पत्रकार महाशय कृष्ण, उर्दू के अदीब मंटो, शायर अहमद नदीम कासमी व फैज़ भी शामिल थे।
42 वर्ष की अल्पायु में ही अंतिम सांस लेने वाले इस दिव्य लेखक बाबू बाल मुकन्द गुप्त की स्मृति को अक्षुण्ण बनाए रखने वालों में उनकी स्मृति में एडवोकेट नरेश चौहान के नेतृत्व में दर्जनभर दीवानों कर एक शोध संस्थान भी स्थापित किया। वर्ष में दो बार समारोहों की परंपरा आरंभ की। यहां प्रदेश के लगभग सभी मुख्यमंत्रियों ने यहां आने व इस हवेली को एक राष्ट्रीय स्मारक का रूप देने की घोषणाएं की। मगर एक मुख्यमंत्री के इलावा शेष कोई भी नहीं आ पाया। ऐसी दिव्य आत्माएं अभिशाप तो नहीं देती, मगर श्राद्धों के दिनों अपनी जन्मस्थली तक आती तो हैं। उनकी इतनी अपेक्षा कभी-कभी कचोटती अवश्य है।
इस दिव्य आत्मा का नाम था, प्रख्यात साहित्यकार व पत्रकार ‘बाबू बाल मुकुन्द गुप्त’। परिजन अब भी कलकत्ता में रहते हैं। बाबू जी का श्राद्ध कर्म होता होगा मगर शेष भटकाव अभी जारी है। श्राद्धों के दिनों में यदि पितर धरती पर उतरते हैं तो यह मान कर चलना चाहिए कि रेवाड़ी के समीप गांव गुडियानी में भारत के हिंदी पत्रकारिता के महानायक बाबू बाल मुकुंद गुप्त की आत्मा भी अपनी धीरे-धीरे ध्वस्त हो रही हवेली के आसपास होगी। इसी हवेली में बाबू बाल मुकुंद गुप्त ने पहली बार आंखें खोली थी। यहीं से पंडित मदन मोहन मालवीय, उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें पहले कालाकांकर और फिर लाहौर व कलकत्ता (अब कोलकाता) ले गए थे।
इसी गांव के परिवेश में व जनपद में अपनी शुुरुआती शिक्षा-प्राप्ति के दौरान ही गुप्त जी ने लिखना शुरू कर दिया था। कुछ लेख छपे तो लेखनी की सुगंध आसपास फैलने लगी। कालाकांकर में उन्हें वहां से प्रकाशित होने वाले ‘हिन्दोस्तान’ का सम्पादन-कार्यभार मिला और जब ख्याति फैली तो ‘कोहेनूर’ में चले गए। लेखों की धूम का सिलसिला शुरू हो चुका था। वहां से कलकत्ता में ‘भारत-मित्र’ और बंगबंधु के सम्पादक पद की पेशकश आई तो वहां चले गए। वहां सम्पादन कार्य चुनौतीपूर्ण भी था और ढेरों उम्मीदें भी लगाई जाती थीं एक सम्पादक से। उन दिनों ऐसा पहली बार हुआ था कि तत्कालीन वायरसराय लार्ड कर्जन ने अपने स्टाफ को, बाबू बाल मुकुंद गुप्त के सम्पादकीय लेखों और उनके नियमित स्तम्भ ‘शिव शम्भू के चिट्ठे’ का अंग्रेजी अनुवाद दैनिक आधार पर उन्हें भेजने का आदेश दिया था। कलकत्ता-प्रवास के मध्य हिंदी के महान विद्वान महावीर प्रसाद द्विवेदी से भी बाबू बाल मुकुंद गुप्त का टकराव हो जाया करता था लेकिन अधिकांश अवसरों पर द्विवेदी जी को ही झुकना पड़ता था। कहां गुडि़यानी का ग्रामीण युवा पत्रकार और कहां भाषा-मर्मज्ञ आचार्य द्विवेदी। बहरहाल, खूब चर्चा होती गुप्त जी की। इसी बीच उन्होंने बंगला की कृतियों के हिंदी अनुवाद का सिलसिला भी शुरू कर दिया।
काम के बोझ से शरीर शीघ्र ही हारने लगा था। एक बार उनको लगा कि अब लम्बी पारी नहीं खेल पाएंगे तो उन्होंने अपने गांव गुडि़यानी लौटने का मन बना दिया। कोलकाता से तो यही कहकर अवकाश लिया था कि वापिस लौट आएंगे लेकिन मन में यही आशंका थी कि शायद शरीर इतना श्रम झेल नहीं पाएगा। पिछले कुछ दशकों से बाबू जी के दीवाने हर वर्ष उसी हवेली में हवन करते हैं और फिर शहर में एक समारोह। मगरअब धीरे-धीरे हवेली की हालत खराब होने लगी हैं और जहां बैठकर बाबू जी कलम-क्रांति करते थे वह स्थल भी ध्वस्त होने लगा है। वंशज कोलकाता में रहते हैं। एक प्रपौत्र विमल गुप्त सरकार को बार-बार आग्रह कर रहे हैं कि यह हवेली सरकार ले ले और कोई स्मारक बन जाए। कुछ दीवाने लोग हैं एडवोकेट नरेश चौहान, रोहित यादव, ऋषि सिंहल, सत्यवीर नाहडि़या और प्रवीण खुराना जैसे जो अब भी अपने दायित्व और लगाव से बंधे हुए हैं।
ढेरों प्रश्न हैं जो अभी भी उत्तर के मोहताज हैं। पहला यह कि इस हवेली का अधिग्रहण क्यों नहीं हो पा रहा? दूसरा यह कि क्या युवा पीढ़ी अभी भी इस महान युगपुरुष के साथ भावनात्मक या विचारात्मक रूप से जुड़ी हुई है? तीसरा यह कि बाबू जी पर ग्रंथावलियां तो छपीं लेकिन क्या इस जनपद के शिक्षा संस्थानों तक पहुंच पाई? चौथा उन परिस्थितियों पर शोध, जिनमें बाबू जी मात्र चार दशक (42 वर्ष) ही जी पाए। उनके महाप्रयाण के बारे में कोई पुख्ता विशेष विवरण अभी भी नहीं मिलता।