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कब है देवशयनी एकादशी और क्या है इसका महत्व?

03:09 PM Jun 11, 2024 IST
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देवशयनी एकादशी: एक भारतीय विक्रम संवत में चन्द्र की गति के अनुसार कुल 24 एकादशियां आती है। हालांकि यह एक स्थूल आकलन है। क्योंकि जिस वर्ष क्षय मास होता है उस वर्ष 22 एकादशियां आती हैं और इसी प्रकार से जिस वर्ष में अधिक मास होता है, तो 26 एकादशियां आती है। वैसे तो सभी एकादशियों का कुछ न कुछ धार्मिक महत्व होता है। लेकिन आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी विशेष महत्वपूर्ण है। क्योंकि इस एकादशी को देवशयनी एकादशी कहा जाता है। और मान्यता है कि इस तिथि के बाद चार मास तक देवता शयन करने के लिए चले जाते हैं।जब यह एकादशी आती है तो सूर्य मिथुन राशि में गोचर कर रहे होते हैं। इस दिन से चातुर्मास का आरम्भ माना जाता है। सनातन के अलावा जैन धर्म में भी इस तिथि का विशेष महत्व है। इस एकादशी से देवउठनी एकादशी तक का चातुर्मास तक का समय हिन्दू और जैन धर्म के संत केवल एक ही स्थान पर व्यतीत करते हैं। मान्यता है कि इस दिन से चार मास पर्यन्त भगवान श्री विष्णु क्षीरसागर में शयन के लिए चले जाते हैं। जब सूर्य तुला राशि में प्रवेश कर जाते हैं तो उसके बाद आने वाली एकादशी को भगवान जागते हैं जिसके बाद शुभ कार्यों को पुनः आरम्भ किया जाता है। इस दिन को देवोत्थानी एकादशी भी कहा जाता है। जैन धर्म में चातुर्मास का विशेष महत्व है। जैन धर्म में माना जाता है कि इस चातुर्मास में चूंकि वर्षा अधिक होती है। जिसके कारण भूमि पर जीवों की उत्पत्ति बढ़ जाती है। यदि हम भूमि पर लगातार विचरण करेंगे तो जीव हिंसा अधिक होगी। इसलिए जैन धर्म और दूसरे धर्म के साधु और संत इन चार मास में एक ही स्थान पर ठहर कर प्रवचन करते हैं जिससे जीव हिंसा से बचा जा सके।

कब है देव शयनी एकादशी

आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देव शयनी एकादशी कहा जाता है। इस बार यह एकादशी अंग्रेजी दिनांक के अनुसार 17 जुलाई 2024, बुधवार को है। इस दिन एकादशी तिथि रात्रि 9 बजे तक रहेगी। इसलिए समस्त दिन ही शुभ है।

करीब चार मास तक बंद रहेंगे शुभ और मांगलिक कार्य

कुछ प्रसिद्ध अबूझ मुहूर्त के अलावा 17 जुलाई से करीब चार मास तक शुभ कार्य वर्जित रहते हैं। स्थूल रूप से विवाह, नींव का मुहूर्त, यज्ञोपवीत संस्कार और गृह प्रवेश जैसे शुभ कार्य इन चार महीनों में वर्जित कहे जाते हैं। चूंकि इन चार मास तक श्री हरि योग निद्रा में चले जाते हैं और किसी भी शुभ कार्य में भगवान श्रीहरि का साक्षी होना आवश्यक है। इसलिए इन चार मास में शुभ कार्यों को वर्जित कहा गया है। हालांकि कुछ प्रसिद्ध अबूझ मुहूर्त होते हैं जिनमें किसी प्रकार का बंधन नहीं होता है। इनमें शुभ कार्यों का किया जाना शास्त्रोचित माना जाता है। वैसे चातुर्मास में सभी शुभ कार्य वर्जित नहीं है। पूजा और अनुष्ठान जैसे कार्य किये जा सकते हैं। दीपावली के ग्यारह दिन बाद जो एकादशी आती है। उसे देव उठनी एकादशी कहा जाता है। उसके बाद पुनः शुभ कार्यों का आरम्भ होता है।

क्या कहती हैं पौराणिक कथाएं

देव शयनी एकादशी के संदर्भ में बहुत सी कथाएं प्रचलन में है। एक कथा शुखासुर दैत्य से जुड़ी हुई है। मान्यता है कि आषाढ़ शुक्ल की एकादशी को भगवान के हाथों से शुखासुर दैत्य का वध हुआ था। अतः इसी दिन से भगवान श्री विष्णु चार मास के लिए शयन करने के लिए क्षीर सागर में प्रवेश करते हैं। एक दूसरी कथा के अनुसार भगवान श्री विष्णु देव शयनी एकादशी के दिन राजा बलि के द्वार पर चार मास लगातार शयन करते हैं। और देव उठनी एकादशी के दिन वे लौटते हैं। इन चार मास को चातुर्मास कहा जाता है। एक अन्य कथा के अनुसार बली नाम से एक असुर था। उसे अपनी शक्ति पर बड़ा अहंकार था। लेकिन वह महान दानी भी था। उसने तीनों लोकों को जीत लिया था। राजा बली में अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया। समापन पर जब दान की परम्परा चल रही थी तो भगवान श्री विष्णु ने उसके अहंकार को नष्ट करने के लिए ब्राह्मण का रूप धारण किया और दान लेने के लिए पहुंच गये। लेकिन दैत्य गुरु शुक्राचार्य उनकी मंशा को भांप गये और उन्होंने राजा बली को सचेत किया कि यह वामन रूप में भगवान श्री विष्णु हैं। लेकिन राजा बली ने कहा कि जो मेरे सामने याचक बनकर आता है उसे मैं दान के लिए मना नहीं कर सकता हूं। लेकिन शुक्राचार्य को संतोष नहीं हुआ और वे छोटा रूप बनाकर राजा बली के पानी के कमंडल की नली में जाकर बैठ गये। क्योंकि वे जानते थे कि यदि कमंडल से पानी नहीं आयेगा तो राजा बली दान का संकल्प नहीं ले पायेंगे। लेकिन भगवान विष्णु ने एक छड़ी को कंमडल की नली में डाल कर शुक्राचार्य को वहां से हटाने की कोशिश की जिसके कारण शुक्राचार्य की एक आंख फूट गई और मजबूरी में उन्हें वहां से हटना पड़ा। परिणामस्वरूप राजा बली ने दान का संकल्प ले लिया। भगवान श्री विष्णु ने बली से तीन पग भूमि की मांग की। राजा बली ने सोचा यह कोई बड़ा दान नहीं है लेकिन भगवान ने अपना आकार बढ़ा लिया और उन्होंने पहले पैर से संपूर्ण पृथ्वी और आकाश को दिशाओं सहित माप लिया। जब भगवान ने दूसरा पैर रखा तो उसमें स्वर्ग लोक आ गया। इस प्रकार से तीसरे पैर को रखने की कोई जगह शेष नहीं रही। स्थिति को भांपते हुए राजा बलि ने भगवान को तीसरा पग अपने सिर पर रखने का कहा। इस आचरण से भगवान बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने वरदान का आशीर्वाद दिया। राजा बली ने वरदान के तौर पर श्री विष्णु से अनुरोध किया कि वे उनके महलों में निवास करे। यह धर्म संकट की बात थी। कोई उपाय न देख कर महालक्ष्मी ने राजा बली को अपना भाई बना लिया। जिसके कारण बाली से श्रीहरि को वचनों से मुक्त कर दिया। मान्यता है कि इसके बाद भी श्री विष्णु भगवान ने अपने वचनों के पालन के लिए देवशयनी एकादशी से देवउठनी एकादशी तक क्षीर सागर में निवास करते हैं।

देवशयनी एकादशी का महत्व

वैसे तो सभी एकादशी को व्रत का महत्व सर्वविदित है। लेकिन देवशयनी और देवउठनी एकादशी विशेष फलदायी समझी जाती है। इस दिन उपवास करने से पूर्व जन्म के पापों से छुटकारा मिलता है। मान्यता है कि इस दिन भगवान श्रीहरि की पूजा और ध्यान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। श्री विष्णु पालनहार है इसलिए इस दिन व्रत रखकर पीले फलों और फूलों से भगवान श्री विष्णु की पूजा करने से रोजगार प्राप्त होता है। बिजनेस में वृद्धि होती है। समस्याओं से छुटकारा मिलता है।

Astrologer Satyanarayan Jangid
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