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विफल होता बैंकिंग तंत्र

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11:23 PM Sep 18, 2017 IST | Desk Team

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देश के बैंकों की हालत काफी खराब है। सरकार द्वारा बैंकों में काफी पूंजी डालने के बाद भी बैंकों की वित्तीय हालत बहुत खस्ता हो चली है। इसका सबसे बड़ा कारण है विलफुल डिफाल्टर। जानबूझ कर बकाया कर्ज नहीं चुकाने वालों की संख्या में बढ़ौतरी हो रही है। 2013 में बैंकों की बकाया रकम 25,410 करोड़, 2014 में 39,507 करोड़, 2015 में 56,798 करोड़, 2016 में 17,694 करोड़ और 2017 में यह राशि बढ़कर 1,09,594 करोड़ हो चुकी है। विजय माल्या को लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) ने जानबूझकर कर्ज न चुकाने वाला यानी इरादतन चूककर्ता घोषित किया लेकिन वह इससे पहले ही लन्दन भाग चुका था। विजय माल्या तो 7 हजार करोड़ से भी ज्यादा का ऋण लेकर भाग गया।

पिछले महीने ही बैंकों और दूसरी संस्थाओं से 2,500 करोड़ का कर्ज लेने वाले देश के सबसे बड़े विलफुल डिफाल्टर कैलाश अग्रवाल को गिरफ्तार किया था। कैलाश अग्रवाल देश के 10 टॉप विलफुल डिफाल्टरों में से एक है। उसने अपने बिजनेस पार्टनर किरण मेहता के साथ मिलकर कई बैंकों को चूना लगाया था। बैंकों को बकाया राशि का नहीं मिलना और उनकी गैर-निष्पादित सम्पत्तियों का बढऩा देश की बैंकिंग व्यवस्था के लिए अशुभ है। यह बैंकों को अस्थिर करने के साथ ही देश की अर्थव्यवस्था को नुक्सान पहुंचाने वाली बड़ी राशि है। यह सही है कि कई बार व्यापार चल नहीं पाते और उन्हें असमय बन्द करने की नौबत आ जाती है लेकिन इसका भी कोई औचित्य नहीं कि कर्ज लेने वाले घी पीते जाएं, अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा कायम करें, अथाह सम्पत्ति खरीदें और जब ऋण चुकाने की बारी आए तो खुद को कर्ज चुकाने में अक्षम घोषित करने की राह पर चल निकलें। जानबूझ कर कर्ज चुकाने में आनाकानी करने वालों के खिलाफ कार्रवाई इसलिए भी जरूरी है क्योंकि देश में ऐसा माहौल बन चुका था कि सरकारें बड़े उद्यमियों के खिलाफ तो कोई कार्रवाई नहीं करतीं जबकि आम आदमी के खिलाफ या किसानों के खिलाफ कुछ हजारों का ऋण न चुकाने पर कार्रवाई कर दी जाती है। उनकी सम्पत्ति कुर्क कर ली जाती है। अब कुछ कम्पनियों को दिवालिया घोषित करने की प्रक्रिया चल रही है।

केन्द्र सरकार ने बैंकों के फंसे कर्ज को चुकाने में हीलाहवाली करने वालों से वसूली का खाका तैयार किया था। केन्द्र सरकार ने बैंकिंग कानून में अहम बदलाव सम्बन्धी एक अध्यादेश भी जारी किया था। यह अध्यादेश फंसे कर्ज संकट का सामना कर रहे बैंकों को बचाने के मामले में सरकार की गंभीरता को व्यक्त करने वाला था। ऋण न चुकाने वालों के खिलाफ कार्रवाई का अधिकार आरबीआई को दिया गया। रिजर्व बैंक को एनपीए के मामले में लम्बे समय के बाद आवश्यक अधिकार प्रदान किए गए। इससे स्पष्ट हो जाता है कि नियामक संस्थाओं को गठन के साथ ही पर्याप्त अधिकार देना भी जरूरी होता है। अगर नियामक संस्थाओं के पास अधिकार ही नहीं होंगे तो वह पंगु होकर रह जाएंगी और लोगों का भरोसा उन पर से उठ जाएगा। कई बैंकों ने गैर-निष्पादित संपत्तियों के बारे में लापरवाही का परिचय दिया है। कर्ज लेने वालों के साथ-साथ बैंकों के ढुलमुल रवैये के कारण भी गैर-निष्पादित सम्पत्ति लाखों करोड़ तक जा पहुंची है। अगर अब भी विलफुल डिफाल्टरों की संख्या बढ़ रही है तो साफ है कि बैंकिंग fतंत्र में कहीं न कहीं खामी है। कई बैंकों ने डिफाल्टरों का पूरा कर्ज डूबा हुआ मान लिया, दूसरे शब्दों में राइट ऑफ कर दिया है। बैंकों ने बड़े औद्योगिक घरानों, बड़े लोगों को आंख बन्द करके ऋण दिया। पूरे भारत में 57 लोग ऐसे हैं जिन पर सरकारी बैंकों के 85,000 करोड़ उधार हैं।

ये वे बड़े लोग हैं जिन्होंने 500 करोड़ से कम ऋण लेना अपनी शान के खिलाफ समझा है। आलीशान जिन्दगी बिताई और बाजार से भाग लिए। बाद में उनकी सम्पत्तियों की नीलामी के लिए घोषणा की जाती है लेकिन कोई बोलीदाता आता ही नहीं। क्या बैंकों और बाजार नियामक सेबी का यही काम रह गया है कि वह डिफाल्टरों के पीछे-पीछे भागती रहे। सेबी ने जानबूझ कर कर्ज न चुकाने वालों और उनकी कम्पनियों के लिए पूंजी बाजारों से धन जुटाना कठिन बना दिया है। उसने कई कम्पनियों को आम लोगों से धन जुटाने और सूचीबद्ध कम्पनियों का नियंत्रण संभालने से प्रतिबंधित कर दिया है। नोटबंदी के बाद बैंकों का भ्रष्ट तंत्र ही उजागर हुआ। बैंकिंग सिस्टम को भ्रष्टाचारमुक्त बनाने के लिए आरबीआई को शिकंजा कसना होगा। तंत्र की खामियां दूर नहीं की गईं तो बैंकिंग तंत्र ही नाकाम हो जाएगा।

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