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आमरण अनशन पर किसान

संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा है और राजधानी से बहुत दूर पंजाब व हरियाणा की सीमा…

11:06 AM Dec 18, 2024 IST | Aditya Chopra

संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा है और राजधानी से बहुत दूर पंजाब व हरियाणा की सीमा…

आमरण अनशन पर किसान

संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा है और राजधानी से बहुत दूर पंजाब व हरियाणा की सीमा पर किसान नेता सरदार जगजीत सिंह डल्लेवाल आमरण अनशन पर बैठे हुए हैं। उनका अनशन किसानों की मांगों के लिए है जिसमें उनकी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी प्रमुख है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में यह बात अटपटी लगती है कि किसान आन्दोलन चला रहे हों क्योंकि भारत की आजादी के बाद हमने औद्योगिक क्षेत्र से लेकर अन्य क्षेत्रों में जितनी भी तरक्की की है उसमें कृषि क्षेत्र का मुख्य योगदान है। अपने कृषि क्षेत्र को आत्मनिर्भर बना कर ही हमने अर्थव्यवस्था के अन्य मानकों जैसे उद्योग व सेवा क्षेत्रों में प्रगति की है। भारत के विकास में कृषि क्षेत्र की भूमिका ‘आक्सीजन’ की रही है। इस क्षेत्र की अनदेखी करने पर पूरी अर्थव्यवस्था पर विपरीत असर पड़ता है। हम जानते हैं कि पिछले वर्षों में किसानों ने तीन केन्द्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ लगातार एक साल तक कड़ा संघर्ष किया था और उनकी मांगों के सामने सरकार को झुकना पड़ा था। इस आन्दोलन के दौरान 700 से अधिक किसानों की बलि भी चढ़ गई थी। अन्ततः सरकार ने तीनों कानून वापस ले लिये थे। उस समय किसानों व सरकार के बीच जो बातचीत चली थी उसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली को कानूनी जामा पहनाने पर भी सहमति बनी थी। श्री डल्लेवाल अब इसी मांग को मनवाने के लिए आमरण अनशन पर बैठे हुए हैं। इस स्थान पर भी किसान पिछले एक साल से डेरा डाले पड़े हैं। इनकी मांग थी कि इन्हें विरोध जताने के लिए दिल्ली आने दिया जाये परन्तु हरियाणा सरकार ने उनकी यह मांग स्वीकार नहीं की और उन्हें शम्भू बार्डर से आगे नहीं बढ़ने दिया।

किसानों के सन्दर्भ में हमें यह हमेशा ध्यान रखना होगा कि उनकी कोई ‘जात’ नहीं होती। हर धर्म और जाति का व्यक्ति किसान हो सकता है। गौर करने वाली बात यह है कि जब भारत आजाद हुआ था तो इसकी आबादी 34 करोड़ के करीब थी और उनमें से 90 प्रतिशत से अधिक लोग खेती पर ही निर्भर थे। अब हमारी आबादी 140 करोड़ से भी अधिक है और खेती पर निर्भरता केवल 60 प्रतिशत लोगों की ही है। इसका सीधा मतलब यह है कि पिछले 77 वर्षों में हमने लोगों को खेती से अन्य क्षेत्रों में स्थानान्तरित किया। इस परिवर्तन में ही भारत की प्रगति व विकास का मन्त्र छिपा हुआ है। क्योंकि स्वतन्त्र भारत के अभी तक के इतिहास में हुए किसानों के सबसे बड़े नेता स्व. चौधरी चरण सिंह किसानों को ही यह समझाते थे कि किसी भी मुल्क की तरक्की इस बात पर निर्भर करती है कि उसके कितने लोग खेती पर निर्भर हैं। वह अपनी जनसभाओं में कहा करते थे कि जिस देश में खेती में ज्यादा लोग लगे होंगे वह गरीब होगा और जिसमें कम लोग खेती में लगे होंगे वह अमीर होगा। इस सन्दर्भ में वह अमेरिका का उदाहरण दिया करते थे और भारत की उससे तुलना करते थे। इसका अर्थ यह निकलता है कि यदि किसान आर्थिक रूप से सम्पन्न व मजबूत होगा तो देश अमीरी की तरफ जायेगा। इसकी वजह भी चौधरी साहब बताया करते थे कि किसान का बेटा-बेटी जब डाॅक्टर व इंजीनियर या प्रोफैसर व वैज्ञानिक या अन्य धंधों में जायेगा तो निश्चित रूप से देश तरक्की करेगा मगर इसकी एक शर्त है कि किसान की आमदनी में इजाफा होता रहे और कृषि क्षेत्र में वैज्ञानिक तरीकों से उत्पादन बढ़ता रहे। यह फार्मूला संरक्षित अर्थ व्यवस्था के दौर का था।

1991 से भारत में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ मगर 2004 तक कृषि क्षेत्र लावारिस बना रहा। उदारीकरण के जनक डा. मनमोहन सिंह ने कृषि क्षेत्र की तरफ ध्यान नहीं दिया और उनका जोर सेवा व औद्योगिक क्षेत्र की तरफ ही रहा मगर कृषि क्षेत्र इस दौरान भी उत्पादन बढ़ाता रहा और भारत देखते-देखते ही कृषि जन्य उत्पादों का निर्यातक देश बन गया। इससे कृषि क्षेत्र में विविधीकरण की आवश्यकता महसूस होने लगी। मगर विविधीकरण तब तक जोर नहीं पकड़ सकता जब तक कि किसानों की वर्तमान उपजों का न्यूनतम समर्थन मूल्य लाभप्रद दरों पर तय न किया जाये। इसी वजह से डल्लेवाल कह रहे हैं कि फसलों के समर्थन मूल्य के लिए कानूनी घेरा बनाया जाये। इसका एक कारण यह भी है कि भारत को बहुत सी खाद्य वस्तुओं का आयात भी करना पड़ता है जिनमें खाद्य तेल प्रमुख है। भारत में तिलहन के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए 2011-12 के बजट में तत्कालीन वित्त मन्त्री श्री प्रणव मुखर्जी ने विशेष पायलट योजना चलाई थी। इसके सुखद परिणाम हमें कालान्तर में मिले हैं लेकिन इसके बावजूद अब भी खाद्य तेलों का आयात करना पड़ता है। कृषि उत्पादों के खुले आयात-निर्यात की वजह से खेती का विविधीकरण बाजार मूलक अर्थव्यवस्था की आवश्यक शर्त है। इसलिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटीशुदा कानूनी व्यवस्था जरूरी है। यह कार्य असंभव नहीं है क्योंकि इसमें भारत के विकास का मन्त्र छिपा हुआ है।

पिछले दिनों आनशन कर रहे श्री डल्लेवाल से सरकार के आला

अधिकारियों ने मुलाकात भी की। मगर इसका कुछ परिणाम नहीं निकला। वर्तमान कृषि मन्त्री शिवराज सिंह चौहान यह सारा तमाशा क्यों देख रहे हैं खुदा जाने! मगर इतना निश्चित है कि पंजाब के किसानों की मांगों की प्रतिध्वनि पूरे देश में सुनाई देने लगी है। अतः संसद के शीतकालीन सत्र में ही इस मुद्दे पर गंभीर चर्चा होनी चाहिए।

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Aditya Chopra

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