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बाढ़ का बढ़ता कहर

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08:58 PM Jul 25, 2017 IST | Desk Team

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प्रकृति मनुष्य और जीव-जंतुओं को जीवन देती है, उन्हें पालती है, उन्हें लाभ पहुंचाती है लेकिन प्राकृतिक आपदायें इंसानों और जानवरों का जीवन कष्टमय बना देती है, उन्हें मौत की आगोश में हमेशा के लिये सुला देती है। बाढ़ आना राष्ट्र की सबसे आम प्राकृतिक आपदा है। बाढ़ केवल भारत में ही नहीं आती, अमेरिका के हर राज्य में भी बाढ़ आती है। लन्दन में बाढ़ आती है तो न्यूजीलैंड भी बाढ़ से प्रभावित होता है। बाढ़ से कोई देश अछूता नहीं है। विदेशों की बड़ी बाढ़ों में ब्राजील की अमेजन और सोवियत रूस की येनसी नदी की बाढ़ें उल्लेखनीय हैं। इन बाढ़ों में एक सैकेंड में 50 हजार क्यूबिक मीटर पानी का प्रवाह रिकार्ड किया गया था। अमेरिका की मिसिसिपी और मिसौरी नदी की 1993 की बाढ़ को आधुनिक अमेरिका के इतिहास में सबसे अधिक नुकसान पहुंचाने वाली बाढ़ माना जाता है।

भारत भी हर वर्ष बाढ़ की मार झेलने को मजबूर है। आधा भारत इस बार भी बाढ़ की चपेट में है। गुजरात, असम, ओडिशा, उत्तर प्रदेश, बिहार, हिमाचल, उत्तराखंड, राजस्थान में भारी वर्षा से बाढ़ की स्थिति गंभीर है। भूस्खलन की घटनाएं बढ़ रही हैं। जनजीवन पूरी तरह अस्तव्यस्त है, लोग त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रहे हैं। सेना, अद्र्घ सैन्य बल, वायुसेना और एनडीआरएफ की टीमें हजारों लोगों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाने में लगी हुई हैं। मृतकों की संख्या रोजाना बढ़ रही है। हर वर्ष लोगों की अरबों रुपये की सम्पत्ति घर, दुकान और व्यापार तबाह हो रहे हैं। राज्य सरकारों को उन्हें फिर से आत्मनिर्भर बनाने के लिये सहायता देनी पड़ती है, लेकिन जिनका सब कुछ बह जाता है, उनके लिये जीवन बहुत दुश्वार हो जाता है। लोग आपदा राहत शिविरों में जिंदगी जीने को मजबूर होते हैं। हर साल अरबों रुपये की क्षति होती है लेकिन हम बाढ़ बचाव के उपाय नहीं कर पाये।

नदियां उफान पर बहती हैं तो सब कुछ बहा कर ले जाती हैं। बाढ़ का आना प्रकृति की स्वाभाविक गति है। विडम्बना यह भी है कि बाढ़ स्वाभाविक हो तो प्रकृति का तांडव हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा लेकिन कहीं-कहीं बाढ़ विकास की विसंगतियों के कारण भी आती है। कई शहरों में बाढ़ का असर भयावह इसलिये भी हुआ क्योंकि बेतरतीब विकास से पानी की निकासी के स्रोत बचे ही नहीं। नदियों के कैचमैट एरिया में रिहायशी कालोनियां बनाई जा चुकी हैं। दिल्ली का उदाहरण ही देख लीजिये, यमुना नदी का कैचमैट एरिया अब बचा ही कहां। पहले नदियों के किनारे से दूर-दूर तक खाली मैदान होते थे जो बाढ़ का पानी सोख लेते थे और भूमिगत जल स्तर अधिक रहता था लेकिन अब मकान ही मकान नजर आते हैं। खेत अब नजर ही नहीं आते, वह कंक्रीट-सीमेंट से भर चुके हैं। ऐसे में भूमिगत जल स्तर काफी नीचे चला गया है। चेन्नई, मुम्बई और कोलकाता की बाढ़ इस बात का सबूत है कि हर बड़ा शहर अवैध निर्माण का शिकार हो चुका है, न बुनियादी सुविधायें, न जल निकासी की कोई व्यवस्था।

दूसरी बात यह है कि भारत के जल अभियंताओं ने नदियों के चरित्र को समझा ही नहीं। हिमालयी नदियां पहाड़ों से निकलती हैं। नदियां पहाड़ों की ढीली मिट्टी की भारी मात्रा काट कर अपने साथ लाती हैं, जिसे गाद कहा जाता है और यह गाद को जमा कर देती हैं। गाद जमा होने से नदी का पाट ऊंचा हो जाता है। हिमालयी नदियों में 4 माह पानी ज्यादा रहता है जो गाद नदी ने अपने पाट में जमा की होती है, उसे वह बाढ़ के समय धकेल कर समुद्र में पहुंचा देता है। नदी और गाद का संगीतमय सम्बन्ध रहता है। कहते हैं नदी नाद की लय में राष्ट्र की लय होती है वरना प्रलय आ जाती है। बाढ़ के समय नदी सम्पूर्ण गाद को समुद्र तक बहा कर नहीं ले जाती कुछ गाद रह जाती है जिससे अगल-बगल के मैदानों में गाद भरती है, इससे नदी का मूल स्तर ऊंचा हो जाता है। हरिद्वार से गंगा सागर तक हमारी भूमि इसी गाद से बनी है। पूर्व में पूरे क्षेत्र में समुद्र था। गाद के जमा होने से समुद्र पीछे हट गया।

अब नदियों पर छोटे-बड़े बांध बना दिये गये। बाढ़ का पानी इनके जलाशयों में थम गया। पहाड़ों से आ रही गाद भी इनमें जमा हो गई। जब बारिश नहीं होती तो नदी का वेग रहता ही नहीं। पुलों और खंबों ने पहले ही वेग कम कर दिया है। यही कारण है कि टिहरी और फरक्का बांधों ने बाढ़ के तांडव में बड़ी भूमिका निभाई है। कई शहरों में 20 वर्ष पहले बाढ़ का पानी पूरे क्षेत्र में एक पतली सी चादर की तरह बहता था, गांव में पानी नहीं आता था, किसानों द्वारा धान की विभिन्न प्रजातियां लगाई जाती थीं जो कि बाढ़ के साथ बढ़ती जाती थीं। खेत जलमग्न होते थे। भूमिगत पानी का स्तर चार-पांच फीट पर रहता था। कहीं भी छोटा सा गड्ढा बना कर डीजल पम्प से सिंचाई हो जाती थी। अब ऐसा इस समय कहां।

विकास के नाम पर जो विकास हुआ, वह सुनियोजित नहीं था। खोद-खोद कर पहाड़ खोखले बना दिये गये। पानी का महत्व सभी जानते हैं। सृष्टि की शुरूआत से लेकर अब तक इसकी महत्ता हर जगह परिलक्षित होती है। प्यास बुझाने के लिये कोई तरल इसका विकल्प नहीं। काश! हमारे यहां वर्षा के पानी का संचय करने की व्यवस्था होती तो देश के विकास का दृश्य ही कुछ और होता। जरूरत है नदियों की गहराई बढ़ाने की, उनके किनारे मजबूत बनाने की। झीलों और नहरों की। यदि हमने प्राकृतिक आपदा से निपटने की व्यवस्था नहीं की तो कोई सिटी स्मार्ट नहीं बन पायेगी। जल के बहाव का प्रबन्धन करने की जरूरत है। काश! ऐसा हो, यह सोचने का विषय है।

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