जीडीपी और आरबीआई
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा कुछ दिन पहले जारी किए गए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़ों ने न केवल सरकार की चिंता बढ़ा दी है बल्कि अर्थशास्त्री भी परेशान हो गए हैं।
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा कुछ दिन पहले जारी किए गए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़ों ने न केवल सरकार की चिंता बढ़ा दी है बल्कि अर्थशास्त्री भी परेशान हो गए हैं। यह अनुमान किसी को भी नहीं था कि वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर केवल 5.4 फीसदी रह जाएगी जो सात तिमाहियों में सबसे कम दर है। यह जुलाई से सितम्बर तक के आंकड़े हैं जबकि अप्रैल-जून तिमाही में जीडीपी वृद्धि दर 6.7 फीसदी रही थी। देश में गिरती खपत चिंता का विषय तो है। लंबी चली बारिश के कारण खुदाई रुकने से खनन और उत्खनन उद्योग की गतिविधियां ठप्प पड़ने और विनिर्माण की वृद्धि दर में गिरावट ने जीडीपी को निचले स्तर पर ला दिया है। मैन्युफैक्चरिंग का कुल सकल मूल्य वर्धित उत्पादन में 17 फीसदी हिस्सा है। आर्थिक विकास की गति का पहिया थमते ही सभी की नजरें रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया पर लग गई हैं।
आर्थिक जानकारों के मुताबिक दूसरी तिमाही में जीडीपी ग्रोथ सुस्त पड़ने के कई कारण हैं। इसमें बढ़ती महंगाई और ऊंचा इंटरेस्ट रेट अहम है। इसके साथ वेतन में भी उल्लेखनीय इजाफा नहीं हुआ जिससे खपत को बढ़ावा नहीं मिला। कई केंद्रीय मंत्रियों ने आरबीआई से ब्याज दरों में कटौती करने की अपील की है। इससे कर्ज लेना सस्ता होगा और आर्थिक गतिविधियों में तेजी आएगी। जुलाई- सितंबर तिमाही में कंपनियों के नतीजे भी बेहद निराशाजनक रहे। इससे शेयर बाजार में भी बड़ी गिरावट आई। इससे विदेशी निवेशक भी भारत से तेजी से पैसा निकाल रहे हैं। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण और वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री पीयूष गोयल आरबीआई से सीधे-सीधे ब्याज दरें घटाने की मांग कर चुके हैं। महंगाई को काबू करने के चक्कर में आरबीआई ब्याज दरें नहीं घटाता है तो इसका नाकारात्मक असर पड़ना तय है। ब्याज दरें घटाई जाएंगी तो उससे एमएसएमई इकाइयों को फायदा हो सकता है। इससे देश में व्यापारिक गतिविधियां और औद्योगिक उत्पादन को बढ़ावा मिल सकता है।
भारतीय रिजर्व बैंक ने अपने रुख को भले ही ‘न्यूट्रल’ कर लिया है लेकिन अब तक उसने रेपो रेट घटाने का कोई संकेत नहीं दिया है। यूरोपियन सेंट्रल बैंक और अमेरिकी सेंट्रल बैंक फेड ब्याज दरों में कटौती कर चुके हैं लेकिन आरबीआई इन दोनों के नक्शे कदम पर नहीं चला। आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास ने लगातार अलग-अलग प्लेटफॉर्म पर इस बात पर जोर दिया कि पॉलिसी रेट में बदलाव दूसरों को देखकर करना जरूरी नहीं है। साथ ही दास ये भी स्पष्ट कर चुके हैं कि उनके लिए महंगाई को ‘तय सीमा के भीतर लाना’ पहली प्राथमिकता है।यह भी स्पष्ट हो चुका है कि ब्याज दरें ऊंची रखकर भी आरबीआई बेलगाम होती महंगाई पर काबू नहीं पा सका है। अक्तूबर में खुदरा मुद्रास्फीति 14 महीने के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई जब उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति दर 6.21 फीसदी रही। यह दर आरबीआई की तय सीमा से ज्यादा है।
अब सवाल यह है कि आरबीआई सरकार, अर्थशास्त्री और आम जनता की आवाज सुनेगा। अनुमान से कम वृद्धि दर ने नीति प्रबंधकों के लिए जटिलता बढ़ा दी है और कई सवाल खड़े कर दिए हैं। आरबीआई की 6 सदस्यीय मौद्रिक नीति समिति की बैठक 4 से 6 दिसम्बर को होने वाली है लेकिन विशेषज्ञों का अनुमान है कि समिति प्रमुख ब्याज दर को नहीं बदलने वाली क्योंकि उसके पास विकल्प बहुत कम हैं। आरबीआई ने फरवरी 2023 से रेपो दर को 6.5 प्रतिशत पर बरकरार रखा है। आम बजट पेश करने से पहले यह जीडीपी के आखिरी आंकड़े हैं। अगले आंकड़े जनवरी 2025 में आएंगे।
अर्थव्यवस्था में आई सुस्ती 2030 तक भारत को तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने के लक्ष्य के सामने बड़ी चुनौती है। एक तरफ बेरोजगारी अहम मुद्दा है तो दूसरी तरफ देश के शहरी मध्यम वर्ग घटती क्रय शक्ति से जूझ रहा है। देखना होगा कि आरबीआई अपनी जिद पर कायम रहता है या कुछ कदम उठाता है। राजकोषीय बाधाओं को देखते हुए पूंजीगत खर्च में निरंतर इजाफा करना मुश्किल है। बिना सोचे-समझे की गई कोई भी प्रतिक्रिया हालात को कठिन बना सकते हैं। सुस्ती से निपटने के लिए सरकार को नीतिगत दरों में कमी के उपाय भी सोचने होंगे। पूंजीगत व्यय बढ़ाने के लिए राजस्व प्राप्तियों को भी ध्यान में रखना होगा।