सोना : सांस्कृतिक पहचान से निवेश की वस्तु
देश के हर शहर में 10 ग्राम सोना आज 1,10,000 रुपये के आसपास बिक रहा है, जो मध्य और निम्न मध्यवर्ग के लाखों परिवारों के लिए एक झटका है। पीढ़ी दर पीढ़ी पारिवारिक सुरक्षा से जुड़ा जो सोना कभी हमारी संस्कृति का हिस्सा था, वह आज चाजार के लिए एक वस्तु तथा कारोबार का औजार है। सोने में आने वाली तेजी अनेक लोगों को अमीर बनाती है, तो असंख्य लोगों के सपने तोड़ देती है।
इस अंकगणित पर विचार कीजिए: 2015 में एक लड़की का परिवार शादी में सोने की खरीद 25,000 से 30,000 प्रति 10 ग्राम पर कर सकता था, वहीं अब एक लड़की वाले को सोने की खरीद उससे चार गुना अधिक दाम पर करनी पड़ रही है, जिन मध्यवर्गीय परिवारों ने शादी या उत्सवों में सोने की खरीद की योजना बनायी थी, अब सोना खरीदना उनके बूते से बाहर है। आयोजनों में सोने के गहने देने के चलन से देने वालों के सामाजिक स्तर का पता चलता था और लेने वालों की आर्थिक सुरक्षा की गारंटी होती थी, अब उस सामाजिक चलन को बनाये रखना मुश्किल होता जा रहा है।
ठीक इसी समय शेयर बाजारों और ग्लोबल कस्टोडियन बैंकों के लॉकर में रखे गये सोने को सबसे कीमती वित्तीय संपत्ति आंका जा रहा है। फंड्स और सॉवेरन इंस्ट्रूमेंट्स का कारोबार करने वाले एक्सचेंज अब सोने के कंगन को तरलता में बदल रहे हैं। भारत में ही पिछले कुछ वर्षों में गोल्ड इटीएफ के तहत जमा धनराशि 60,000 से 65,000 करोड़ के बीच हो गयी है, जो 40-50 तोला सोने के बराबर है। इस बीच सॉवेरन गोल्ड बांड और डिजिटल पेपर गोल्ड प्लेटफॉम्सं के बढ़ते चलन से भी सोने में निवेश बढ़ा है। सोने का जो बाजार कभी कारीगरों, आभूषण विक्रेताओं और परिवारों तक सीमित था, वह आज निवेशकों और बड़े खिलाड़ियों तक पहुंच गया है। सोने में यह रूपांतरण अचानक नहीं हुआ है। यह घरेलू और वैश्विक ताकतों के दशकों के समायोजन का नतीजा है, जो आधुनिक पोर्टफोलियो में सोने की कीमत और उसकी भूमिका को नये सिरे से आकार दे रहे हैं। घरेलू स्तर पर सोने का भाव बढ़ने के बावजूद आभूषण निर्माताओं और उपभोक्ताओं के बीच इसकी मांग लगातार मजबूत बनी हुई है। देश में मोटे तौर पर सोने की सालाना मांग 700-800 टन के आसपास बरकरार है, जिनमें से 70-75 फीसदी मांग घरेलू उपभोग से जुड़ी है। सोने की कीमत में आयी तेजी का दूसरा कारण रुपया है। डॉलर के मुकाबले रुपये में आने वाली हर गिरावट से सोना महंगा होता है, क्योंकि सोने के कारोबार में डॉलर का वर्चस्व है। कुछ साल पहले तक एक डॉलर 60-70 रुपये के बराबर था, जो आज 87 रुपये के आसपास पहुंच चुका है। इससे भी सोने में तेजी आई है। अंतर्राष्ट्रीय मोर्चे पर भी दुनियाभर के केंद्रीय बैंक भारतीय रिजर्व बैंक की तरह सोने की खरीद बढ़ाते जा रहे हैं, जो देश कभी सोने को निशानी या स्मृतिचिह्न से ज्यादा महत्व नहीं देते थे, वे वैश्विक उथल-पुथल के इस दौर में केंद्रीय बैंकों में सोने का भंडार बढ़ा रहे हैं। सोने की आपूर्ति में भी कमी नहीं दिख रही। सोने की खदानों में उत्पादन हालांकि सामान्य स्थितियों में भी एक-दो प्रतिशत घट जाता है, क्योंकि नयी खदानों को खोज करने, खनन की अनुमति मिलने आदि में समय लगता है, लेकिन हाल के वर्षों में 5,000 टन सोने की वैश्विक मांग की आपूर्ति सहजता से होती रही है।
ऐसे में, यह दुविधा भरा सवाल सामने है: क्या सोना निवेश का नया साहसी स्वरूप और अनिश्चित आर्थिक विश्व में स्थिरता का पर्याय है, और सट्टेबाजी के नये औजार के रूप में इसने अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा खो दी है? यह निवेश का माध्यम भी है और सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने वाली वस्तु भी, निवेशकों और वित्तीय संस्थानों के लिए सोना सट्टेबाजी के विश्वसनीय माध्यम के तौर पर उभरा है। इक्विटी मार्केट के भीषण उथल-पुथल भरे दौर में या बढ़ती मुद्रास्फीति के समय सोने ने निवेशकों को शानदार रिटर्न दिया है।
पिछले एक दशक पर नजर दौड़ाएं: सोने की कीमत में हुई चौगुनी वृद्धि से निवेशकों के सालाना रिटर्न में दोहरे अंकों की वृद्धि हुई है, लेकिन महत्वाकांक्षी मध्य और निम्न मध्यवर्ग के लिए, जो कभी खास अवसरों पर इस पीली धातु पर निर्भर रहते थे, स्थिति बेहद निराशाजनक है। सोने का कीमती धातु से एक वस्तु में रूपांतरण और वित्तीय संस्थानों में संपत्ति के तौर पर आंके जाने के बाद से इसकी कीमत पर स्थानीय बाजारों की नजर नहीं रहती, बल्कि इसके उतार-चढ़ाव पर अब निवेशक गहरी नजर रखते हैं। इसका नतीजा यह है कि जो सोना कभी सिर्फ आभूषण निर्माण तक सीमित था, अब उसकी कीमत पूंजी के प्रवाह और हजारों मील दूर लिये गये बड़े वित्तीय फैसलों से तय होती है। पहले सोना सामाजिक-सांस्कृतिक भूमिका निभाता था, लेकिन बाजार के तर्क ने सोने की उस भूमिका को अप्रासंगिक कर दिया है।
क्या यह स्थिति गलत है? नहीं, बाजार सोने की पूंजीगत क्षमता बढ़ाता है, तो वित्तीय संस्थाओं की ओर से सोने की बढ़ती मांग के कारण इसकी ट्रांजेक्शन लागत में कमी आती है। निवेशकों के लिए इटीएफ गोल्ड और सॉवेरन बांड्स बेहतर विकल्प हैं। समस्या तब होती है, जब निवेश की बढ़ती मांग सोने की सांस्कृतिक भूमिका को कमतर कर देती है और सोने की खरीद की इच्छा रखने वाले निम्न मध्यवर्गीय लोगों के हित में सरकार या बाजार की तरफ से कोई व्यवस्था नहीं होती, ऐसे में, भारत कहां खड़ा है? सोने से सांस्कृतिक जुड़ाव के कारण भारत आज भी इसका पहला या दूसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता है, लेकिन भारत भी तेजी से सोने के निवेश वैल्यू की ओर मुड़ रहा है, जब वित्तीय संपत्ति और सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में सोना लगातार ऊंचाइयां चढ़ता जा रहा है, तब नीति निर्माताओं, बाजारों और समुदायों को एक साथ यह तय करना चाहिए कि बाजार चालित औजार के रूप में सोने का रूपांतरण उन परिवारों को सोने से वंचित न करे, जिनके लिए सोना अब भी सुरक्षा का प्रतीक है।
किफायती वित्तीय उपकरणों तक पहुंच बढ़ाकर, पारदर्शी निवेश विकल्पों को प्रोन्नत कर और देश को सांस्कृतिक परंपराओं को सुरक्षित कर भारत अपनी विरासत को बचाने के साथ-साथ विश्व बाजार में अपनी जगह भी बनाये रख सकता है। उम्मीद है कि आने वाले दशकों में सोना सामाजिक सुरक्षा बनाये रखने के साथ निवेश पोर्टफोलियो को आगे बढ़ायेगा, परिवारों को सुरक्षा देने के साथ आर्थिक वृद्धि को भी गति देगा। (ये लेखक के निजी विचार हैं।)