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राज्यपाल बनाम मुख्यमन्त्री!

जब भारत के संविधान में यह व्यवस्था की गई कि राज्यपालों की भूमिका के बारे में संसद में भी कोई चर्चा नहीं की जा सकती तो स्पष्ट था कि उनकी हैसियत केवल संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति के ऐसे प्रतिनिधि के रूप में तय कर दी गई है जो हर सूरत में किसी राज्य में संविधान का शासन चलते हुए ही देखें।

12:16 AM Oct 15, 2020 IST | Aditya Chopra

जब भारत के संविधान में यह व्यवस्था की गई कि राज्यपालों की भूमिका के बारे में संसद में भी कोई चर्चा नहीं की जा सकती तो स्पष्ट था कि उनकी हैसियत केवल संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति के ऐसे प्रतिनिधि के रूप में तय कर दी गई है जो हर सूरत में किसी राज्य में संविधान का शासन चलते हुए ही देखें।

जब भारत के संविधान में यह व्यवस्था की गई कि राज्यपालों की भूमिका के बारे में संसद में भी कोई चर्चा नहीं की जा सकती तो स्पष्ट था कि उनकी हैसियत केवल संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति के ऐसे प्रतिनिधि के रूप में तय कर दी गई है जो हर सूरत में किसी राज्य में संविधान का शासन चलते हुए ही देखें।
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स्वतन्त्रता के बाद ऐसे कई मौके आये हैं जब किसी राज्यपाल के आचरण  और व्यवहार को लेकर विवाद खड़ा हुआ है, परन्तु यह पहला मौका है जब किसी राज्यपाल और मुख्यमन्त्री के बीच पत्राचार को लेकर विवाद उठा है।
इसी वजह से वर्तमान में देश की राजनीति में सक्रिय सबसे अधिक वरिष्ठ राजनीतिज्ञ श्री शरद पवार ने प्रधानमन्त्री को खत लिख कर चिन्ता जताई है सवाल महाराष्ट्र में धार्मिक स्थलों को पुनः खोलने का है जिस पर यह सारा विवाद शुरू हुआ है। निश्चित रूप से महाराष्ट्र में लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार सत्ता पर काबिज है और यह उसका विशेषाधिकार है कि वह राज्य के लोगों के हितों को ध्यान में रखते हुए इस बाबत उचित निर्णय ले।
यह अधिकार कोरोना महामारी के चलते उसे स्वयं केन्द्र सरकार ने ही दिया है कि वह स्थानीय परिस्थितियों को देखते हुए इस महामारी के प्रकोप से बचने के लिए यथोचित कदम उठाये। श्री पवार की सबसे बड़ी खूबी यह मानी जाती है कि वह एक राजनीतिक दल ‘राष्ट्रवादी कांग्रेस’ के सर्वेसर्वा होने के बावजूद राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर निरपेक्ष राय देते हैं जिसके कायल स्वयं प्रधानमन्त्री तक रहे हैं।
संयोग यह है कि श्री कोश्यारी स्वयं उत्तराखंड राज्य के मुख्यमन्त्री रह चुके हैं और वह भलीभांति जानते हैं कि एक मुख्यमन्त्री और राज्यपाल के बीच शिष्टाचार के क्या नियम होते हैं।
सवाल यहां किसी राजनीतिक दल का नहीं है बल्कि संवैधानिक मर्यादाओं का है जिनकी तरफ श्री पवार ने प्रधानमन्त्री का ध्यान खींचा है। यह भी स्वयं में आश्चर्यजनक है कि महाराष्ट्र में पूजा स्थलों की तुलना शराबखानों  और रेस्टोरैंट से  की जा रही है।
व्यावहारिक जीवन में धर्म का आर्थिक गतिविधियों से कोई लेना-देना नहीं है। यह उसी प्रकार है जिस प्रकार जमीन पर मेहनत करने वाले किसान का धर्म कोई भी हो सकता है परन्तु जमीन में लगाई गई फसल पर उसके धर्म का कोई असर नहीं होता। हमें यह फर्क समझना पड़ेगा कि धार्मिक स्थान निजी आस्थाओं से चलते हैं जबकि आर्थिक गतिविधियां पेट की उस भूख से चलती हैं जो सभी धर्मों के मानने वाले लोगों में एक समान रूप से पैदा होती है।
अपना पेट भरने के लिए किसी इंसान को स्वयं ही मेहनत करनी पड़ती है और इस कार्य में समाज में उसे सुरक्षा देना किसी भी काबिज सरकार का पहला कर्त्तव्य होता है। स्वास्थ्य को संविधान की राज्य सूचि में डालने का मन्तव्य यही था कि राज्य सरकारें अपने राज्य की जरूरतों के अनुसार चिकित्सा तन्त्र की स्थापना कर सकें जिससे उस राज्य के लोग स्वस्थ रह सकें।
हालांकि 15वें वित्त आयोग के स्वास्थ्य पर गठित विशेष दल ने इसे समवर्ती सूची में शामिल करने की सिफारिश इस आधार पर की है जब परिवार नियोजन और चिकित्सा शिक्षा जैसे विषय समवर्ती सूची में हैं तो  स्वास्थ्य को भी इस सूची में डाला जाये, परन्तु इससे भारत की भौगोलिक विविधता के प्रभाव से उपजी स्वास्थ्य समस्याओं के हल करने में दिक्कत पैदा हो सकती है।
अतः महाराष्ट्र सरकार को यह उल्हाना देना कि वह शराबखानों को खोलने में फराखदिली दिखा रही है और धार्मिक स्थलों के दरवाजे न खोल कर कंजूसी दिखा रही है पूरी तरह तर्कहीन है क्योंकि कोरोना काल के दौरान जिस राज्य ने भी ऐसा काम किया वहां कोरोना संक्रमण बहुत तेजी से फैला।
इसकी वजह यह है कि धार्मिक स्थलों पर लोगों की भावनाओं और आस्थाओं को नियमित करना बहुत मुश्किल काम होता है और प्रशासन द्वारा सख्ती बरतने पर उस पर धार्मिक भावनाओं से छेड़छाड़ करने का आरोप बहुत आसानी के साथ मढ दिया जाता है। यह 21 वीं सदी चल रही है और वैज्ञानिक व टेक्नोलोजी उन्नयन ने आम आदमी के जीवन को इतना सुविधापूर्ण बना दिया है कि वह अपने आराध्य देव की पूजा-अर्चना अपना मोबाइल खोल कर ही ध्यान मग्न होकर कर सकता है।
कोरोना काल के चलते आम आदमी ने ही यह रास्ता अपना कर अपनी धार्मिक भावनाओं को तृप्त किया है। अतः व्यर्थ का जोखिम जन स्वास्थ्य के साथ लेना किसी भी प्रकार बुद्धिमानी नहीं हो सकती। विगत अगस्त महीने में केरल में ओणम त्यौहार के समय कोरोना नियमों को मानने पर  यहां के निवासियों में इस बीमारी के मामले 64 प्रतिशत तक बढ़ गये जबकि स्वयं महाराष्ट्र में ही इसी महीने गणेश पूजा के दौरान संक्रमण के मामलों में 46 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
केरल राज्य का नाम कोरोना नियन्त्रण के क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्वयं इसकी तारीफ की मगर ओणम में नियमों के न मानने पर सब कुछ बराबर हो गया। दूसरी तरफ महाराष्ट्र देश में कोरोना मामले में पहले नम्बर पर 16 लाख के बराबर है जबकि इससे मरने वालों की संख्या भी सबसे ज्यादा है।
अतः इन परिस्थितियों में राज्य सरकार किसी नये जोखिम को उठाने की हिम्मत नहीं कर सकती,  लेकिन इस दायित्व को निभाने में अपनी भूमिका को नियत करना राज्य सरकार का काम है।
जन समर्थन और जन भावनाओं को देखने का काम चुनी हुई सरकार का होता है और इस क्रम में वह जो भी फैसला करती है उसके परिणाम भी उसे ही भुगतने होते हैं। इसमें राज्यपाल की भूमिका इतनी ही होती है कि वह संविधान का पालन हर स्तर पर होते हुए देखें।
-आदित्य नारायण चोपड़ा
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