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कराहती जनता, निरंकुश शासन

श्रीलंका में गोटाबाया राजपक्षे परिवार का शासन विफल हो चुका हैै। जब भी कहीं भी परिवारवाद के शासन पर खतरा मंडराता है तो सत्ता निरंकुश हो जाती है और जनाक्रोश को दबाने के लिए विरोध-प्रदर्शनों को सख्ती से कुचला जाता है और मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन किया जाता है।

12:59 AM May 09, 2022 IST | Aditya Chopra

श्रीलंका में गोटाबाया राजपक्षे परिवार का शासन विफल हो चुका हैै। जब भी कहीं भी परिवारवाद के शासन पर खतरा मंडराता है तो सत्ता निरंकुश हो जाती है और जनाक्रोश को दबाने के लिए विरोध-प्रदर्शनों को सख्ती से कुचला जाता है और मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन किया जाता है।

कराहती जनता  निरंकुश शासन
श्रीलंका में गोटाबाया राजपक्षे परिवार का शासन विफल हो चुका हैै। जब भी कहीं भी परिवारवाद के शासन पर खतरा मंडराता है तो सत्ता निरंकुश हो जाती है और जनाक्रोश को दबाने के लिए विरोध-प्रदर्शनों को सख्ती से कुचला जाता है और मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन किया जाता है। ऐसा ही कुछ श्रीलंका में भी हो रहा है। श्रीलंका की जनता राजपक्षे और उनके परिवार के सत्तारूढ़ सदस्यों के इस्तीफे की मांग कर रही है लेकिन राजपक्षे ने आपातकाल की घोषणा कर विरोधियों को कुचलना शुरू कर दिया है।
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आपातकाल के प्रावधानों के तहत राजपक्षे किसी भी परिसर, सम्पत्ति की तलाशी और ज​ब्ती करने, किसी भी व्यक्ति को हिरासत में लेने के लिए अधिकृत कर सकते हैं। इससे श्रीलंका में अमेरिका, कनाडा और अन्य देशों के राजदूताें ने चिंता व्यक्त की है। इन सभी ने कहा है कि शांतिपूर्ण नागरिकों की आवाज को सुने जाने की जरूरत है। श्रीलंकाई जो वास्तविक चुनौती का सामना कर रहे हैं उसके लिए दीर्घकालीन समाधान की जरूरत है। श्रीलंका के लोगों को लोकतंत्र के तहत शांतिपूर्ण प्रदर्शन का अधिकार है, यह समझना मुश्किल है कि लोगों पर पाबंदियां क्यों लगाई जा रही हैं। श्रीलंका के लोगों का कहना है कि आपातकाल के बावजूद अपना प्रदर्शन जारी रखेंगे। श्रीलंका की मुख्य तमिल पार्टी टीएनए केे प्रमुख नेता एवं सांसद ने मांग की है कि भारत, अमेरिका और मित्र देशों को श्रीलंका में लम्बे समय से जारी राजनीतिक संकट को समाप्त करने के लिए और देश को एक स्वीकार्य सरकार के गठन को मदद के लिए राजपक्षे परिवार को सत्ता छोड़ने के लिए दबाव बनाना चाहिए। बढ़ते दबाव के बावजूद राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे और उनके बड़े भाई एवं प्रधानमंत्री महिन्द्रा राजपक्षे ने पद छोड़ने से इंकार कर ​दिया है।
वर्ष 1948 में ब्रिटेन से आजादी ​मिलने के बाद से श्रीलंका गम्भीर आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है। यह संकट विदेशी मुद्रा भंडार खत्म होने के कारण है, उसके पास मुख्य खाद्य पदार्थों और ईंधन के आपात के लिए भुगतान करने के​ लिए धन नहीं है। महंगाई आसमान छू रही है। बीमारी जैसे हालात हैं, चीनी 290 रुपए और चावल 500 रुपए किलो ​बिक रहा है। पैट्रोल-डीजल में आग लगी हुई है।
-श्रीलंका की जनता रोटी मांग रही है
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-लोग पैट्रोल मांग रहे हैं
-लोग बिजली मांग रहे हैं
-जनता राजपक्षे परिवार से मुक्ति चाहती है।
लेकिन राजपक्षे परिवार जनता की आवाज को कुचलना चाहता है। वर्तमान में स्वतंत्रता के बाद सबसे खराब आर्थिक संकट और राजनीतिक अस्थिरता का सामना कर रहा है, जिसकी वजह साफ है। श्रीलंका के शासकों ने ऋण लेकर घी पीने का काम किया और देश को आत्मनिर्भर बनाने का कोई प्रयास ही नहीं किया। नासमझी की नीतियों ने यह संकट खड़ा ​किया है।
श्रीलंका की सरकार ने अचानक पूरी तरह से जैविक खेती की ओर आगे बढ़ने का फैसला ​किया और रासायनिक खादों पर प्रतिबंध लगा ​िदया। इससे कृषि उत्पादन प्रभावित हुआ। जैविक खेती में कोई बुरा नहीं लेकिन इसे अचानक लागू करना मूर्खतापूर्ण कदम था। इससे चाय तक का उत्पादन प्रभावित हुआ और निर्यात भी घट गया। सरकार की लोक लुभावन नीतियों के चलते प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों में कटौती की गई। सरकार का खर्च बढ़ता गया, राजस्व घटता गया। इसके ​लिए सरकार ने ज्यादा नोट छापे, जिस कारण मुद्रा का प्रसार बढ़ा और महंगाई भी बढ़ने लगी। श्रीलंका अपनी जरूरत के मुताबिक काफी सामान आयात करता रहा और जब आयात पर रोक लगाई गई तो खाने-पीने की वस्तुओं और ईंधन की कमी हो गई। श्रीलंका पहले ही चीन के कर्ज जाल में फंसा हुआ था। उसने बुनियादी ढांचा वि​कास के नाम पर भारी कर्ज उठाया। इस कर्ज ने उसकी बदहाली की रही सही कसर भी पूरी कर दी। कुछ वर्ष पहले श्रीलंका के कर्ज नहीं चुकाने पर उसे अपना बंदरगाह हंबनटोटा चीन को सौंपना पड़ा था।
भारत लगातार श्रीलंका की सहायता कर रहा है क्योंकि मानवता की मदद करना मोदी सरकार की प्राथमिकता रही है। भारत न उसे एक अरब डालर का उधार और 50 करोड़ डालर की सहायता के साथ-साथ खाद्य सामग्री  और दवाइयां भी दे रहा है लेकिन श्रीलंका काे सहायता देना ही पर्याप्त नहीं हुआ। सवाल यह है कि श्रीलंका संकट से निपटने के लिए किस तरह का प्रबंधन करता है। आपातकाल लगाकर लोगों की आवाज कुचलने का कोई फायदा राजपक्षे परिवार को नहीं होगा। श्रीलंकाई तमिल अपना देश छोड़कर तमिलनाडु पहुंच रहे हैं। श्रीलंका के संकट में मजहब की एंट्री भी हो चुकी है। पूर्व श्रीलंकाई क्रिकेटर अर्जुन राणातुंगा ने गृह​युद्ध की आशंका जताई थी। श्रीलंका की सरकार हिंसक आंदोलन के लिए तमिलों और मुस्लिमों को दोषी मान रही है। आक्रोश बहुत ज्यादा है इसलिए भविष्य में गृहयुद्ध की आशंका प्रबल है। देखना होगा कि श्रीलंका ​किस दिशा में बढ़ता है। श्रीलंका के राजनीतिक नेतृत्व को यह भी समझ आ जानी चाहिए कि सबसे नजदीकी पड़ोसी देश भारत के ​हितों को नजरंदाज करना उसके ​अपने हित में नहीं है। श्रीलंका की राजनीतिक अस्थिरता भारत के लिए भी चुनौती है। बेहतर यही होगा कि राजपक्षे निष्ठुर और निरंकुश न होकर जनता की समस्याओं को खत्म करे वर्ना जनता उन्हें एक न एक ​दिन ​उखाड़े फैंकेगी।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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