पुस्तकों से बढ़ती दूरियां
मानवीय जीवन में और देश के विकास में जो लंबी यात्रा चल रही है उसमें सबसे बड़ा योगदान पुस्तकों का है। हमें कुछ भी सीखाने का काम पुस्तकें करती रही हैं। धर्म-कर्म, संगीत, साहित्य, विज्ञान या किसी भी अन्य विषय पर जो सदियों से लिखा जा रहा है यह सब कुछ पुस्तकें ही सिखलाती हैं। हमारी गौरवपूर्ण परंपरा का एक बड़ा हिस्सा किताबें ही रही हैं। आज मैं व्यक्तिगत तौर पर इस बात से बड़ी आहत हूं कि किताबें सामाजिक जीवन से लुप्त हो रही हैं। मुझे अपने स्कूल-कॉलेज के दिन याद आते हैं जब हम परिक्षाओं के दिनों में अपनी छतों पर घूम-घूम कर किताबें हाथ में लेकर पढ़ते थे क्योंकि कमरों में बाकी कामकाज चलते थे तो खुली हवा में पढ़ने से मन की एकाग्रता बढ़ती रहती थी लेकिन आज के जमाने में जब हर बच्चे से लेकर बूढ़े तक सबकी पहुंच इंटरनेट और स्मार्ट फोन तक पहुंच चुकी है तो इस डीजिटल और टैक्नोलॉजी की क्रांति ने किताबों को उड़ा कर रख दिया है। दिल्ली क्या और कोई अन्य शहर क्या, लाइब्रेरी सिमट कर रह गयी हैं। किताबों से दूरी क्यों बढ़ी है? यह सोचने और समझने का समय आ गया है।
याद कीजिए कोरोना महामारी का वह वक्त जब लोग घरों में कैद थे। कोई किसी से मिलजुल नहीं सकता था, तब स्मार्ट फोन ने ही यह दूरियां खत्म की और देखते ही देखते कब यह स्मार्ट फोन हमारी जरूरत बन गये और हमारी आदत बन गये पता ही नहीं चल सका। कभी अपनी कक्षा की पुस्तकें या साहित्य की पुस्तकों का कोई भी लंबा प्रश्न या अध्याय याद करने में दो-चार-पांच दिन लग जाते थे तो हमारा अभ्यास और तेज हो जाता था। पुस्तकें हमें स्टडी के अभ्यास से जोड़ती थी लेकिन जमाना डिजिटल क्या हुआ कि देखते ही देखते हमारा धैर्य दम तोड़ने लगा। लोग फिल्मों की तरफ जुड़ने लगे। एक फिल्म ढाई से तीन घंटे की होती थी, देखते ही देखते फिल्में डेढ़-दो घंटों की होने लगी और हमारा यूथ जीवन से दूर होकर यूट्यूब पर उतर आया। हालत ये है कि अब यूट्यूब भी दूर हो गयी। दिन का बड़ा हिस्सा यूथ अब रिल्स पर बिता रहे हैं। एक मिनट में मनोरंजन की यह िडजिटल बीमारी मीम तक पहुंच गयी। अब तो कुछ सैकेंड हंस लो, बच्चे से लेकर बूढ़े तक यही सब कुछ रह गया है और किताबें सिमट कर रह गयी हैं। वीडियो देखना, चैटिंग करने में लोग वक्त बर्बाद कर रहे हैं। यह पुस्तकें ही हैं जिसका पढ़ा-लिखा ज्ञान आपको मान-सम्मान दिलाता है। आपका कैरियर बनाता है। ना चाहते हुए भी लोगों की जिंदगी में सब कुछ डिजिटल हो चुका है। मेरा यह मानना है कि टैक्नोलॉजी को अपने जीवन में भले ही उतारें लेकिन पुस्तकें कभी भी मत भुलाइये। पुस्तकें जीवन की वह सफलता दिलाती हैं जो लंबी पारी कहलाती है। इन पुस्तकों से मिले ज्ञान और फिर कम्पटीशन में जब आप सबको पछाड़ते हैं तब इस ज्ञान के महत्व का पता चलता है।
मेरा अपना मानना है कि माता-पिता बच्चों को पुस्तकों से जोड़े रखने का काम, स्कूली किताबें पढ़ना और परीक्षा के लिए बच्चों को अध्यनशील बनाना यह अलग बात है लेकिन इसमें भी बहुत कुछ ऑनलाइन चल रहा है। मैं टैक्नोलॉजी को बुरा नहीं कहती लेकिन पुस्तकों के महत्व को खत्म नहीं करना चाहिए। पुस्तकें हमारा आचार-व्यवहार और सफलता की कुंजी हैं। पुस्तकों से हमें मानवीयता और संवेदनशीलता प्राप्त होती है। तुलसी, कबीर, रहीम, मैथलीशरण गुप्त, दयाशंकर प्रसाद, रविन्द्रनाथ टैगाेर जैसों की रचनाएं हमारे जीवन को संवारती हैं। साहित्य की किताबें तो सचमुच खत्म होकर रह गयी हैं। कई डिबेट्स में पुस्तकों से लोगों की बढ़ती दूरियों के बारे में जब सुनती और महसूस करती हूं तो दु:ख होता है। जरा ये पंक्तियां पढि़ए-
पुस्तकों से मिलता है ज्ञान
फिर बढ़ता है आपका सम्मान
पुस्तकों में लिखा जो हमने बचपन में पढ़ा था चाहे वह टेबल्स या पहाड़े थे, या अन्य फार्मूले थे, हमें आज भी अगर कंठस्थ हैं तो यह किताबों की देन थी। यूट्यूब या रिल्स अथवा मीम के माध्यम से कुछ सैकेंड हंस लेने से बेहतर है कि कुछ साहित्य की पुस्तकें पढ़ी जाएं। इनसे आपका मनोबल बढ़ेगा अगर इस दिशा में पाठक खुद सोच लें कि हम कोई भी सामाजिक या धार्मिक या साहित्य से जुड़ी पुस्तक महीने में दो बार भी पढ़ेंगे तो मानसिक विकास भी होगा। मेरा यकीन मानिए मैं आज भी सामाजिक और धार्मिक पुस्तकें हफ्ते में दो बार पढ़ती हूं और फिर इनके बारे में डिसकस भी करती हूं। धैर्य और ज्ञान इन पुस्तकों की देन है। आइए इन्हें पढ़ें और हल्के-फुल्के ढंग से इन्हीं के आधार पर मनोरंजन भी करें और ज्ञान में वृद्धि करें।