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क्या हमने कुछ खो दिया है? बदलते समाज का आत्ममंथन

07:00 PM Jul 09, 2025 IST | Amit Kumar
बदलते समाज का आत्ममंथन

WRITTEN BY :  AKANSHA GUPTA

हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जहां समाज की परिभाषाएं  रोज़ बदल रही हैं. रिश्तों का अर्थ, जिम्मेदारियों की सीमाएं, और पुरुष-महिला की भूमिकाएं अब वैसी नहीं रहीं जैसी एक समय में थीं. इन बदलावों के बीच एक गूंजती हुई आवाज़ लगातार सुनाई देती है, असंतोष. खासकर महिलाओं के भीतर एक बेचैनी, एक असमर्थता का बोध, और एक सवाल “हमें अब भी क्यों नहीं समझा गया?” लेकिन यह सवाल सिर्फ महिलाओं से जुड़ा नहीं है, यह सवाल पूरे समाज से है और सबसे ज़्यादा यह सवाल पुरुषों से है. “क्या हमने कुछ ऐसा किया है, जो आज हम इस नई परिभाषा के सामने खड़े होकर खुद को सवालों के घेरे में पा रहे हैं?”

शब्द बदल गए, लेकिन संवाद छूट गया

हमने वर्षों से महिलाओं के अधिकार, स्वतंत्रता, और आत्मनिर्भरता की बात की. यह बदलाव ज़रूरी था और अब भी है, लेकिन इस परिवर्तन की गति में शायद हम संवाद करना भूल गए.हमने महिलाओं से यह तो कहा कि वह अब सब कर सकती हैं, लेकिन यह नहीं समझा कि उनकी चुप्पियों में कितनी आवाजें दबी थींऔर पुरुषों से यह तो उम्मीद की कि वे बदलते वक्त के साथ ढलें, लेकिन यह नहीं पूछा कि क्या वे तैयार हैं, क्या उन्होंने कभी सुना था कि “अब तुम बस निर्णयकर्ता नहीं, भागीदार भी हो”.

जब भी समाज में लैंगिक असमानता की बात होती है, तो आमतौर पर महिलाओं की पीड़ा, उनके अधिकार, और उनके संघर्षों को केंद्र में रखा जाता है. यह बिल्कुल उचित भी है. क्योंकि सदियों तक महिलाओं को दबाया गया, उन्हें अधिकारों से वंचित रखा गया, और उनकी आवाज़ को अनसुना किया गया, लेकिन आज जब हम महिला सशक्तिकरणकी ओर तीव्र गति से बढ़ रहे हैं, एक सवाल भी उभरता है. क्या पुरुषों की पीड़ा अब तक अनकही और अनसुनी रह गई है? क्या पुरुष समाज की समस्याओं को सुनने और समझने का समय भी अब आ गया है?

महिला बनाम पुरुष नहीं, बल्कि इंसान बनाम अनदेखी

जब कोई महिला अपने अधिकार की मांग करती है, तो समाज से जवाब आता है. मंच बनते हैं, योजनाएं बनती हैं, और संवाद शुरू होता है, लेकिन जब कोई पुरुष चुपचाप काम के बोझ, पारिवारिक जिम्मेदारियों, मानसिक दबाव, या भावनात्मक अकेलेपन से टूटता है यह पुरुषों के लिए एक मौन पीड़ाबन गया है और आज यही मौन धीरे-धीरे एक विस्फोट में बदलता जा रहा है. एक ऐसा विस्फोट जिसे हम अब और नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते.

महिलाओं की असंतुष्टि: बगावत नहीं, भीतर की थकान है

जो आज असंतोष के रूप में दिख रहा है, वह कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया नहीं है. यह वर्षों से संचित एक थकान है, जहां महिलाएं लगातार खुद को साबित करती आईं, लेकिन हर बार उन्हें फिर से वही शून्य से शुरुआत करनी पड़ी. उनकी मेहनत को सराहा गया, लेकिन बराबरी नहीं मिली.उनके त्याग को सराहा गया, लेकिन निर्णय का हक नहीं मिला. और जब आज वे अपने लिए खड़ी होती हैं, तो यह किसी के विरुद्ध खड़े होने की कोशिश नहीं है, बल्कि खुद को पहली बार अपना कहने की प्रक्रिया है.

क्या पुरुष चुप थे, या चुप कर दिए गए?

वहीं पुरुष भी आज इस स्थिति में हैं जहाँ उन्हें समझ नहीं आ रहा कि वो सही कर रहे हैं या गलत. न वह अब ‘पुराने विचारों’ के प्रतिनिधि रहना चाहते हैं, और न ही उन्हें नई सोच में अपना स्थान दिखता है. वे जिम्मेदार हैं, लेकिन आज उन जिम्मेदारियों के तरीके बदल गए हैं. वे संवेदनशील हैं, लेकिन उनकी संवेदनाएं हमेशा कठोरता के लिबास में ढकी रहीं. क्या कभी किसी ने पुरुष से भी पूछा कि क्या वह बदलते समाज से खुद को जोड़ पा रहा है? या फिर उन्हें बस यह कह दिया गया कि "तुम तो मर्द हो, तुम्हें क्या शिकायत?"

पुरुषों की समस्याएं: जिन पर शायद ही बात होती है

भावनात्मक दमन:

लड़कों को बचपन से सिखाया जाता है कि "मर्द रोते नहीं", "मजबूत बनो", "कमज़ोरी मत दिखाओ". इसका नतीजा यह होता है कि पुरुष अपने दर्द, थकान, या भावनात्मक टूटन को कभी साझा ही नहीं कर पाते.

सिर्फ कमाई का माध्यम:

कई पुरुषों के लिए उनकी पहचान सिर्फ उनकी आय और नौकरी से जुड़ी होती है. यदि वह बेरोज़गार हो जाएं या कम कमाएं, तो समाज उन्हें असफल मानता है, चाहे वे घर के लिए कितनी भी मेहनत क्यों न करें.

पिता, पति, बेटे की भूमिका में दबी पहचान:

एक पुरुष को अच्छा पति, जिम्मेदार बेटा, आदर्श पिता बनने की अपेक्षा होती है लेकिन उसकी खुद की इच्छाएं, शौक, डर, असुरक्षा सब पीछे छूट जाती हैं.

क़ानूनी असंतुलन और झूठे आरोप:

यौन शोषण, घरेलू हिंसा, या दहेज जैसे गंभीर मुद्दों में पुरुषों को भी गलत आरोपों का शिकार होना पड़ता है. लेकिन पुरुषों की आवाज़ शायद ही किसी मंच पर सुनाई देती है.

क्या पुरुषों को ‘सुनना’ महिलाओं के खिलाफ है?

इस सवाल का जवाब नहींहै,पुरुषों की पीड़ा को पहचानना, महिलाओं की पीड़ा को कमतर करना नहीं है, बल्कि यह समाज को और अधिक मानवीय, संतुलित और समावेशी बनाने की दिशा में एक जरूरी कदम है.जिस तरह एक महिला सिर्फ "गृहिणी"नहीं होती, उसी तरह एक पुरुष सिर्फ "कमाऊ सदस्य"नहीं होता. जिस तरह एक महिला को सुनना जरूरी है, उसी तरह एक पुरुष की भी सुनवाई जरूरी है.

क्यों अब बारी पुरुष की भी है?

यह कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है कि किसकी पीड़ा अधिक है, मुद्दा यह है कि जब हम समानताकी बात करते हैं, तो उसमें सभी की बात होनी चाहिए. महिला सशक्त हो रही है, यह गर्व की बात है, लेकिन पुरुष अगर भीतर से टूट रहा है, तो यह चेतावनी है.अब समय आ गया है कि हम सिर्फ महिलाओं के लिए योजनाएं न बनाएं, बल्कि पुरुषों के मानसिक स्वास्थ्य, भावनात्मक आवश्यकताओं और सामाजिक भूमिकापर भी ध्यान दें.

समाज के आईने में दोनों धुंधले हैं

क्या गलती हुई हमसे?

अब क्या किया जाए?

परिवर्तन का रास्ता मिलकर ही तय होगा

 

क्योंकि अगर पुरुष टूटता है, तो पूरा समाज डगमगाता है.आज अगर महिला जागरूक हो रही है, तो पुरुष भी सवाल पूछना सीख रहा है.आज अगर महिला चुप्पी तोड़ रही है, तो पुरुष भी अपने आंसुओं को शब्द देना चाहता है. हम जिस समाज की कल्पना करते हैं, उसमें केवल महिलाओं को उठाना ही उद्देश्य नहीं होना चाहिए, बल्कि पुरुषों को भी उस बोझ से मुक्त करना होगा जो सदियों से उन्हें “मर्द” कहलाने की कीमत पर ढोना पड़ा है, क्योंकि जब दोनों पक्ष सुने जाएंगे, तभी एक संपूर्ण समाज खड़ा होगा. और तभी हम कह सकेंगे, हां, हमने सीखा, सुधरे और साथ चलेऔर यही वह क्षण है जहाँ से एक समावेशी समाज की शुरुआत होती है जहां ना कोई ऊंचा  है, ना नीचा, सिर्फ एक इंसान है, जो सुना जाना चाहता है.

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