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बेरहम होती शीतलहर : खतरों को समझें

वर्ष 2019 को कड़ाके की ठंड के चलते वर्षों तक याद रखा जायेगा। बेरहम हुई शीत लहर ने अकेले उत्तर प्रदेश में अब तक 228 लोगों की जान ले ली है।

04:08 AM Dec 31, 2019 IST | Ashwini Chopra

वर्ष 2019 को कड़ाके की ठंड के चलते वर्षों तक याद रखा जायेगा। बेरहम हुई शीत लहर ने अकेले उत्तर प्रदेश में अब तक 228 लोगों की जान ले ली है।

वर्ष 2019 को कड़ाके की ठंड के चलते वर्षों तक याद रखा जायेगा। बेरहम हुई शीत लहर ने अकेले उत्तर प्रदेश में अब तक 228 लोगों की जान ले ली है। उत्तर भारत में जनजीवन भी प्रभावित हुआ है। दिल्ली में इस वर्ष शीत लहर ने 118 वर्ष पुराना रिकार्ड तोड़ा है। राजस्थान के 5 शहरों में पारा शून्य से भी नीचे चला गया और नलों का पानी भी जम गया। कई शहरों में शिक्षण संस्थान बंद करने पड़े हैं। हरियाणा में भी ऐसे ही हालात हैं। 
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उत्तराखंड में बर्फीले तूफान से हालत गंभीर है। इस ठंड से मनुष्य ही नहीं बल्कि जानवर भी त्रस्त हैं। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल जैसे हिमालयी राज्यों में तो शीत लहर का प्रकोप हर वर्ष देखने को मिलता है लेकिन इस बार उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में भी हाड़ कंपकंपा देने वाली सर्दी पड़ रही है। हम नववर्ष का स्वागत करने को तैयार हैं लेकिन नववर्ष के दिनों में ओलावृष्टि के साथ वर्षा की भविष्यवाणी की गई है। जनवरी में भी हिमालय से आने वाली बर्फीली हवाओं से मैदानी क्षेत्रों में शीत लहर के कहर बरसाने के आसार बनते जा रहे हैं। 
मौसम विभाग की तकनीकी भाषा में शीत लहर उस स्थिति को कहते हैं जब तापमान 4.5 डिग्री सेल्शियस से कम हो जाये। इससे कम तापमान में बहने वाली ठंडी और जानलेवा हवाओं को शीत लहर कहा जाता है। इस बार कई शहरों का तापमान तो दो डिग्री से भी कम या फिर शून्य से नीचे चला गया है। पहले लोगों ने भीषण गर्मी का सामना किया, फिर प्रदूषण की मार झेली और अब ठंड और कोहरे की मार झेलनी पड़ रही है। यह ठंड शिशुओं और बुजुर्गों खास तौर पर हृदय रोगियों और अस्थमा के मरीजों के लिये काफी खतरनाक है। 
शीत लहर का प्रकोप बेघरों और फुटपाथ पर रहने वाले लोगों के  लिये जानलेवा साबित होता है। अस्पतालों में मरीजों की भीड़ बढ़ गई है। इससे लगता है कि गर्मियों के मुकाबले सर्दी का मौसम कहीं ज्यादा मुश्किलों भरा होता जा रहा है। बर्फीली हवाओं, हिमपात और बारिश से होने वाली मुश्किलें कोई नई बात नहीं हैं लेकिन देखने वाली बात यह  है कि पिछले कुछ वर्षों से ठंड की अवधि और तीव्रता में काफी बदलाव हुआ है। कभी लोग कहते थे कि दिल्ली में ठंड कहां पड़ती है, यहां तो केवल एक पखवाड़ा ही पाला पड़ता है लेकिन अब दिल्ली में भी ठंड की अवधि बढ़ रही है और उसकी आक्रामकता बढ़ चुकी है। पहाड़ी क्षेत्रों में हिमपात का समय बदल चुका है। 
मौसम का मिजाज भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में बदल रहा है। विश्व भर में शीत लहर के प्रकोप की खबरें हैं। यह सब प्रकृति और पर्यावरण के साथ मनुष्य द्वारा की गई अत्यधिक छेड़छाड़ का परिणाम है। जलवायु में परिवर्तन हो चुका है। ग्रीन हाउस गैसों के द्वारा उत्सर्जन, हरियाली के घटने तथा अनियोजित विकास के कारण ही मौसम हमलावर हुआ है। लगातार बढ़ते प्रदूषण के कारण देश के अधिकतम शहरों में आबोहवा सांस लेने लायक भी नहीं बची है। ठंड देर से आये या बाद में लगातार ठंड कहर बरसाने लगती है। 
गर्मियों के मौसम में भी पारा ज्यादा ऊपर जाने लगा है। मानसून के दिनों में वर्षा का इंतजार करना पड़ता है लेकिन मानसून की विदाई के समय बाढ़ आ जाती है। जबकि ग्लेशियर लगातार सिकुड़ रहे हैं। इसके लिये जिम्मेदार कोई है तो वह है मनुष्य। धरती की विविधता और सौन्दर्य सिमटता जा रहा है और हम महज शोध और अध्ययन या फिर भाषण देने में ही व्यस्त हैं। दुनिया भर की सरकारों कोे इस दिशा में काम करना चाहिये, जो वह कर नहीं रही। जलवायु परिवर्तन और लोकतंत्र के बीच रिश्ता यहीं से शुरू होता है। 
मौसम के तीखे बदलावों का अंदेशा तो बहुत पहले ही लग चुका था। पर्यावरणविदों ने इस बारे में बहुत पहले आगाह कर दिया था कि कैसी तबाही मचेगी, करोड़ों लोग प्रभावित होंगे कहीं बाढ़ से तो कहीं सूखे से, कभी वर्षा से तो कभी तूफान से, कभी अतिशय गर्मी से तो कभी असमय जाड़े से। अगर भविष्य की कोई तस्वीर सामने आती है, वह यह है कि बेशक जलवायु परिवर्तन का असर धरती के लोक पर पड़ेगा और लोकतंत्र पर भी इसकी आंच आयेगी। 
लोकतंत्र पर आधारित सरकारों का दायित्व है कि वह वार्षिक स्तर पर जलवायु अंकेक्षण की व्यवस्था को राष्ट्रीय कार्यक्रम का हिस्सा बनाये और इसके निवारण के लिये समयबद्ध कार्यक्रम बनाये। अगर ऐसा नहीं किया गया तो भविष्य में गरीब वर्ग का जीवन कठिन हो जायेगा। जलवायु परिवर्तन तो जैव विविधता पर असर डालेगा। मानवीय पीड़ा और अस्थिरता को बढ़ायेगा। महामारियां फैलेगी, बीमारियां बढ़ेंगी, गरीबी बढ़ेगी और पलायन होगा। जलवायु परिवर्तन पर सम्मेलनों से कुछ नहीं होगा, मानव को खुद सचेत होना होगा। 
वैज्ञानिक मानते हैं कि धरती का एक डिग्री तापमान बढ़ने से पैदावार में तीन से सात फीसदी की कमी आ जाती है। इससे खाद्य संकट पैदा हो सकता है। स्वयं को ईश्वर की महान कृति कहने वाली मानव जाति को सचेत होना होगा, अगर अब भी गंभीरता से काम नहीं किया तो समझ लो संकट निकट है।
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