हिन्दी प्रयोग और अमित शाह
भारत में स्वतंत्रता के बाद से ही राजभाषा हिन्दी को लेकर विवाद उत्पन्न होता रहा है और अंग्रेजी के स्थान पर इसको रोजी-रोटी की भाषा बनाये जाने की मांग उठती रही है। हिन्दी चूंकि जन सामान्य की भाषा रही है। अतः अभिजात्य जगत के लिए इसके प्रति तिरस्कार भाव भी रहा, जिसके चलते हिन्दी को अपने ही देश में कई प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इनमें सबसे प्रमुख था इसे पढ़ाई-लिखाई विशेषकर उच्चतर शिक्षा का माध्यम न बनाया जाना। मगर 26 जनवरी 1965 को पूरे देश ने कसम खाई कि वह अपना सरकारी कामकाज अधिक से अधिक हिन्दी में करेगा और इस भाषा के प्रोत्साहन में अपना योगदान देगा। हिन्दी को राजभाषा का दर्जा मिलने से उत्तरी भारत में इसके बाद समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन शुरू हुआ। यह आन्दोलन पाठ्यक्रम से अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त करने के लिए था, जो वर्तमान सन्दर्भों में उचित नहीं लगता है क्योंकि भारत की नई युवा पीढ़ी पूरे विश्व में अपने ज्ञान का डंका अंग्रेजी ज्ञान के बूते पर ही बजा रही है विशेषकर कम्प्यूटर के साफ्टवेयर क्षेत्र में परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि हिन्दी में हम इस ज्ञान को अर्जित ही नहीं कर सकते हैं।
क्योंकि कम्प्यूटर विद्वानों के अनुसार ही इस विद्या की सबसे वैज्ञानिक भाषा संस्कृत है। हिन्दी संस्कृत से ही उपजी भाषा है। पं. जवाहर लाल नेहरू को अंग्रेजी भाषा का महाविद्वान समझा जाता था परन्तु उन्होंने भी स्वीकार किया था कि संस्कृत भारत की ऐसी थाती है जिसमें ज्ञान का भंडार भरा पड़ा है। आज केन्द्रीय गृहमन्त्री श्री अमित शाह इसी ओर पूरे देश का ध्यान खींच रहे हैं और कह रहे हैं कि संस्कृत के ज्ञान के बूते पर हम हिन्दी को विज्ञान की भाषा से लेकर न्यायपालिका व पुलिस की भाषा भी बना सकते हैं। श्री शाह मोदी सरकार में अकेले ऐसे मन्त्री हैं जो समय-समय पर हिन्दी की महत्ता बताते रहते हैं और कहते रहते हैं कि इस भाषा को रोजी-रोटी की भाषा बनाकर ही हम भारत के लोगों का कल्याण कर सकते हैं और उन्हें हर क्षेत्र में विशेषज्ञ बना सकते हैं। श्री शाह इसके साथ ही लगातार यह भी कहते रहते हैं कि हिन्दी का अन्य भारतीय भाषाओं से कोई द्वेष या झगड़ा नहीं है और ये सभी भाषाएं सह अस्तित्व की भावना से अपना-अपना विकास कर सकती हैं।
वास्तव में भारत में क्षेत्रीय भाषाओं को हिन्दी से कोई भी खतरा कभी नहीं रहा है। इसके हमें पुख्ता ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं। स्वतन्त्र भारत में तो आजादी के केवल छह महीने बाद ही जनवरी 1948 में शिक्षा के माध्यम पर विचार करने के लिए एक उच्च स्तरीय कमेटी गठित कर दी थी। यह कमेटी केन्द्रीय शिक्षा परामर्शदात्री समिति ने गठित की थी जिसमें कुछ विश्वविद्यालयों के कुलपति व शिक्षा विशेषज्ञ भी शामिल किये गये थे। सितम्बर 1948 में इस कमेटी ने जब अपनी रिपोर्ट दी तो उसे स्वीकार कर लिया गया। कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि विश्वविद्यालय व प्रान्तों की सरकारें विश्वविद्यालय स्तर की पढ़ाई में अंग्रेजी माध्यम को कम करती जायें और इनके स्थान पर हिन्दी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को तरजीह दें। इन भाषाओं को परीक्षा का माध्यम बनाया जाना चाहिए। मगर यह कार्य धीरे-धीरे क्रमबद्ध तरीके से किया जाना चाहिए।
इस प्रकार अंग्रेजी की जगह किसी सार्वदेशिक भाषा या राष्ट्रीय भाषा को न देकर हिन्दी व अन्य प्रादेशिक भाषाओं को दी गई। उस समय तक राष्ट्र भाषा का सवाल ही खड़ा किया जाता था और स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय से यह कहा जाता था कि आजादी मिलने पर भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी ही बनेगी बल्कि महात्मा गांधी तो इसे हिनदुस्तानी भाषा कहते थे जिसमें बोलचाल के उर्दू शब्द भी समाहित थे परन्तु स्वतन्त्र भारत में हिन्दी व हिन्दुस्तानी का विवाद भी खूब चला और राष्ट्रभाषा का प्रश्न अधूरा ही रह गया जो कि बदस्तूर चालू है। इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा था कि यदि कोई विद्यार्थी स्नातक स्तर पर हिन्दी को विषय के रूप में चुनता है तो इसे ऐच्छिक विषय के रूप में रखा जा सकता है परन्तु उसमें पास होने या न होने का विद्यार्थी के सकल परीक्षाफल पर कोई असर नहीं पड़ेगा। ठीक ऐसा ही विकल्प 60 के दशक के अन्त में उत्तर भारत के उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में हाई स्कूल व इंटरमीडियेट स्तर पर अंग्रेजी के बारे में रखा गया था।
यह विकल्प अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन के बाद निकला था। मगर कुछ समय बाद इस विकल्प को समाप्त कर दिया गया क्योंकि ऐसा करने से भारत की नई पीढि़यों का अंग्रेजी ज्ञान बहुत क्षीण हो रहा था जो किसी भी रूप में शिक्षा के स्तर के लिए उचित नहीं समझा गया था। श्री शाह भी वर्तमान दौर में केवल यही कह रहे हैं कि हिन्दी के प्रयोग को उच्च शिक्षा से लेकर प्रशासनिक कामों में बढ़ावा दिया जाये जिससे यह रोजी-रोटी की भाषा बन सके। किसी भी देश में केवल वही भाषा तरक्की कर सकती है जिसका सीधा सम्बन्ध आजीविका से जुड़ा हो। 2014 के बाद से जब से मोदी सरकार देश में शासनारूढ़ हुई है हिन्दी के प्रशासन में प्रयोग को लगतार तरजीह दी जा रही है। संसद से लेकर पुलिस के क्षेत्र तक में यह प्रभाव हम देख सकते हैं। इससे भारत का आम जन ही शक्तिशाली हो रहा है क्योंकि भाषा किसी भी लोकतन्त्र में सामान्य जन को ताकतवर बनाने का साधन भी होती है। डा. लोहिया ने अपना अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन इसी लक्ष्य को सामने रख कर चलाया था मगर बाद में यह आन्दोलन हिंसक भी हो गया था और इसके जवाब में दक्षिण भारत में हिन्दी विरोधी आन्दोलन होने लगा था। भारत को शक्तिशाली बनाने का तरीका केवल यही हो सकता है जो श्री शाह बता रहे हैं कि हिन्दी व सभी क्षेत्रीय भाषाओं का समान रूप से विकास हो और ये सह अस्तित्व के भाव से आम जनता के विकास में योगदान करें।