राणा सांगा का इतिहास और रामजीलाल सुमन
भारत के मध्यकालीन इतिहास के भारतीय नायकों में से एक मेवाड़ के राणा सांगा को…
भारत के मध्यकालीन इतिहास के भारतीय नायकों में से एक मेवाड़ के राणा सांगा को लेकर आजकल संसद से लेकर सड़क तक जो कोहराम मचा हुआ है। इसकी सार्थकता भारत के ‘लोकोक्त’ इतिहास से जाकर जुड़ती है। इसके बावजूद इस मुद्दे पर जिस प्रकार कुछ लोगों ने अपना विरोध करने का विध्वंसात्मक तरीका निकाला है उसकी निन्दा करना हर समझदार नागरिक का दायित्व है। यह तो अकाट्य एेतिहासिक सत्य है कि 1526 में मुगल शासक बाबर ने भारत पर आक्रमण किया था। उस समय दिल्ली सल्तनत पर इब्राहीम लोधी का शासन था। राणा सांगा उसे भारत से बाहर करना चाहते थे। राणा सांगा राजपूतों के सिसोदिया वंश के एेसे शासक थे जिनका साम्राज्य गुजरात के कुछ क्षेत्रों से लेकर मध्य प्रदेश की चन्देरी रियासत तक फैला हुआ था। उनकी इच्छा दिल्ली सल्तनत को भी अपने स्राम्राज्य में मिलाने की थी। हालांकि वह सीधे लोधी शासकों से 1527 से पहले भी दो बार टकरा चुके थे मगर स्थायी रूप से दिल्ली उनके कब्जे में नहीं आ पा रही थी।
इस मामले में किसी शक की कोई गुंजाइश नहीं है कि काबुल में बैठे मुगल बादशाह बाबर की नजरें भी हिन्दोस्तान पर लगी ही थीं क्योंकि भारत की सम्पदा की चमक से भरमा रही थी। लेकिन इब्राहीम लोधी के दरबार में ही ही बैठे एेसे लोग भी थे जो लोधी की पीठ पीछे दिल्ली सल्तनत पर लालायित थे। इनमें इब्राहीम लोधी का ही पंजाब का सूबेदार दौलत खां लोधी भी शामिल था। राणा सांगा इब्राहीम लोधी को रण क्षेत्र में स्थायी रूप से हरा कर दिल्ली की सल्तनत पर अपना शासन देखने की चाह में जी रहे थे। अतः उन्होंने बाबर को भारत आने का निमन्त्रण एक पत्र लिख कर भेजा। मगर उनसे पहले ही पंजाब के सूबेदार दौलत खां ने अपना एक दूत भेज कर बाबर से भारत आने को कहा।
राणा सांगा मानते थे कि जिस तरह अफगानिस्तान से भारत पर आक्रमण करने वाले दूसरे सुल्तान मुहम्मद गौरी व महमूद गजनवी दिल्ली आये थे और भारत का खजाना लूट कर वापस हो गये थे, उसी प्रकार बाबर भी लूटपाट करके वापस चला जायेगा। मगर उनकी सोच गलत निकली और बाबर ने 1526 में पानीपत की पहली लड़ाई लड़ कर इब्राहीम लोधी को तो हरा दिया और दिल्ली का राजकाज अपने बेटे हुमायूं को सौंप दिया। राणा सांगा ने बाबर को लिखे अपने पत्र में कहा था कि जब वह सुल्तान लोधी पर दिल्ली में हमला करेगा तो वह आगरा पर चढ़ाई कर देंगे।
बाबर ने 1526 में पानीपत की लड़ाई में पहली बार बारूदी तोपों का उपयोग किया। यह शस्त्र भारत के लोगों के लिए नया था। राणा सांगा ने तब बाबर को वापस काबुल भेजने के लिए उससे राजस्थान के इलाके खानवा में 1527 के मार्च महीने में युद्ध लड़ा लेकिन बाबर ने तोपों की मदद से यह युद्ध उसी प्रकार जीत लिया जिस प्रकार उसने पानीपत का युद्ध जीता था। इस प्रकार भारत में मुगलिया सल्तनत की शुरूआत हुई। इस एेतिहासिक घटनाक्रम से हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि राणा सांगा की नीयत में कोई खोट नहीं था और वह पूरे भारत में स्वदेशी साम्राज्य चाहते थे। इसमें भी कोई दो राय नहीं हो सकती कि उनका मूल्यांकन उस प्रकार किया जाये जिस प्रकार 12वीं सदी के राजा जयचन्द का किया जाता है। इसमें भी कोई शक नहीं है कि राणा सांगा पूरे देशभक्त थे औऱ वह इब्राहीम लोधी का शासन समाप्त करने के लिए बाबर की मदद चाहते थे। मगर भारत आकर बाबर की निगाह बदल गई और बाबर हिन्दोस्तान में ही जम गया। इसी वजह से उन्होंने बाबर से 1527 के मार्च महीने में युद्ध लड़ा जिसमें वह पराजित हो गये।
इस पूरे मसले पर समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सदस्य रामजी लाल सुमन ने सदन के भीतर जो बयान दिया और राणा सांगा की शान में गुस्ताखी की उसका समर्थन नहीं किया जा सकता। मगर इसके विरोध में जिस प्रकार सड़कों पर हिंसक प्रदर्शन किया गया उससे भी इत्तेफाक नहीं रखा जा सकता। आगरा में श्री सुमन के स्थायी निवस के बाहर जिस तरह की तोड़फोड़ की गई वह कानून की नजर में एक अपराध ही कहा जायेगा। श्री सुमन देश के सुविज्ञ राजनेताओं में एक हैं जो दलित वर्ग से आते हैं। वह केन्द्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के दौरान मन्त्री भी रहे हैं। अतः संसद में वक्तव्य देते समय उन्हें भी अपने शब्दों पर ध्यान देना चाहिए था और राणा सांगा के किरदार की समग्र पृष्ठभूमि में समीक्षा करनी चाहिए था।
यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि बाबर व राणा सांगा का युद्ध दो राजाओं का ही युद्ध था। इसमें हिन्दू-मुसलमान ढूंढने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि उस दौर में राजाओं में अपना-अपना राज्य विस्तार करने की होड़ रहती थी। मगर राणा सांगा ने इब्राहीम लोधी को हराने के लिए राजस्थान के लगभग सभी राजाओं व सामन्तों को इकट्ठा कर लिया था।
वह राजस्थान में एक संयुक्त प्रयास कर इब्राहीम लोधी के विदेशी शासन को हटाना चाहते थे। श्री सुमन सुविज्ञ राजनेता समझे जाते हैं उहें राजस्थान के मेवाड़ के राजाओं का इतिहास भी पता होगा। नौवीं शताब्दी में मेवाड़ के ही शासक बप्पा रावल ने सीधे सिन्ध जाकर ही भारत में अरबों के शासन को समाप्त करने के लिए भारी संघर्ष किया था और पूरे पंजाब व सिन्ध में अपनी शासन व्यवस्था कायम की थी।
उन्होंने हर 25 मील की दूरी तक राजस्थान से लेकर सिन्ध पंजाब तक अपनी सैनिक छावनियां स्थापित की थीं। पाकिस्तान के रावलपिंडी शहर को पहली बार उन्होंने ही प्रमुख सैनिक छावनी स्थापित की थी। इस शहर का नाम आज भी उनके नाम पर ही है। वर्तमान सन्दर्भों में पिछले इतिहास का इतनी ही प्रसंगिकता है कि हम उससे सबक लें न कि हर घटना को हिन्दू-मुसलमान के नजरिये से देखें। राजस्थान के राजपूत योद्धाओं की कहानियां इतिहास में बिखरी पड़ी हैं। इनका बखान कोई और नहीं करता बल्कि इस राज्य के मुसलमान जोगी ही करते हैं।
स्वतन्त्र भारत संविधान औऱ कानून से चलने वाला देश है मगर यहां कि राजनीति में खास कर उत्तर भारत में जातिगत राजनीति भी बहुत होती है। इसलिए श्री सुमन के दलित नेता होने के अर्थों को हमें समझना पड़ेगा और इसी दृष्टि से राजनैतिक हानि-लाभ का मूल्यांकन भी करना होगा। हमें सोचना होगा कि राणा सांगा पर उठे विवाद को हम 21वीं सदी के भारत में न फैलने दें। सुमन जी को भी स्वीकार करना चाहिए कि मध्य युग में राजतन्त्र के दौरान राजा हिन्दू-मुसलमान के आधार पर मेल-मिलाप नहीं करते थे बल्कि एक- दूसरे की ताकत के अनुसार व्यवहार करते थे। जरा गौर करिये कि नौवीं शताब्दी में बप्पा रावल चित्तौड़ से सिंध पंजाब क्यों जाते। उन्होंने केवल विदेशियों को वापस खदेड़ने के लिए ही युद्ध लड़ा था। यह भी हैरत की बात है कि आठवीं शताब्दी से लेकर 12वीं शताब्दी तक का इतिहास हमें बाकायदा पढ़ने के लिए नहीं मिलता है।