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मानवीय कैसे बने पुलिस तंत्र

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12:01 AM Oct 02, 2017 IST | Desk Team

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देश में कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है। स्वाभाविक है ऐसे जिम्मेदार बल से कार्य की पूर्णता की अपेक्षा की जाए। कार्य की पूर्णता का अर्थ यही है कि पुलिस अपना काम इस ढंग से करे कि न्याय की गुहार करने वाले को न्याय मिले और दोषी दंडित हो। यही वह बिन्दू है जहां पर अक्सर विरोधाभास उत्पन्न होता है। यही कारण है कि पुलिस की उपलब्धियां शानदार होने की बजाय वह अनेक तरह के आरोपों का शिकार है और उसकी छवि काफी हद तक खराब है।

उसकी छवि आज भी अंग्रेजों की सरकार के समय की है। इस विभाग का गठन अंग्रेजों के जमाने में किया गया था जिसकी वजह से इसके अधिकांश नियम-कायदे उसी समय के हिसाब से तय हैं और समय के बदलने के साथ उन्हें बदला नहीं गया। हालांकि काफी परिवर्तन हुआ लेकिन ढांचा पुराना ही रहा। अब अपराध करने के तरीके काफी बदल गए लेकिन उनसे निपटने के तरीके पुराने ही हैं। अब अपराधों को परम्परागत तरीकों से निपटना असम्भव होता जा रहा है इसलिए पुलिस व्यवस्था का आधुनिकीकरण समय की मांग है। ऐसे समय में जब आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियां लगातार बढ़ रही हों, पुलिस व्यवस्था का आधुनिकीकरण न किया जाना आत्मघाती ही होगा।

कई बार देखा गया है कि नक्सलियों और आतंकवादियों के सामने हमारी पुलिस सुविधाओं के अभाव में कई बार कमजोर पड़ती है। पुलिस बल को आधुनिक हथियारों से लैस करना, उन्हें आधुनिक वाहन प्रदान करना, आवश्यकता पडऩे पर आपरेशन के लिए हेलिकॉप्टर उपलब्ध कराना, नए वायरलैस सैट प्रदान करना आदि की आवश्यकता लम्बे समय से महसूस की जा रही थी। अब जाकर केन्द्र सरकार ने पुलिस सुधार सहित आंतरिक सुरक्षा एवं कानून-व्यवस्था की स्थिति को दुरुस्त करने के लिए 25 हजार 60 करोड़ रुपए आवंटित करने का फैसला किया है।

वैसे तो कानून-व्यवस्था और पुलिस तंत्र का आधुनिकीकरण राज्य का विषय है और केन्द्र जो भी योजना बनाए, उसको क्रियान्वित करने का दारोमदार राज्यों पर ही है पर केन्द्र की एकीकृत दिशा वाली योजना और इसके लिए आवश्यक राशि के अभाव में यह सम्भव नहीं था। केन्द्रीय मंत्रिमंडल की सुरक्षा मामलों की समिति ने इस स्थिति को समझा और इसे अन्तिम रूप देकर लम्बे समय से महसूस की जा रही आवश्यकता को पूरा करने का काम किया। इस योजना में 80 फीसदी यानी 18 हजार 636 करोड़ रुपए केन्द्र के द्वारा वहन किए जाएंगे जबकि राज्यों के हिस्से में केवल 6 हजार 424 करोड़ रुपए आएंगे।

अब यह राज्यों का दायित्व है कि वह पुलिस सुधारों और उसके आधुनिकीकरण के काम में आगे आएं। दरअसल 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर केन्द्रीय राजस्व में से राज्यों का हिस्सा 32 फीसदी से 42 फीसदी करने के बाद पुलिस सुधारों के लिए केन्द्रीय सहायता बन्द हो गई थी। इसका परिणाम यह हुआ कि ज्यादातर राज्यों ने इस ओर ध्यान देना ही छोड़ दिया। पुलिस के आधुनिकीकरण के साथ सबसे बड़ी चुनौती है उसके चेहरे को बदलना। अक्सर यह आरोप लगता है कि पुलिस का चेहरा मानवीय नहीं है बल्कि अमानवीय है। कई बार तो ऐसा लगता है कि हमारी सारी पुलिङ्क्षसग ही झूठ पर आधारित है और इसमें कहीं भी सच्चाई और न्याय नहीं दिखता।

यही वजह है कि पुलिस की वर्दी पर अनेक दाग हैं। पुलिस वालों पर ही अपराध में लिप्त होने के आरोप लगते रहते हैं। जब तक सच्चाई और न्याय को पुलिङ्क्षसग का आधार नहीं बनाया जाता तब तक हालात ऐसे ही रहेंगे। किसी एक वर्दीधारी के हाथ में आऌप पूरे अधिकार थमा देते हैं तो वह न सिर्फ कानून तोड़ता है बल्कि खुद भी भ्रष्ट बनता है और पूरे तंत्र को भ्रष्ट बनाता है। पुलिस सुधारों के लिए आयोग भी बनाए गए, उनकी सिफारिशें भी कई वर्ष पहले आ चुकी थीं जिसमें विभाग में आमूलचूल परिवर्तन के लिए काम किया जाना था लेकिन सिफारिशों पर कोई काम नहीं किया गया।

पुलिस जांच को सक्षम, निष्पक्ष, स्वतंत्र, दबावमुक्त बनाया जाना जरूरी है ताकि लोगों को उस पर भरोसा हो। अगर पुलिस जांच निष्पक्ष हो तो लोग सीबीआई जांच की मांग करेंगे ही नहीं। अब सवाल यह है कि पुलिस की जांच अक्सर शक के दायरे में क्यों आती है, यह बहुत बड़ा सवाल है और इसके कई पहलू हैं। हमारा देश इस मामले में काफी अलग देश है। यहां किसी भी मामले में दबाव, पद, पैसे को ताकत के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

राजनीतिक दबाव तो सर्वोच्च स्थिति में दिखाई दे रहा है। जब प्रभावशाली लोगों का ही बोलबाला हो तो फिर पुलिस भी इससे अछूती नहीं रह सकती। सबसे खतरनाक पहलू तो यह है कि सत्ता ने स्वयं पुलिस का राजनीतिकरण किया है। धन से पुलिस को आधुनिक हथियार, वाहन दिए जा सकते हैं, क्या धन से पुलिस का चेहरा मानवीय बनाया जा सकता है? यह सवाल सबके सामने है। पुलिस सुधारों के लिए जरूरी है उसे मानवीय बनाया जाए ताकि लोग उस पर भरोसा कर सकें।

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