माधवदास वैरागी कैसे बन गए बंदा सिंह बहादुर
बंदा सिंह बहादुर जिनका बचपन का नाम लक्ष्मण दास था और उनका जन्म कश्मीर के पुंछ गांव के राजौरी में 1670 ई. को हुआ। बचपन से ही वह फारसी, संस्कृत, पंजाबी आदि भाषाओं का ज्ञान रखते थे और युद्ध कला में भी निपुण थे। एक दिन शिकार के दौरान उनका तीर एक गर्भवती हिरणी को लगने से तड़प-तड़प कर उसकी और उसके गर्भ में पल रहे बच्चे की मृत्यु हो गई। उसे मृत अवस्था में देख वह वैराग्य की अवस्था में आ गये और सब कुछ त्याग जंगल की ओर चल पड़े। साधू जानकी दास के संपर्क में आने के बाद उन्होंने नाम बदलकर माधवदास रख लिया। कुछ समय बाद हजूर साहिब के पास एक स्थान पर उनकी मुलाकात गुरु गोबिंद सिंह जी से हुई और उसी मुलाकात ने उनका जीवन बदल दिया और गुरु जी के बंदा बन गए। मुगल शक्ति के ना हारने और भारतीयों द्वारा उन्हें ना हरा पाने का सदियों पुराना भ्रम तोड़कर रख दिया। उनकी सूरवीरता से प्रसन्न होकर गुरु जी ने बंदा सिंह को बहादुर का खिताब दिया तभी से उन्हें बंदा सिंह बहादुर कहकर सम्बोधन किया जाने लगा।
इतिहास गवाह है कि बंदा सिंह बहादुर ने मुगलों की ईंट से ईंट बजा दी और गुरु साहिब के साहिबजादों का बदला भी मुगलों से लिया मगर अन्त में मुगलों ने उन्हें कैद कर कुतुबमीनार के सामने स्थान पर अनेक कष्ट देकर जबरन इस्लाम कबूलने को कहा गया लेकिन जब वह नहीं माने तो उनके 6 वर्षीय पुत्र अजय सिंह का कलेजा निकालकर बंदा सिंह बहादुर के मुंह में डाला गया। जो शायद पृथ्वी लोक पर अकेली ऐसी घटना है। किसी के भी बच्चे को अगर जरा सी भी चोट लग जाये तो हमारे हाथ-पांव फूल जाते हैं, पर धन्य हैं बाबा बंदा सिंह बहादुर जिन्होंने हर कष्ट तो सह लिया, पर हार नहीं मानी, आखिरकार उनकी शहादत हो गई। मगर आज दुख होता है जब कुछ एजेन्सियां और सरकारों को चलाने वाले अफसरशाही सिख विरोधी सोच के लोग उन्हें बन्दा वैरागी बताकर यह साबित करने में लगे हैं कि वह सिख नहीं थे। मगर उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि जब तक वह वैरागी थे उनमें बहादुरी नहीं थी। शक्ति उन्हें अमृतपान के बाद आई इसलिए उन्हें सम्बोधन करते समय बाबा बन्दा सिंह बहादुर का प्रयोग करना चाहिए वैरागी का नहीं।
40 दिनों में बच्चे सीख गए गुरबाणी पाठ
आज समय ऐसा आ गया है लोग अपनी मातृ भाषा में बातचीत करना तौहीन समझते हैं। 99 प्रतिशत सिखों के घरों में भी बातचीत का माध्यम अंग्रेजी या फिर हिन्दी बन चुका है। बेहतर एजुकेशन बच्चों को दिलाने के चलते हर कोई चाहता है कि उसका बच्चा कानवेंट स्कूलों में पढ़े ताकि आगे चलकर वह अपना भविष्य बेहतर बना सके मगर शायद वह यह भूल जाते हैं कि कानवेंट स्कूलों में बच्चे अंग्रेजी तो सीख जाएंगे मगर अपनी मातृ भाषा का ज्ञान उन्हंे नहीं मिल सकेगा और जब बच्चे मातृ भाषा भाव गुरमुखी ही नहीं सीखेंगे तो पाठ करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। इसी के चलते आज युवा वर्ग सिखी का त्याग करता चला जा रहा है। पहले समय में भले बच्चे स्कूलों में मातृ भाषा न भी सीखें, पर परिवार बड़े होने के चलते दादा-दादी के द्वारा ही बच्चों को अपनी भाषा, गौरवमयी विरसे की जानकारी दी जाती थी, अब तो वह भी नहीं रहा। माता-पिता बच्चों का भविष्य उज्जवल बनाने के चक्कर में दौड़- धूप की जिन्दगी व्यतीत करने को मजबूर हैं, उनके पास बच्चों को धार्मिक शिक्षा देने का समय ही नहीं है। ऐसे में गुरमत कैंप ही एकमात्र विकल्प बचा है जिसमें बच्चे गुरमुखी, सिख इतिहास, कीर्तन आदि की शिक्षा ले सकते हैं मगर उनमें भी बहुत कम अभिभावक ही अपने बच्चों को भेजते हैं। दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी की धर्म प्रचार कमेटी द्वारा इस बार 230 के करीब गुरमत कैंप गर्मी की छुट्टियों में बच्चों के लिए लगाए गए, इसके साथ ही एक विशेष कैंप उ.प्र. के अनूपशहर जहां गुरु हरिराय साहिब जी का आनन्द कारज हुआ था, उसी गुरुद्वारा साहिब में लगाया गया जिसमें 40 दिनों के लिए बच्चों को रखकर उन्हें अमृतवेले उठाया गया, स्नान के पश्चात पाठ, कीर्तन, पंजाबी सिखलाई की क्लास ली गई, जिसका परिणाम यह निकला कि आज वह बच्चे जिन्हें गुरमुखी का बिल्कुल भी ज्ञान नहीं था, उड़ा-ऐड़ा तक नहीं आता था, मात्र 40 दिनों के भीतर वह ना सिर्फ गुरमुखी सीख गए बल्कि पाठ और कीर्तन भी करने लगे। इनमें कई बच्चे तो बहुत ही छोटी उम्र के भी थे। दिल्ली कमेटी द्वारा बकायदा उन्हें स्मृति चिन्ह एवं सर्टीफिकेट भी दिए।
सिखों की देशभक्ति पर किसी को शक नहीं
इतिहास इस बात का गवाह है कि सिख वह मार्शल कौम है जिसने देश की आजादी से लेकर आज तक जब भी देश को आवश्यकता हुई सबसे आगे बढ़कर कुर्बानियां दीं। सिखों की गिनती भले ही इस देश में 2 प्रतिशत हो मगर उनकी कुर्बानियां 85 प्रतिशत से अधिक रही हैं, यहां तक कि अंग्रेज हकूमत भी सिखों की बहादुरी के सामने घुटने टेक दिया करती थी। सारागढ़ी का युद्ध आज भी याद है जब मात्र कुछ सिख फौजियों ने हजारों की दुश्मन फौज का निडरता के साथ सामना किया। आज भी देश की सरहदों पर सिख सैनिक सीना तानकर देश की रक्षा हेतु तैनात हैं। आजादी के बाद से पंजाब का युवा सिख या तो खेती करता या फिर फौज में जाने पर गर्व महसूस करता। हालांकि बीते समय में सरकारों द्वारा बनाई गई नीतियों के चलते सिखों की सेना में भर्ती कम हुई है क्योंकि सरकारी नीति के अनुसार राज्य की संख्या के आधार पर भर्ती की जाने लगी जिसमें पंजाब से ज्यादा फौजी दूसरे राज्यों से आने लगे। आज भी अनेक ऐसे सिख परिवार हैं जिनके लड़के ही नहीं लड़कियां भी फौज में हैं। हाल ही में लेफिटेंट जनरल डी. पी. सिंह जिन्हें पदौन्नित मिली तो उन्हें मैडल उनकी दोनों बेटियों ने पहनाए जो कि आर्मी में ही मेजर के पद पर तैनात थी। एक बाप के लिए यह गौरवांतित पल रहे होंगे कि उसकी बेटियां भी उसके नक्शे कदम पर चलते हुए देश की रक्षा में तत्पर हैं। मगर अफसोस तब होता है जब विदेशों में बैठे गुरपतवंत सिंह पन्नू जैसे वह लोग जिनकी गिनती ना के बराबर है जो सिखी स्वरूप में भी नहीं मगर अपने आप को सिख कहते हैं और खालिस्तान की बातें करते हैं। पाकिस्तान की शह पर आतंकी गतिविधियों को अंजाम देते हैं। उनकी वजह से समूची सिख कौम बदनाम होने लगती है।
दिलजीत के समर्थन में सिख
दिलजीत फिल्म ‘‘सरदार जी 3’’ में पाकिस्तानी अभिनेत्री हानिया आमिर की मौजूदगी को लेकर आलोचना झेल रहे हैं। तमाम भारतीय सितारों, गायकों और फिल्म संगठनों ने उनका विरोध किया है। हालांकि देखा जाए तो फिल्म में अभिनेत्री उन्हें दिलजीत ने नहीं बल्कि फिल्म के निर्माता ने लिया होगा। उसने पहलगांव हादसे के बाद जिस प्रकार भारत के खिलाफ जहर उगला उसके चलते उसकी आलोचना बनती भी है मगर जो लोग दिलजीत को गद्दार या उसके खिलाफ अपशब्दों का प्रयोग कर रहे हैं उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। दिलजीत ने हमेशा ही अपने देश और कौम का गौरव बढ़ाया है। विश्व की सबसे महंगी मैग्जीन के मुख्य पृष्ठ पर आज अगर किसी भारतीय की तस्वीर छपी है तो वह दिलजीत दोसां है। कुछ लोग उसकी नागरिकता समाप्त करने तक की बात करते दिख रहे हैं जो किसी भी सूरत में सही नहीं है। दिलजीत को अब सिख नेताओं का समर्थन मिलता दिख रहा है। जिसमें दिल्ली गुरुद्वारा कमेटी अध्यक्ष हरमीत सिंह कालका, महासचिव जगदीप सिंह काहलो, अकाली दल नेता परमजीत सिंह सरना, मनजीत सिंह जीके, भाजपा नेता आर.पी. सिंह, तख्त पटना कमेटी के प्रवक्ता हरपाल सिंह जौहल, उपाध्यक्ष गुरुविन्दर सिंह सहित अनेक नेता हैं जो दिलजीत का समर्थन करते दिखें और होना भी चाहिए क्योंकि इस सब घटनाक्रम में दिलजीत का कोई रोल नहीं है, उसे बिना वजह बदनाम किया जा रहा है। असल में देखा जाए तो इसमें वह गायक भी शामिल हैं जिनकी दिलजीत की बुलंदियां छूने के चलते लोकप्रियता समाप्त हो रही थी।