कैसे नो-बॉल पर आउट हुए कैप्टन
‘जरा-जरा सी इतनी सी बात पर हवा यूं भड़क जाती है
तूफानों में भला दीयों की फरियाद कब सुनी जाती है’
इन दिनों कैप्टन अमरिंदर सिंह भाजपा नेतृत्व से बेहद ठगा महसूस कर रहे हैं, उनके मन में तो जैसे बस यही चल रहा है कि ‘मतलब निकल गया तो जानते नहीं।’ भाजपा को लगने लगा था कि ‘कैप्टन उनके लिए बस एक चूके कारतूस रह गए हैं, जो शायद उसके अब किसी काम नहीं आने वाले।’ सो भाजपा ने उनसे तमाम बड़े-बड़े वादे कर उन्हें ठंडे बस्ते में डाल दिया है। कैप्टन करीबियों का दर्द है कि ‘कम से कम इन्हें किसी राज्य का गवर्नर तो बनाया ही जा सकता था।’ अपनी निरंतर उपेक्षा से आहत कैप्टन ने एक बार मन बना ही लिया था कि ‘वे अपने पुराने घर कांग्रेस में लौट जाएंगे’, वे सोनिया गांधी से मिल कर उनके संग चाय भी पी आए और उनके साथ अपने मन की बातें भी शेयर कर ली। एक तरह से कैप्टन ने सोनिया को इशारा दे दिया था कि ‘वे फिर से कांग्रेस ज्वॉइन करें या नहीं, पर परोक्ष या अपरोक्ष तौर पर कांग्रेस की मदद करते रहेंगे।’ जब इस बात की भनक केंद्र सरकार को लगी तो कैप्टन व उनके परिवार पर ईडी की जांच तेज कर दी गई।
मामला कैप्टन के पुत्र की विदेशों में यानी फ्रांस, दुबई और स्विट्जरलैंड में स्थित संपत्तियों से जुड़ा है। अब तो कोर्ट ने भी कह दिया कि ‘ईडी इन संपत्तियों की जांच कर सकती है।’ वैसे भी पंजाब भाजपा की एक दुखती रग है। वह बहुत कोिशशों के बाद भी वहां अपने पैर नहीं जमा पा रही। कभी उसे शिरोमणि अकाली दल का सहारा था, अब वह आम आदमी पार्टी और कैप्टन के पुराने भरोसेमंदों के सहारे वहां पार्टी की नैया पार लगाना चाहती है। सो कांग्रेसी नेता व कैप्टन के पुराने वफादार मनीश तिवारी भाजपा की स्वभाविक पंसद बन कर उभरे हैं। वे चंडीगढ़ के सांसद हैं और एक तरह से कांग्रेस के बागी गुट के एक अहम झंडाबरदार भी माने जाते हैं। जाति से ब्राह्मण हैं और पंजाब के पुराने नेताओं में शुमार होते हैं। सो, भाजपा ने मनीश तिवारी पर पहले से डोरे डालने शुरू कर दिए थे, मोदी ने भी ऑपरेशन सिंदूर के दौरान सांसदों के प्रतिनिधिमंडल में उन्हें शामिल किया था, उनके नाम को लेकर राहुल गांधी के विरोध को किनारे रखते हुए।
लद्दाख में किसकी जमेगी धाक?
लद्दाख का पहाड़ी रेगिस्तान पूर्ण राज्य का दर्जा प्रदान करने और संविधान की छठी अनुसूची के तहत आदिवासी अधिकारों के रक्षा के मुद्दे पर उबल रहा है। लेह और कारगिल की शीर्ष संस्था ने जो इस आंदोलन का नेतृत्व कर रही है, जन दबावों में आकर अपनी संस्था से राजनीतिक चेहरों को हटाने का फैसला लिया था। इस फैसले की गाज दो बड़े नेताओं पर भी गिरी है, इनमें से एक हैं थुप्स्तान छेवांग जिन्होंने 2019 लोकसभा चुनावों में पहले न सिर्फ बीजेपी छोड़ दी थी बल्कि अपनी लोकसभा सीट से भी इस्तीफा दे दिया था। ये पूर्व में दो बार के भाजपा सांसद रह चुके थे।
इनके अलावा यहां के कांग्रेसी दिग्गज रिगजिन जोरा को भी इस शीर्ष संस्था से इस्तीफा देना पड़ा था। पर थुप्स्तान छेवांग की संघ की पृष्ठभूमि और भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व से अपनी निकटता वे चाह कर भी नहीं छुपा पा रहे। वहीं इनको चुनौती मिल रही है एक गैर राजनैतिक व्यक्ति, इंजीनियर व शिक्षा सुधारक सोनम वांगचुक से जो यहां के लोगों के लिए उम्मीद की नई किरण बन कर उभरे हैं। यह कोई दूसरी बार है जब वांगचुक एक अनिअनिश्चितकालीन उपवास पर बैठे है। जाहिरा तौर पर वे केंद्र सरकार की आंखों की किरकिरी भी बने हुए हैं। हालांकि केंद्र सरकार ने एक अजीब शर्त रख कर थुप्स्तान को फिर से इस शीर्ष संस्था में शामिल करवा दिया है। पर स्थानीय लोग इसे सरकार के दबाव की नीति मान रहे हैं, यह बात थुप्स्तान को भी भटका रही है कि ‘वे लद्दाख के मुद्दे पर निर्भीकता से कायम रहेंगे या केंद्र की लाइन लेने पर बाध्य होंगे’, जो भी हो यह बात थुप्स्तान की अपनी स्वच्छ सार्वजनिक छवि के लिए एक बड़ी चुनौती बन गई है।
आप की परेशानी का सबब मेहराज
मेहराज मलिक का सियासी सफर कई अनसुलझी गुत्थियों से भरा है, पर एक दिन अचानक उन्होंने सबको विस्मित करते जम्मू-कश्मीर में आप का झाड़ू चला दिया और विधानसभा चुनाव जीत गए तो गद्गद् भाव से आम आदमी पार्टी ने भी इन्हें यकबयक अपनी जम्मू-कश्मीर इकाई का प्रमुख बना दिया। हैरत की बात तो यह कि मलिक के इस सियासी अभ्युदय से पहले उस प्रदेश में आम आदमी पार्टी को जानने वाले लोग भी ढूंढे नहीं मिल रहे थे। मलिक का सियासी सफर भी कई मायनों में दिलचस्प है, वे सबसे पहले चर्चा में तब आए जब उन्होंने बतौर निर्दलीय उम्मीदवार जिला विकास परिषद यानी डीडीसी के चुनाव में एक अप्रत्याशित जीत दर्ज करा ली। इसके बाद उन्होंने लगातार अपनी छवि एक बेबाक और आक्रामक जनप्रतिनिधि की बनाई। वे अक्सर जनता के मुद्दों को लेकर अधिकारियों से सीधा टकराव ले लेते थे, उनकी इसी अदा ने उन्हें लोगों और मीडिया में और भी लोकप्रिय बना दिया। पर उनकी यही अतिशय आक्रामकता तब हत्थे चढ़ गई जब उन्होंने अपने गृह जनपद डोडा के डीसी पर जन कल्याण परियोजनाओं को लागू न करने के आरोप लगाते हुए उनके खिलाफ अपशब्दों की बारिश कर दी। तब जाकर उन्हें सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम यानी पीएसए के तहत गिरफ्तार कर लिया गया।
इसके बाद ही सरकार व प्रशासन ने उनके अतीत को खंगालना शुरू कर दिया, इसी जांच के दौरान उनके कुछ पुराने वीडियो मिले जिनमें वे आतंकवादियों के समर्थन में विवादास्पद भाषण देते दिखे, सरकार फौरन हरकत में आई, मलिक को और नापने की तैयारियां शुरू हो गई, इस जांच ने आम आदमी पार्टी की पेशानियों पर बल ला दिए हैं, अब मलिक न तो उनसे निगलते बन रहे हैं और न ही उगलते।
बिहार में हाथ नहीं मलेगी कांग्रेस
क्या बिहार चुनाव राहुल गांधी का सियासी तारणहार बन सकता है? जिस तरह बिहारी जनता ने खास कर वहां के युवाओं ने राहुल गांधी की हालिया ‘वोटर अधिकार यात्रा’ को हाथों-हाथ लिया उससे नेता प्रतिपक्ष के हौसले बम-बम हैं। राहुल बिहार चुनाव से एक नई कांग्रेस के अभ्युदय की आहट देख रहे हैं। सो इस बार वहां के कांग्रेसी प्रत्याशी को टिकट पाने के लिए कई-कई स्क्रीनिंग के दौर से गुजरना पड़ रहा है। सबसे अहम रिपोर्ट तो राहुल अपने भरोसेमंद सुनील कानूगोलू की मान रहे हैं, इसके बाद राज्य कांग्रेस प्रभारी कृष्णा अल्लावरू की भी अपनी सिफारिशें हैं, फिर प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अनुमोदन है। यानी इस बार राहुल सिर्फ अजय माकन के नेतृत्व वाली स्क्रीनिंग कमेटी के अनुमोदन पर आंख मूंद कर भरोसा नहीं कर रहे हैं। वैसे अब तक कांग्रेस महागठबंधन में 70 सीटों की ही डिमांड कर रही है, पर सूत्रों का मानना है कि इस दफे कांग्रेस को 55 सीटों पर ही संतोष करना पड़ सकता है। क्योंकि पिछली बार 70 सीट लेकर भी कांग्रेस के सिर्फ 19 विधायक ही जीत पाए थे। वैसे प्रदेश कांग्रेस प्रमुख राजेश राम ने अपनी ओर से संभावित उम्मीदवारों की एक तैयार सूची दिल्ली भेज दी है, जिसमें एक सीट पर तीन दावेदारों के नाम भेजे गए हैं, फिलहाल यह लिस्ट राहुल गांधी और केंद्रीय स्क्रीनिंग कमेटी के पास है। इससे पहले राहुल पप्पू यादव के लिए भी सीमांचल की 5-7 सीटों की वकालत कर रहे थे, पर पिछले दिनों पूर्णिया एयरपोर्ट के उद्घाटन के मौके पर जिस तरह पूर्णिया के निर्दलीय सांसद पप्पू यादव को मंच पर हंस-हंस कर पीएम मोदी से बतियाते देखा गया, इस बात ने निश्चय ही राहुल के मन में भी संशय पैदा किया होगा कि ‘कहीं भाजपा पप्पू पर डोरे तो नहीं डाल रही?’
...और अंत में
सियासी खेल में कभी-कभी अपना प्यादा भी बिसात पर राजा के समक्ष शह-मात के उलझनों को दुरूह बना देता है, बिहार में संभवतः प्रशांत किशोर के मामले में भी यही हो रहा है। भाजपा का अपना एक जनमत सर्वेक्षण बता रहा है कि पीके लगातार राज्य के अपने सजातीय ब्राह्मण वोटर समेत अन्य अगड़े मसलन भूमिहार, ठाकुर व कायस्थ वोटरों पर अपना प्रभाव स्थापित करने में कामयाब हो रहे हैं, पर वे चाह कर भी मुस्लिम, दलित, ओबीसी व ईबीसी वोटरों को अपने पक्ष में गोलबंद नहीं कर पा रहे। जिन वोटरों को वे गोलबंद कर पा रहे हैं वे तो भाजपा के अपने ही परंपरागत वोटर हैं, इसीलिए पीके से गुजारिश की गई है कि ‘वे अपनी बदली रणनीति पर काम करें’, कहीं घर को ही न आग लग जाए, घर के चिराग से।