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‘मैं भारत का नागरिक हूं’

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10:25 PM Feb 24, 2018 IST | Desk Team

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‘मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं भारत का नागरिक हूं। मैं एक नागरिक के रूप में भारत की सामाजिक एकता व सहिष्णुता को बनाये रखने का प्रण लेता हूं। इसकी सांस्कृतिक व एेतिहासिक धरोहर मेरी बहुमूल्य थाति है।’ भारत के विभिन्न विद्यालयों में साठ के दशक के मध्य से प्रतिदिन शिक्षा सत्र शुरू होने से पहले प्रार्थना के बाद यह शपथ दिलाई जाती थी। सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह है कि यह पाकिस्तान के साथ 1965 में भारत के युद्ध के बाद का समय था। सभी विद्यालयों के सभी धर्मों के छात्र-छात्राएं इस शपथ को तन्मयता के साथ दोहराते थे। विद्यालय से ही राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समरसता की नींव इस प्रकार रखी जाती थी कि धर्मों का भेद-विभेद उसे छू तक न सके। इन विद्यालयों में भी उस समय भारत के भविष्य के नागरिक तैयार हो रहे थे। इन्हें भी ‘हमारे पूर्वज’ नाम की पुस्तक हिन्दी पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती थी जिसमें वैदिक काल से लेकर महाभारत काल तक के महापुरुषों की जीवन गाथा होती थी। इन्हें भी संस्कृत के पाठ्यक्रम में वेदों से लेकर गीता तक के श्लोकों का पाठन कराया जाता था।

आठवीं कक्षा तक प्रायः सभी छात्रों के लिए ये विषय अनिवार्य थे, परन्तु संस्कृत के स्थान पर उर्दू पढ़ने का भी विकल्प खुला रहता था। अतः प्रत्येक धर्म के छात्र में संस्कारी व नैतिकता के गुण स्वतः ही समा जाते थे, परन्तु संस्कृत एेसा विषय था जिसमें परीक्षा में इसके व्याकरण के बूते पर छात्रों को बहुत अच्छे नम्बर मिल जाते थे अतः बहुत से मेधावी मुस्लिम समुदाय के छात्र उर्दू के स्थान पर इसे पढ़ना बेहतर समझते थे, परन्तु यह उनके पाठ्यक्रम का हिस्सा था, जबर्दस्ती थोपा हुआ कोई नियम नहीं। विद्यालय की ओर से जो अनिवार्य था वह प्रार्थना के बाद की शपथ थी। यह शपथ भारत की विविधता को छात्र जीवन से ही अंगीकार करने की प्रेरणा देती थी और सभी धर्मों के छात्रों को एक ही तराजू पर रखकर तोलती थी और याद दिलाती थी कि भारत का प्रत्येक व्यक्ति सबसे पहले भारतीय है, बाद में हिन्दू या मुसलमान परन्तु इसके लिए कभी यह जरूरी नहीं समझा गया कि विद्यार्थियों को धार्मिक घेरे में बन्धे सांस्कृतिक प्रतिबिम्बों से बांधा जाए। शिक्षा के स्तर के बारे में सबसे महत्वपूर्ण यह होता है कि हम विद्यार्थियों को विभिन्न विषयों के ज्ञान में ही पारंगत न करें, बल्कि इस सबसे ऊपर बेहतर इंसान बनने में मदद करें।

शिक्षक की योग्यता इस बात से कभी तय नहीं हो सकती कि वह किसी मन्दिर में पुजारी की भूमिका निभा सकता है या नहीं बल्कि इस बात से तय होती है कि वह विद्यार्थियों को किस प्रकार सच्चरित्रता, सदाचार और प्रेम व भाईचारा बनाने की तरफ प्रेरित करके उनके मस्तिष्क को विशाल आकार देता है। यदि गायत्री मन्त्र के उच्चारण से ही विश्व में शान्ति स्थापित हो जाती तो क्यों दुनिया में विश्व युद्ध होते और क्यों भारत में 70 साल पहले हिन्दू-मुसलमान के नाम पर नये देश पाकिस्तान का उदय हुआ होता? भारत का संविधान स्पष्ट निर्देश देता है कि कोई भी सरकार नागरिकों में वैज्ञानिक नजरिये को बढ़ावा देने का कार्य करेगी। धर्म भारत में किसी भी नागरिक का व्यक्तिगत मामला है, वह अपनी आस्था और मान्यता के अनुसार निजी स्तर पर जैसे चाहे ईश वन्दना कर सकता है या समाज को बेहतर बनाने के लिए अपने मजहब के निर्देशों का पालन कर सकता है मगर किसी भी राज्य की सरकार का शिक्षामन्त्री यह नहीं कह सकता कि सभी विद्यालयों में भारतीयता के पाठ से ऊपर किसी भी मन्त्र या किसी दूसरे धर्म की प्रतिष्ठापना को ऊंचा दर्जा दिया जाएगा। विद्यालय किसी भी तौर पर धार्मिक पहचान स्थापित करने के केन्द्र नहीं बनाये जा सकते हैं। ये केवल सच्चे भारतीय पैदा करने के केन्द्र ही बन सकते हैं।

बिना शक हम मिलीजुली संस्कृति के प्रवाहक हैं और इस तरह हैं कि पूरी दुनिया हमारी इस विविधता पर रंजिश खाती है। हम उस देश के वासी हैं जिसके वैदिक ज्ञान को स्वयं मुस्लिम विद्वानों ने ही पश्चिम एशिया के देशों में पहुंचाया। शाहजहां के बड़े बेटे दारा शिकोह ने वेदान्त का अनुवाद अरबी व फारसी में करके भारत का नाम ऊंचा किया। यह भारत की संस्कृति है जिसका आकर्षण बिना किसी दबाव के लोगों में रहा है। धर्म हमारे लिए कभी भी सामाजिक बदलाव का औजार नहीं रहा बल्कि स्वयं को समाज के लिए अधिकाधिक उपयोगी बनाने का जरिया इस प्रकार रहा है कि इसके स्थूल भाव से सामाजिक समरसता जरा भी प्रभावित न होने पाए। इसके साथ ही यह बेसबब नहीं है कि भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक वर्ग के लोगों को अपने शिक्षण संस्थान खोलने की अनुमति दी गई जिससे वे अपने समुदाय के छात्रों को अपने धार्मिक संस्कार भी सिखा सकें।

ऐसा प्रावधान इन वर्गों को सुरक्षा देने की दृष्टि से हमारे संविधान निर्माताओं ने रखा था, परन्तु सरकारी या उसकी मदद से चलने वाले अथवा निजी स्कूलों के लिए किसी विशेष मान्यता में बन्धे होने की कोई बाध्यता नहीं रखी गई। इसका हमें तार्किक विश्लेषण करना चाहिए और फिर किसी नतीजे पर पहुंचना चाहिए। नतीजा यह निकलता है कि ये स्कूल सभी मत-मतान्तरों के मानने वालों का स्वागत करते हैं आैर भारत की विविधता को एकता प्रदान करने के प्रारंभिक औजार की तरह काम करते हैं। यह औजार उस महात्मा गांधी की हड्डियों से तैयार हुआ है जिसने कहा था कि ‘भारत के लोग ही मिलजुल कर नये भारत का निर्माण करेंगे। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे मन्दिर में जाते हैं या मस्जिद में जाते हैं। जहां सत्य है वहीं खुदा है और जहां अहिंसा है वहीं ईश्वर है’ और हकीकत यह भी है कि स्वयं गांधी ने ही सत्य व अहिंसा के प्रयोग करके उसका वैज्ञानिक निष्कर्ष निकाला था।

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