न किसी की आंख का नूर हूं, न किसी के दिल का क़रार
कितना है बदनसीब जफर दफ़न के लिए, दो गज ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में।"। यह गजल उस दर्द और हताशा को व्यक्त करती है जो उन्हें रंगून (म्यांमार) में निर्वासन में अपनी मृत्यु और भारत की जमीन में दफन होने की चाहत के साथ महसूस हुई थी और जिसमें उन्हें अमर कर दिया। आज भी और पहले भी मुशायरों के बड़े शौकीन थे लोग। मुगलिया दौर में शायरों की बड़ी चांदी हुआ करती थी। मिर्ज़ा ग़ालिब, मोमिन खान मोमिन, मुंशी मुहम्मद अली 'तिशना', मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली, शेख़ मुहम्मद इब्राहीम 'ज़ौक़', आग़ा जान 'ऐश', हाफ़िज़ ग़ुलाम रसूल 'शौक़', मुफ्ती सदृद्दीन आज़ुर्दा, दाग़ देहलवी, बाल मुकुंद हुज़ूर, हकीम सुखानंद 'रक़म' आदि जैसे बड़े नामचीन शायर हुआ करते थे। गंगा-जमुना तहज़ीब थी और उर्दू व फ़ारसी का चलन था। शहंशाह बहादुर शाह जफर के समय उर्दू लश्कर से निकल कर पूर्ण रूप से विकसित हो चुकी थी। उर्दू और फारसी के साथ हिंदी और संस्कृत का भी बोलबाला था। लाल किले का आखिरी मुशायरा 29 अक्तूबर 1851 को हुआ था और उस समय के शासन के लिए यह समय बड़ा ही संकीर्ण और दुविधापूर्ण समय था, क्योंकि फिरंगी अंग्रेजों ने भारत वासियों का जीना हराम कर रखा था। वे किसी भी प्रकार से भारत को गुलाम बनाना चाहते थे।
हुमायूं, अकबर, शाहजहां आदि के समय पर तो किसी की हिम्मत नहीं थी कि भारत को टेढ़ी आंख से देख ले, मगर बहादुर शाह जफर को कुछ अति खुराफ़ाती और देशद्रोही मीर जाफरों और जय चंदों के कारण बड़ी समस्याएं आई, जिसके कारण स्वयं एक चोटी का शायर होते हुए उन्हें लाल किले में आखरी मुशायरा करना पड़ा। एक ओर तो बहादुर शाह जफर का स्वास्थ्य गिर रहा था व अंग्रेज उन्हें उनके समय से पहले ही समाप्त करना चाह रहे थे और दूसरी ओर अपने ही परिवार में उनकी औलादें बटी हुईं थीं। इन सभी जटिल बातों का सफ़ल रूपांतरण अपने नाटक "लाल किले का आखिरी मुशायरा" में, दिल्ली में रंगमंच के शहंशाह, डॉ. सईद आलम ने किया है और जब भी यह नाटक दिल्ली, भारत या विदेश में होता है तो इसे देखने वाले लगभग ग़ैर उर्दू भाषाई और ग़ैर मुस्लिम ही होते हैं जो इस बात का प्रमाण भी है कि हमारी संस्कृति साझा विरासत और आपसी भाईचारे का प्रतीक है, ठीक इसी प्रकार जब दशहरे के दिनों में सवारी दिल्ली के चांदनी चौक, सीताराम बाज़ार, हौजक़ाज या अजमेरी गेट से निकलती है तो सैकड़ों की संख्या में बुर्कापोश, मुस्लिम महिलाएं अपने बच्चों के साथ न केवल सवारी देखती हैं, बल्कि उसके बाद अपने बच्चों के लिए श्री कृष्ण, अर्जुन, श्री राम, लक्ष्मण आदि के मुखौटे, तीर-कमान, तलवारें आदि खिलौने भी खरीदती हैं।
यही हमारी मिलीजुली संस्कृति है। वैसे भी अन्य नाटकों, जैसे, "रामायण", "महाभारत", "ग़ालिब इन दिल्ली", "मौलाना आज़ाद", "चाचा छक्कन" आदि नाटकों का संचालन करते रहते हैं आलम और इस बात की बड़ी हैरानी होती है कि एक हजार से एक सौ रुपए के टिकटों में भी हॉल सदा ही हाउसफुल रहता है। एक अन्य खास बात यह कि इनके सभी पात्र बड़े अच्छे घरों से आते हैं और प्रोफेशनली बड़े स्थानों में कार्यरत हैं दिल में उर्दू तहज़ीब व उर्दू भाषा से इतना प्यार है कि अब वे उर्दू के गैर उर्दू झंडा बरदार भी हैं, जिस प्रकार से एक पंजाबी को ठेठ बिहारी भाषा में निपुण कर दिया और एक बिहारी को ठेठ पंजाबी भाषा में परफेक्ट पात्र बना दिया, यह सईद का ही कमाल है, जिसे हम, "मिर्ज़ा ग़ालिब इन दिल्ली" और "चाचा छक्कन" में ही देख सकते हैं। इसी प्रकार से "महाभारत" और "रामायण" के रूपांतरण में उन्होंने हिंदी और संस्कृत के सभी घोड़े खोल दिए। सच है, रंगमंच की दुनिया का अलग ही आनंद है। "मौलाना आज़ाद" सईद आलम के अनुसार उनके रंगमंच जीवन का सब से सफल नाटक है, क्योंकि उसमें उन्होंने विश्व प्रख्यात एक्टर टॉम ऑल्टर को मौलाना आज़ाद वाली उर्दू सिखा कर एक अजूबा कर दिया है।
यही नहीं, किस प्रकार से पंडित नेहरू ने भारत के विभाजन में प्रथम प्रधानमंत्री बनने के लिए सरदार पटेल का हक मारा था, टॉम ऑल्टर के आज़ाद के किरदार द्वारा बख़ूबी दर्शाया है। "लाल किले का आखिरी मुशायरा" में बहादुर शाह जफर की बदनसीबी और शायरों की कमनसीबी के अनेकों शेर हैं, जैसे, "लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में ! कह दो उन हसरतों से कहीं और जा बसें। "आज न उर्दू की न वे महफिलें हैं और न ही वे पुराने मुशायरे सिवाय" डीसीएम मुशायरा", "मुशायरा जश्न-ए-बहार" और "उर्दू एकेडमी मुशायरा", मगर कहीं न कहीं आलम की शक्ल में आज भी उर्दू की लौ सांस ले रही है! क्या खूब कहा है, ज़ौक़ ने दलाई हयात आए, क़ज़ा के चली चले, अपनी खुशी न आए, न अपनी ख़ुशी चले!"