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आई इन द स्काई

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11:35 PM Jan 12, 2018 IST | Desk Team

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भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान यानी इसरो ने नया इतिहास रचते हुए अपने 100वें पीएसएलवी शृंखला के सैटेलाइट कार्टोसेट-2 को लांच कर अंतरिक्ष में अपना शतक पूरा कर लिया है। इसके साथ ही 30 अन्य उपग्रह भी लांच किए गए। यह लांचिंग भारत के लिए इसलिए भी खास है क्योंकि इससे पहले पीएसएलवी-39 मिशन फेल हो गया था। भारतीय वैज्ञानिकों ने एक बार फिर इसकी मरम्मत करके फिर से लांचिंग की, एक असफल मिशन की मरम्मत करके फिर से लांच करना बहुत जोखिम भरा और चुनौतीपूर्ण होता है। कार्टोसेट-2 बेहद सटीक और गुणवत्तापूर्ण तस्वीरें भेजने में कारगर साबित होगा ​जिसकी मदद से भारत सीमाओं पर होने वाली हरकतों पर भी पैनी नज़र रख सकता है। यह एक अर्थ इमेजिंग उपग्रह है जो कि सीमाओं पर नज़र रखने में मदद करेगा। भारत की नज़र चीन और पाकिस्तान की नापाक हरकताें पर रहेगी। पाक के आतंकी ठिकानों पर भी उसकी पैनी नज़र रहेगी। फिल्मी संवाद याद आ रहा है-
उस सरहद को कोई छू नहीं सकता
जिस सरहद की निगेहबान हों आंखें
इस लांचिंग को आई इन द स्काई का नाम दिया गया, इसके साथ ही भारत अंतरिक्ष में छा गया है। सीमाओं पर हमारी आंखें सतर्क रहेंगी तो फिर हमारे सैन्य बल त्वरित कार्रवाई कर सकेंगे। इसके अलावा यह उपग्रह तटवर्ती इलाकों, शहरी और ग्रामीण क्षेत्र, सड़कों आैर जल वितरण आदि की भी निगरानी करेगा। पाकिस्तान तो इसरो की शानदार उपलब्धि पर बौखला उठा है आैर उसने कहना शुरू कर दिया है कि इससे सैन्य संतुलन बिगड़ जाएगा। एक साथ कई उपग्रह लांच करना इसरो की नई उपलब्धि नहीं है। इससे पहले भी वह ऐसा कर चुका है। आखिर क्या वजह है कि अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और दक्षिण कोरिया की सैटेलाइट कंपनियां लांचिंग को लेकर इसरो पर भरोसा करने लगी हैं। इसमें सबसे अहम है लागत का कम होना। इसरो के पास लांच करने की सस्ती तकनीक है। इसकी लागत नासा या किसी अन्य अंतरिक्ष एजैंसी की अपेक्षा बहुत कम है।

एक उपग्रह की लांचिंग के लिए इसरो बेहद कम कीमत लेता है। अनुमान के मुताबिक यह राशि 700 करोड़ के लगभग है जबकि अमेरिकी एजैंसी नासा सहित दुनिया की स्पेस एजैंसियां इसके लिए भारी-भरकम राशि लेती हैं। इसके अतिरिक्त जो पक्ष मजबूत है वह यह है कि कसी भी तरह की गड़बड़ की आशंका पर गैर-कानूनी ढंग से प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की संभावना नहीं है। भारत का ट्रेक रिकार्ड इतना बेहतर है। वह एक ऐसा देश बन चुका है जिस पर दुनिया भरोसा करती है। नई कंपनियां व्यावसायिक तौर पर कई सैटेलाइट साथ छोड़ने की योजना बना रही हैं। इस दौर में भारत को इस व्यवसाय में समय सीमा के भीतर कई कामयाब लांचिंग से फायदा मिल रहा है। विदेश से सैटेलाइट लांच कर पाना अब भी बहुत आसान नहीं है, सरकारी उपग्रह एजैंसी के राकेट से विदेशी व्यावसायिक उपग्रह भेजने की प्रक्रिया काफी जटिल है, इसके नियम, समझौते आैर कानून जैसी कई अड़चनें हैं, इसके अलावा वैज्ञानिकों को अब दूसरे देश की स्पेस एजैंसियों से ही नहीं, बल्कि स्पेस एक्स जैसी प्राइवेट कंपनियों से भी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। चंद्रयान से लेकर मंगलयान तक, अंतरिक्ष कार्यक्रम में भारत को जैसी सफलता मिली है, वैसी कामयाबी हम दूसरे क्षेत्रों में क्यों हासिल नहीं कर पाते? यह अहम प्रश्न है।

हमें रक्षा अनुसंधान में वह सफलता नहीं मिली जिसकी अपेक्षा की जाती है। हम रक्षा जरूरतों को पूरी करने के लिए आयात पर निर्भर हैं। यह सवाल भी हमें पूछना चाहिए कि ऐसा क्यों है कि भारत में रहकर विज्ञान का नोबेल पुरस्कार जीतने वाले एकमात्र वैज्ञानिक सी.बी. रमन को यह पुरस्कार आजादी से पहले मिला था। आजादी के बाद जिन भारतीय वैज्ञानिकों को यह पुरस्कार मिला, उन सबने विदेश में रहकर काम किया। जगदीश चंद्र बोस आैर सत्येन बोस जैसे वैज्ञानिक जो नोबेल पुरस्कार के हकदार थे, वे भी आजादी से पहले ही हुए। भारत के स्वर्गीय राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, जो मिसाइल मैन के नाम से प्रसिद्ध हुए, की प्रतिभा का कोई सानी नहीं। अंतरिक्ष में भारत की कोई सैन्य महत्वाकांक्षा नहीं रही लेकिन समय के साथ-साथ भारत को खुद बदलना होगा क्योंकि चुनौतियां पहले से कहीं अधिक हैं। इसरो का सफर बैलगाड़ी से शुरू हुआ था, कभी सोचा भी नहीं था कि भारत इस क्षेत्र में रूस, अमेरिका, चीन आदि को पछाड़ देगा। इसरो की यात्रा की शुरूआत अंतरिक्ष कार्यक्रमों के जनक माने गए डा. विक्रम ए. साराभाई की सूझबूझ से हुई थी। अब भारत के पास अपना जीपीएस सिस्टम है। हमारे पास बेहतर संचार प्रणाली है। मौसम की सटीक जानकारी देने वाला तंत्र है। यह सब इसरो के वैज्ञानिकों के कारण हुआ है। इसरो की सफलता पर एक बार फिर वैज्ञानिकों को बधाई।

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