'आरक्षित सीटें नहीं मिलीं तो चुनाव...', इलेक्शन से पहले यूनुस सरकार को हिंदुओं का अल्टीमेटम
बांग्लादेश में आम चुनाव से पहले कई तरह की सियासी हलचल देखने को मिल रही है. इस बीच अब अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय ने यूनुस सरकार से साफ शब्दों में कह दिया है कि जब तक उन्हें संसद में आरक्षित सीटें और अलग चुनाव प्रणाली नहीं मिलती, वे राष्ट्रीय चुनावों में हिस्सा नहीं लेंगे. यह चेतावनी ढाका के नेशनल प्रेस क्लब के सामने आयोजित एक मानव श्रृंखला और विरोध सभा में दी गई.
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, बांग्लादेश नेशनल हिंदू महासभा के नेताओं का कहना है कि हर बार का चुनाव उनके लिए पीड़ा का कारण बन जाता है. जब तक संसद में उनके लिए आरक्षित सीटों की व्यवस्था नहीं होती, तब तक हिंदू समुदाय की कोई भी राजनीतिक भागीदारी नहीं बन पाती. उन्होंने आरोप लगाया कि इसकी वजह से उनके साथ सामाजिक और धार्मिक स्तर पर लंबे समय से अत्याचार हो रहा है.
अगर मांगें नहीं मानी तो मतदान का करेंगे बहिष्कार
हिंदू महासभा ने चेतावनी दी कि अगर सरकार ने जल्द ही उनकी मांगों को स्वीकार नहीं किया, तो हिंदू समुदाय न केवल मतदान का बहिष्कार करेगा, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया से भी खुद को अलग कर लेगा. उनका मानना है कि बिना राजनीतिक भागीदारी के कोई भी अल्पसंख्यक समुदाय अपने अधिकारों की रक्षा नहीं कर सकता.
अत्याचार और झूठे आरोपों का विरोध
विरोध सभा में हिंदू महासभा के अध्यक्ष दिनबंधु रॉय, कार्यकारी अध्यक्ष प्रदीप कुमार पाल, महासचिव गोविंद चंद्र प्रमाणिक समेत कई वरिष्ठ नेता शामिल हुए. वक्ताओं ने लालमोनिरहाट जिले में परेश चंद्र शील और विष्णुपद शील की गिरफ्तारी की कड़ी आलोचना की, जिन पर धर्म के अपमान का झूठा आरोप लगाया गया था. उन्होंने इसे धार्मिक अल्पसंख्यकों पर बढ़ते अत्याचार का उदाहरण बताया.
मंदिरों पर हमले और संपत्ति की लूट का आरोप
वक्ताओं ने सभा में बताया कि हिंदू मंदिरों की तोड़फोड़, घरों पर हमले, महिलाओं के साथ हिंसा, जबरन धर्मांतरण और जमीन कब्जा करने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं. उन्होंने दावा किया कि "दुश्मन संपत्ति कानून" के तहत करीब 26 लाख एकड़ जमीन हिंदू समुदाय से जब्त की जा चुकी है. इसके अलावा, ढाका सहित अन्य शहरों में कई मंदिरों और धार्मिक संपत्तियों को गैरकानूनी ढंग से कब्जा लिया गया है.
आजादी के बाद भी नहीं मिला समान अधिकार
हिंदू महासभा के नेताओं ने कहा कि बांग्लादेश की आजादी के समय लोगों को उम्मीद थी कि हर धर्म को बराबरी का अधिकार मिलेगा, लेकिन वास्तविकता यह है कि संवैधानिक बदलावों से लेकर प्रशासनिक ढांचे तक, हिंदू समुदाय की कहीं भी कोई भागीदारी नहीं है. उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि संविधान में जो भी बदलाव होते हैं, उनमें उनकी राय नहीं ली जाती.