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भारत की निष्पक्ष न्यायपालिका

भारत के ​प्रधान न्यायाधीश श्री एन.वी. रमण ने यह कह कर, देश के उन सभी ‘बयान बहादुरों’ को भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था की संवैधानिक स्थिति का भान कराने का प्रयास किया है कि न्यायप्रणाली केवल संविधान के प्रति ही जवाबदेह है।

01:24 AM Jul 04, 2022 IST | Aditya Chopra

भारत के ​प्रधान न्यायाधीश श्री एन.वी. रमण ने यह कह कर, देश के उन सभी ‘बयान बहादुरों’ को भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था की संवैधानिक स्थिति का भान कराने का प्रयास किया है कि न्यायप्रणाली केवल संविधान के प्रति ही जवाबदेह है।

भारत की निष्पक्ष न्यायपालिका

भारत के ​प्रधान न्यायाधीश श्री एन.वी. रमण ने यह कह कर, देश के उन सभी ‘बयान बहादुरों’ को भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था की संवैधानिक स्थिति का भान कराने का प्रयास किया है कि न्यायप्रणाली केवल संविधान के प्रति ही जवाबदेह है। श्री रमण अमेरिका सान फ्रांसिस्को में अमेरिकी- भारतीय एसोसियेशन द्वारा आयोजित एक समारोह को सम्बोधित कर रहे थे। श्री रमण का यह कहना कि भारत में कुछ ताकतें न्यायपालिका को ‘नीचा’ दिखाने की कोशिश कर रही हैं, जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। सर्वप्रथम विचार करने वाली बात यह है कि भारत की आजादी के बाद हमारे संविधान निर्माता पुरखों ने न्यायपालिका को सरकार का ‘अंग’ क्यों नहीं बनाया? बिना शक भारत का लोकतन्त्र तीन स्तम्भों विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका पर टिका हुआ है परन्तु इनमें से न्यायपालिका का रुतबा सरकार से पृथक ‘स्वतन्त्र’ इसीलिए रखा गया जिससे भारत की राजनैतिक प्रशासनिक प्रणाली केवल और केवल संविधान का पालन करते हुए ही चले।
बहुराजनैतिक दलों की प्रशासन व्यवस्था में यह प्रावधान इसलिए जरूरी था क्योंकि केन्द्र से लेकर विभिन्न राज्यों में किसी भी राजनैतिक दल की सरकार सत्ता पर काबिज हो सकती है। इन राजनैतिक दलों की विचारधाराएं अलग-अलग हो सकती हैं, जिससे प्रशासन व्यवस्था के प्रभावित रहने की संभावना भी पैदा हो सकती है। इसी विसंगति को पैदा होने से रोकने के लिए यह व्यवस्था की गई कि किसी भी पार्टी की सरकार केवल संविधान के अनुसार ही शासन चलायेगी। शासन की इन गतिविधियों की समीक्षा करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय को इस प्रकार दिया गया कि वह तसदीक कर सके कि सरकार का कोई भी फैसला संविधान की कसौटी पर खरा उतरता है अथवा नहीं। हर पांच साल में बदलने वाली सरकार की नीतियां अलग-अलग हो सकती हैं मगर उनका लक्ष्य लोक कल्याण ही हो सकता है। सर्वोच्च न्यायालय नीति के मामले में कभी दखल नहीं देता है बल्कि वह इन नीतियों के लागू होने में होने वाली अनियमितताओं की समीक्षा करने का अधिकार रखता है। इसके बावजूद हमारे संविधान में तीनों ही स्तम्भों के अधिकार क्षेत्रों में ऐसा  महीन बंटवारा किया हुआ है जिससे कोई भी एक-दूसरे के क्षेत्र में अतिक्रमण न कर सके।
न्यायपालिका का किसी भी मुद्दे पर राजनीतिक समर्थन या विरोध से कोई लेना-देना नहीं होता। वह केवल उस मामले को संविधान पर कस कर ही अपना फैसला देती है। अतः न्यायालय द्वारा दिये गये फैसलों का जनमत से भी दूर-दूर तक का कोई मतलब नहीं हो सकता। स्वतन्त्र न्यायपालिका किसी भी सरकार की हां में हां भी नहीं मिला सकती क्योंकि उसे केवल संविधान की नजर से ही हर विषय की समीक्षा करनी होती है अतः राजनैतिक दलों द्वारा उसके फैसले का समर्थन या विरोध करना भी कोई मायने नहीं रखता। राजनैतिक दल अपनी सुविधा के अनुसार अपना-अपना मत प्रकट करते रहते हैं। मगर इस मत का भी सर्वोच्च न्यायालय की नजर में कोई महत्व नहीं होता क्योंकि उसे केवल संविधान के ‘मत’ की ही परवाह करनी होती है। यही वजह है कि सर्वोच्च न्यायालय कभी-कभी संसद द्वारा पारित कानून को भी ‘अवैध’  घोषित कर देता है। इसकी वजह यही रहती है कि विशिष्ट कानून संविधान की कसौटी पर खरा नहीं उतर पाता। यह बात दूसरी है कि संसद पुनः अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए संविधान संशोधन के माध्यम से उसी कानून को पुनर्स्थापित कर दे। यह संसद का अधिकार है। मगर श्री रमण का दुख यह भी है कि उन्हें भारत में विरोधी ताकतों के मुखर होने से समावेशी राष्ट्रीय विकास में अवरोध नजर आ रहा है। भारत की तरह ही अमेरिकी समाज में भी विविधता है मगर यह आज पूरी दुनिया में विश्व के हर नागरिक को निजी विकास करने के समान अवसर उपलब्ध कराने का नेतृत्व संभाले हुए है जिससे इसका अपना विकास चहुंमुखी विकास हुआ है। इसकी वजह यही है कि इसने एक समान रूप से अपने विविधीकृत समाज के लोगों व विश्व के प्रतिभाशाली नागरिकों की मेधा का लाभ उठाते हुए खुद का विकास किया है, जिसे समावेशी विकास ही कहा जा सकता है। अतः श्री रमण के अनुसार भारत में भी समावेशी विकास के लिए जरूरी है कि विविध समाज में सहयोग के बिन्दुओं को तलाश कर हर वर्ग के लोगों की प्रतिभा का इस्तेमाल करते हुए विकास के पथ पर बढ़ा जाये न कि टकराव पर बल दिया जाये। मगर यह भी सत्य है कि हर देश की सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक परिस्थितियां अलग-अलग होती हैं अतः अमेरिका का सिद्धान्त भारत जैसे विविध सांस्कृतिक देश पर भी लागू हो यह जरूरी नहीं है। अमेरिका में अभी तक भी रंगभेद के आधार पर भेदभाव की खबरें आती रहती हैं। भारत की समस्या दूसरी है। इसमें धार्मिक कट्टरवाद की समस्या आजकल सतह पर चल रही है जिसे देखते हुए सरकारों को आवश्यक दम उठाने ही होंगे। परन्तु श्री रमण का यह कहना पूरी तरह उचित  और संविधान सम्मत है कि न्यायपालिका केवल संविधान के प्रति ही जिम्मेदार या जवाबदेह होती है। इसे शक्ति भी संविधान से ही सीधे मिलती है जिसमें किसी भी पार्टी की सरकार की कोई भूमिका नहीं होती।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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