W3Schools
For the best experience, open
https://m.punjabkesari.com
on your mobile browser.
Advertisement

भारत की स्वतन्त्र न्यायपालिका

भारत की न्यायप्रणाली अपनी निष्पक्षता व स्वतन्त्रता में दुनिया भर के लोकतान्त्रिक देशों के बीच ऐसा जीता-जागता दस्तावेज रही है जिसका अनुसरण करते हुए नव स्वतन्त्र देशों ने अपने-अपने यहां ऐसी व्यवस्था कायम करने के प्रयास किये हैं।

01:03 AM Nov 07, 2022 IST | Aditya Chopra

भारत की न्यायप्रणाली अपनी निष्पक्षता व स्वतन्त्रता में दुनिया भर के लोकतान्त्रिक देशों के बीच ऐसा जीता-जागता दस्तावेज रही है जिसका अनुसरण करते हुए नव स्वतन्त्र देशों ने अपने-अपने यहां ऐसी व्यवस्था कायम करने के प्रयास किये हैं।

भारत की स्वतन्त्र न्यायपालिका
भारत की न्यायप्रणाली अपनी निष्पक्षता व स्वतन्त्रता में दुनिया भर के लोकतान्त्रिक देशों के बीच ऐसा जीता-जागता दस्तावेज रही है जिसका अनुसरण करते हुए नव स्वतन्त्र देशों ने अपने-अपने यहां ऐसी व्यवस्था कायम करने के प्रयास किये हैं। भारत के संविधान निर्माताओं ने विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका का जो ढांचा भारतीय लोकतन्त्र को दिया उसमें न्यायपालिका को सरकार का हिस्सा नहीं बनाया और इसे भारत की राजनैतिक दलगत प्रशासन व्यवस्था में तटस्थ रखते हुए यह तय किया कि किसी भी दल के हाथ में सत्ता आने के बावजूद केवल संविधान का शासन ही रहे। यह संविधान का शासन ही भारतीय लोकतन्त्र की प्राण वायु है जिसे लेकर सभी राजनैतिक दल सत्ता में आने पर मर्यादित व संवैधानिक कर्त्तव्य बोध से बंधे रहते हैं। संविधान स्पष्ट करता है कि भारत का सर्वोच्च न्यायालय कानून की व्याख्या करेगा औऱ इसी संविधान के मूलभूत ढांचे से बाहर बनाये गये किसी भी कानून की वैधता को परखेंगे और जरूरत पड़ने पर उसे निरस्त भी कर देगा। मगर ऊंची अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर भारत में पिछले तीन दशक से विवाद चल रहा है।
Advertisement
न्यायाधीशों की नियुक्तियों में यदि राजनैतिक हस्तक्षेप होता है तो यह समूची न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को प्रभावित किये बिना नहीं रह सकता। अतः सर्वोच्च न्यायालय ने ही 90 के दशक में फैसला किया था कि इन नियुक्तियों को न्यायाधीशों का एक निर्वाचन मंडल (कॉलेजियम) ही तय करे। न्यायपालिका की इससे बड़ी निष्पक्षता और स्वतन्त्रता का प्रमाण दूसरा नहीं हो सकता कि आम जनता को न्याय देने वाले न्यायाधीश ही स्वयं तय करें कि अदालतों में न्यायाधीश कौन बनना चाहिए। इस व्यवस्था में सरकारी हस्तक्षेप होते ही न्यायप्रणाली में राजनीति का प्रवेश हो सकता है जिसे देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने ही 2015 में न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून को अवैध करार दे दिया था। न्यायाधीश निर्वाचन मंडल या कॉलेजियम की प्रणाली पूरी तरह पारदर्शी है और संभावित न्यायाधीशों की नियुक्ति से पहले उनके पुराने रिकार्ड की जांच सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा ही की जाती है व अन्य जांच में देश की एजेंसियों की सेवा ली जाती है। अतः न्यायालयों में राजनीति का प्रवेश रोकने के लिए जरूरी समझा गया कि संविधान की भावना के अनुरूप न्यायपालिका को पूरी तरह स्वतन्त्र रखा जायेगा। यहां यह बात समझने वाली है कि भारत के लोकतन्त्र में सत्ता में आने वाली पार्टियां हर पांच साल बाद बदल सकती हैं, जिनका नजरिया एक-दूसरे से भिन्न होता है मगर अकेली न्यायपालिका ही एेसी आधारशिला है जिसके नजरिया केवल संविधान की भाषा बोलता है। अतः भारत के लोकतन्त्र में न्यायपालिका एक स्थिरांक (कांस्टेंट) का काम करती है जो राजनैतिक बदलाव से निरपेक्ष रहती है। उसकी यही निरपेक्षता भारतीय लोकतन्त्र की सबसे बड़ी ताकत है जो संविधान के शासन की गारंटी देती है। यह गारंटी तभी रह सकती है जबकि न्यायपालिका न्यायाधीशों की नियुक्तियों के बारे में भी पूरी तरह स्वतन्त्र हो और उसका यह फैसला सभी प्रकार के सन्देह से परे हो।
भारत की जनता जो लोकतन्त्र की मालिक है, उसकी श्रद्धा व विश्वास न्यायपालिका में शुरू से ही अटूट रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि आजादी के 75 वर्षों के दौरान (केवल इमरजेंसी को छोड़ कर ) न्यायपालिका हर दौर में लोगों के विश्वास पर खरी उतरी है। हम देख चुके हैं कि 1974 के दौर में किस प्रकार इमरजेंसी लगने से पहले सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति को लेकर बावेला मचा था और चार न्यायाधीशों ने इसके विरोध में त्यागपत्र तक दे दिया था। वह स्व. इंदिरा गांधी का दौर था जिसमें उन्होंने वरीयता लांघते हुए एक कनिष्ठ न्यायाधीश श्री अजीतनाथ राय को मुख्य न्यायाधीश पुरानी परम्पराएं तोड़ते हुए बना दिया था। उसी दौरान इन्दिरा जी ने यह भी कह दिया था कि न्यायाधीशों को अपने फैसले सरकार की नीतियां देखते हुए देने चाहिए। उस समय इसकी चारों तरफ से कस कर आलोचना हुई थी। अतः कानून मन्त्री श्री किरेन रिजिजू को इस तरफ भी ध्यान देना चाहिए और कॉलेजियम प्रणाली की समीक्षा भी इसी के अनुरूप करनी चाहिए। जहां तक न्यायालयों द्वारा कार्यपालिका की भूमिका यदा-कदा निभाये जाने पर उठने वाले विवादों की है तो बड़ा ही स्पष्ट है कि संविधान में बहुत स्पष्टता के साथ तीनों अंगों विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका के कामों में बंटवारा है, बेशक यह बहुत महीन है, मगर दृष्टिगोचर है। हालांकि कालान्तर में एेसे मौके भी आये हैं जब न्यायपालिका कार्यपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप करती लगी है। इसे स्व. प्रधानमन्त्री श्री चन्द्रशेखर ने न्यायपालिका की अति सक्रियता कहा था और संसद में भी इस बारे में चेतावनी दी थी। मगर इस अति सक्रियता के भी ठोस कारण होते हैं, खास कर तब जब राजनैतिक नेतृत्व जन समस्याओं और कठिनाइयों पर बेखबर रहता है।
भारत के महान लोकतन्त्र में केवल यह देखना है कि न्यायपालिका हर सूरत में संविधान निर्माताओं द्वारा बनाई गई व्यवस्था के तहत स्वतन्त्र बनी रहे और यह सरकार का हिस्सा किसी भी सूरत में न बनने पाये। भारत के न्यायाधीशों की न्यायप्रियता सन्देहों से परे रही है औऱ यह उस धर्म को निभाती रही है जिसके तहत संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति को मुख्य न्यायाधीश पद की शपथ दिलाते हैं और राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश को पद की शपथ दिलाते हैं। जहां तक किसी सुनवाई के दौरान न्यायाधीशों द्वारा की जाने वाली टिप्पणियों का सवाल है तो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता न्यायालयों से ही निकलती है। भारत की जनता तो अपने न्यायाधीशों की टिप्पणियों को बहुत ऊंचे पैमाने पर रख कर इस तरह देखती है,
Advertisement
‘‘देखना तकरीर की लज्जत कि जो उसने कहा 
मैंने ये जाना कि गोया ये भी मेरे दिल में है।’’ 
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
Advertisement W3Schools
Author Image

Aditya Chopra

View all posts

Aditya Chopra is well known for his phenomenal viral articles.

Advertisement
×