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उत्तर प्रदेश में इंडिया गठबन्धन

02:32 AM Feb 23, 2024 IST | Aditya Chopra

उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों पर इंडिया गठबन्धन के घटक दल समाजवादी पार्टी से कांग्रेस का समझौता आखिरकार हो ही गया। इसे लेकर पिछले लम्बे अर्से से दोनों पार्टियों के बीच खींचतान चल रही थी। परन्तु अन्त समय में कांग्रेस महासचिव श्रीमती प्रियंका गांधी के हस्तक्षेप से यह समझौता हो सका। इससे यह आभास होता है कि प्रियंका गांधी मौजूदा समय की चुनौतियों को समझने में सक्षम हैं और जानती हैं कि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में भाजपा का मुकाबले करने के लिए विपक्षी दलों की मजबूत एकता की जरूरत है। राज्य में कांग्रेस 17 सीटों पर चुनाव लड़ेगी और शेष 63 सीटें सपा के खाते में जायेगी। कांग्रेस के हिस्से में मथुरा, बुलन्दशहर, सहारनपुर, अमरोहा, गाजियाबाद , सीतापुर, बाराबंकी, रायबरेली, अमेठी, महाराजगंज, कानपुर, फतेहपुर सीकरी, इलाहाबाद, बनारस, झांसी व देवरिया आदि सीटें आयी हैं। ये सीटें उत्तर प्रदेश के सभी इलाकों का प्रतिनिधित्व करती हैं। अतः कहा जा सकता है कि सीट बंटवारा पूरी ईमानदारी के साथ किया गया है। हालांकि कांग्रेस को अपेक्षा से कम सीटें दी गई हैं।
इंडिया गठबन्धन से राष्ट्रीय लोकदल के अलग हो जाने और भाजपा के खेमे में जाने के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश का राजनैतिक समीकरण इंडिया गठबन्धन के नजरिये से जिस तरह गड़बड़ाया है और पलड़ा भाजपा के पक्ष में झुका हुआ दिख रहा है उसे यह सीट बंटवारा किस तरह सन्तुलित कर पायेगा, यह देखने वाली बात होगी। मगर चुनाव लोकसभा के हो रहे हैं और राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के विमर्श के मुकाबले कांग्रेस का विमर्श ही चल सकता है अतः समाजवादी पार्टी को भी केवल जातिगत समीकरणों से ऊपर जाकर सोचना पड़ेगा क्योंकि मतदाताओं की बुद्धिमत्ता पर शक करने की कोई वजह नहीं है। कांग्रेस व सपा को मिलकर एक मत से उस विमर्श को पकड़ना होगा जो कांग्रेस भाजपा के खिलाफ खड़ा कर रही है। श्री राहुल गांधी की न्याय यात्रा आजकल उत्तर प्रदेश में ही चल रही है अतः सपा प्रमुख अखिलेश यादव को इसमें शामिल होकर लोगों को सन्देश देना पड़ेगा कि दोनों पार्टियों का लक्ष्य एक ही है। वैसे सपा और कांग्रेस के नेता क्रमशः अखिलेश यादव और राहुल गांधी जो राजनैतिक विरासत थामे हुए हैं उसका विमर्श सांझा ही रहा है और वह धर्मनिरपेक्षता व समावेशी सामाजिक विकास के साथ पिछड़ों व दलितों के उत्थान का है। इस मोर्चे पर राहुल गांधी जिस जनगणना के कराये जाने की बात कर रहे हैं वह इसी विमर्श की उपज है जबकि इसके विरोध में भाजपा का विमर्श प्रखर राष्ट्रवाद व हिन्दुत्व का है। परन्तु भाजपा के हिन्दुत्व के विमर्श में जिस तरह पिछड़े शामिल हुए हैं उससे राज्य की राजनीति में गुणात्मक परिवर्तन आया है और पिछड़ा समाज ही गैर जाट व गैर यादवों समेत कथित संभ्रान्त ग्रामीण जातियों से अलग से चिन्हित होने लगा है।
लोकसभा चुनावों में इन्हीं पिछड़ों को अपने-अपने खेमों में लाने की लड़ाई भी होती नजर आयेगी। इसके साथ ही राज्य के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ की कुशल प्रशासक की छवि भी विपक्षी इंडिया गठबन्धन की राह में कांटे बिछाने का काम करेगी क्योंकि समाजवादी पार्टी के शासन के दौरान अखिलेश बाबू की सरकार की सबसे तीखी आलोचना कानून-व्यवस्था को लेकर ही होती थी। योगी जी ने अपनी सरकार की छवि को पूरी तरह इसके उलट बनाने में कामयाबी हासिल की है। मगर भाजपा लोकसभा चुनाव अपने प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता और अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण से उपजी हिन्दू धारा के बलबूते पर जीतने का प्रयास करेगी जिसका जवाब अखिलेश व राहुल गांधी की जोड़ी को जल्दी ही ढूंढना होगा। कांग्रेस के साथ इन चुनावों में अल्पसंख्यक वर्ग आंख बन्द करके खड़ा नजर आ रहा है जबकि पिछड़ों में अगड़ा कहे जाने वाला वर्ग अखिलेश यादव के साथ माना जा रहा है। परन्तु विजय के लिए यह समीकरण काफी नहीं है क्योंकि राज्य का 18 प्रतिशत दलित मतदाता अभी भी भ्रम की स्थिति में है।
पिछले विधानसभा चुनावों में इसके पचास प्रतिशत मतदाता भाजपा के साथ चले गये थे। बसपा नेता मायावती राज्य में इस दलित वर्ग की मसीहा मानी जाती हैं मगर पिछले विधानसभा चुनाव में उनकी शक्ति इतनी क्षीण हो गई कि उनकी पार्टी केवल एक ही विधायक चुनवा सकी। जबकि इससे पहले हुए लोकसभा चुनावों में बसपा के दस सांसद चुने गये थे परन्तु तब मायावती और अखिलेश बाबू में गठबन्धन था। मायावती अब अकेले चुनाव लड़कर कहीं न कहीं भाजपा की ही मदद करेंगी। मगर उत्तर प्रदेश के मतदाता राष्ट्रीय चुनावों में भी क्या यही जातिगत व वर्ग गत समीकरण देख कर वोट देंगे? यह बात देखने वाली होगी। फिलहाल प्रियंका गांधी ने सपा व कांग्रेस का गठबन्धन बनवा कर जमीन पर होने वाली लड़ाई को बहुत दिलचस्प बना दिया है। इसके साथ ही उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में कांग्रेस व सपा जमीन से जुड़े महंगाई व बेरोजगारी जैसे मुद्दों को किस अन्दाज से उठा पाते हैं, यह भविष्य ही बतायेगा। मगर इतना निश्चत है कि राज्य की 80 सीटों के नतीजे ही दिल्ली की गद्दी का फैसला करेंगे।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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