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भारत, अमेरिका और चीन

भारत-चीन सम्बन्धों को लेकर आम भारतीयों में यह बात पूरी तरह स्पष्ट है कि इस बारे में देश की किसी भी सरकार ने कभी भी किसी तीसरे देश के हस्तक्षेप या मदद के बिना ही आपसी विवादों के हल के लिए तन्त्र विकसित किया है।

12:59 AM Jun 10, 2022 IST | Aditya Chopra

भारत-चीन सम्बन्धों को लेकर आम भारतीयों में यह बात पूरी तरह स्पष्ट है कि इस बारे में देश की किसी भी सरकार ने कभी भी किसी तीसरे देश के हस्तक्षेप या मदद के बिना ही आपसी विवादों के हल के लिए तन्त्र विकसित किया है।

भारत-चीन सम्बन्धों को लेकर आम भारतीयों में यह बात पूरी तरह स्पष्ट है कि इस बारे में देश की किसी भी सरकार ने कभी भी किसी तीसरे देश के हस्तक्षेप या मदद के बिना ही आपसी विवादों के हल के लिए तन्त्र विकसित किया है। भारत का शुरू से ही पंचशील के सिद्धान्तों में पूर्ण विश्वास रहा है और वह इन्हीं सिद्धान्तों के दायरे में चीन को लाकर विवादों का हल खोजने का प्रयास करता रहा है। बेशक चीन ने 1962 में इस सिद्धान्त की धज्जियां उड़ाते हुए भारत पर आक्रमण किया था और भारत की 38 हजार वर्ग किलोमीटर भूमि पर कब्जा भी कर लिया था परन्तु इतिहास साक्षी है कि इस मुद्दे पर चीन राष्ट्रसंघ में अकेला पड़ गया था और 1962 में असम के तेजपुर तक आयी उसकी सेनाओं को वापस लौटना पड़ा था। इस घटना के बाद भी चीनी नेताओं के ‘सैनिक दिमाग’ में कोई खास परिवर्तन नहीं आया और उसकी विदेश व रक्षा नीति का हिस्सा ‘विस्तारवाद’ बना रहा परन्तु 1962 के बाद से चीन ने दोनों देशाें के बीच चलते सीमा विवाद की वजह से अतिक्रमण की नीति पर चलना शुरू किया। सीमा रेखा के बारे में ‘अवधारणा’  का भ्रम बता कर कई बार भारतीय क्षेत्रों में प्रवेश किया मगर हर बार भारत के रणबांकुरों ने उसके प्रयासों को असफल कर दिया। विगत जून 2020 में चीन ने अपनी सामरिक व आर्थिक शक्ति की धौंस में जिस तरह तिब्बत की सीमा पर भारतीय क्षेत्र में अतिक्रमण करके पूरी नियन्त्रण रेखा को ही बदलना चाहा उसका जवाब भारतीय सेना ने इस प्रकार दिया कि चीनी सेनाओं को वापस अपने पूर्व स्थान पर जाने के लिए विवश होना पड़ा परन्तु कई मोर्चों पर अभी भी चीन अपनी धौंस जमाना चाहता है बल्कि नियन्त्रण रेखा के निकट ही भारी सैन्य जमावड़ा और आधारभूत सैनिक सुविधाएं खड़ी करने में लगा हुआ है। जिसका जवाब रक्षामन्त्री श्री राजनाथ सिंह अपने सैनिक अधिकारियों की विशेषज्ञ सेवाएं लेकर लगातार दे रहे हैं और भारत की सेना हमारी सीमा की रक्षा में रात-दिन लगी हुई है परन्तु भारत की यात्रा पर आये अमेरिकी सेना के प्रशान्त क्षेत्र के जनरल चार्ल्स ए फ्लिन ने भारत-चीन सीमा पर तनाव का जिस तरह संज्ञान लेते हुए और नियन्त्रण रेखा पर चीनी आधारभूत सैनिक निर्माण की गतिविधियों पर जिस तरह चिन्ता प्रकट की है उससे भारत को प्रभावित करने की मंशा प्रकट होती है जिसके पीछे अमेरिकी हथियारों के लिए भारतीय बाजार ढूंढने की नीयत झलकती है। 
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सर्वप्रथम यह समझा जाना चाहिए कि भारत अपनी सीमाओं की रक्षा करने में पूर्णतः समर्थ है और वह कूटनीतिक रास्तों से ही हर समस्या का हल चाहता है। हिन्द-प्रशान्त महासागर क्षेत्र में चीन नौसेना की जो भी अपना वर्चस्व कायम करने की गतिविधियां हैं उनका मुकाबला भारत हिन्द महासागर क्षेत्र को युद्ध का अखाड़ा बना कर नहीं करना चाहता बल्कि उसकी नीति यह है कि इस क्षेत्र में पूरी तरह शान्ति बनी रहे और यह महासागरीय क्षेत्र विश्व के अन्य देशों के व्यापार के लिए भी बेरोकटोक खुला रहे। चार देशों अमेरिका ,आस्ट्रेलिया, जापान व भारत के बने गुट ‘क्वाड’ में शामिल होने का अर्थ चीन से युद्ध करने का नहीं बल्कि इस क्षेत्र में भारत की महत्वपूर्ण भौगोलिक व विश्व राजनीतिक भूमिका का रेखांकन है। इसका परोक्ष अर्थ यह भी है कि चीन किसी भी रूप में एक पक्षीय कार्रवाई करके समुद्री वाणिज्यक मार्गों पर एकाधिकार नहीं जमा सकता।
भारत के अमेरिका के साथ भी बहुत मधुर सम्बन्ध हैं और सैन्य सहयोग भी है परन्तु अमेरिका इस बहाने भारत का प्रयोग चीन के खिलाफ अपना हिसाब-किताब बराबर करने के लिए नहीं कर सकता। भारत की वर्तमान मोदी सरकार भी जानती है कि चीन के साथ उसकी सीमाएं छह स्थानों पर लगती हैं और वह उसका एेसा पड़ोसी है जो दूसरे बिगड़ैल पड़ोसी पाकिस्तान की मदद कर रहा है। अतः मौजूदा सरकार अपनी नीति इन सब तथ्यों का संज्ञान गंभीरता से ले रही है और समयानुसार चीन के इरादे तोड़ने की रणनीति भी बना रही है। इसमें अमेरिका को अपनी फौजी नीति चलाने की जरूरत नहीं है। रूस व यूक्रेन युद्ध होने पर अमेरिका ने किस तरह भारत को अपने पक्ष में लेने का अभियान चलाया था । इससे पूरा देश वाकिफ है मगर मोदी सरकार ने हर बार एेसे किसी भी प्रयास को बहुत चतुराई से असफल कर दिया और अमेरिका से भारत यात्रा पर आये राजनयिकों व कूटनीतिकों से भारतीय पक्ष का लोहा मनवाया। 
अमेरिका की चीन से पारम्परिक रंजिश का निपटारा भारत के कन्धे पर बन्दूक रख कर नहीं किया जा सकता बल्कि इसके उलट भारत इस मामले में एतिहासिक भूमिका जरूर निभा सकता है। इसका मतलब यही है कि अमेरिका को भारत की जरूरत है न कि भारत को अमेरिका की। चीन के साथ सीमा विवाद हल करने के लिए जो उच्च स्तरीय वार्ता तन्त्र पिछले डेढ़ दशक से बना हुआ है उसके कार्य करने की धीमी गति वास्तव में शोचनीय है मगर इसका मतलब यह नहीं कि कोई तीसरा देश दोनों देशों के सम्बन्धों के बीच अपनी टांग फंसाने की कोशिश करने लगे। सीमा पर चीनी आधारभूत निर्माण का संज्ञान तो 2005 में तत्कालीन रक्षामन्त्री स्व. प्रणव मुखर्जी ने तभी ले लिया था जब वह चीन की यात्रा पर गये थे और बीजिंग से लौटते ही उन्होंने भारत के सीमा भाग में आधारभूत ढांचा सुदृढ़ करने के आदेश दिये थे और कई नई सड़क व अन्य परियोजनाएं शुरू कराई थीं। अतः अमेरिका को इस बारे में ज्यादा ‘दुबला’ होने की जरूरत नहीं है। 
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