लाॅकडाऊन की निराशा तोड़ कर आगे बढ़ता भारत
कोरोना संकट से निपटने के लिए लागू लाॅकडाऊन ने हमें उन समस्याओं में ‘लाक’ कर डाला है जिनकी अपेक्षा किन्हीं भी परिस्थितियों में संभवतः किसी भी भारतीय को नहीं थी।
12:01 AM Jun 05, 2020 IST | Aditya Chopra
कोरोना संकट से निपटने के लिए लागू लाॅकडाऊन ने हमें उन समस्याओं में ‘लाक’ कर डाला है जिनकी अपेक्षा किन्हीं भी परिस्थितियों में संभवतः किसी भी भारतीय को नहीं थी। हमारी अर्थव्यवस्था चरमरा चुकी है, बेरोजगारी बढ़ चुकी है, गांवों की तरफ शहरों से उल्टा पलायन होने की वजह से भुखमरी के हालात पैदा होने की आशंका पैदा होती जा रही है और कोरोना मामलों के लगातार बढ़ने की वजह से राज्यों समेत देश के चिकित्सा तन्त्र की असलियत इस तरह सामने आ रही है कि दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के ही 480 कर्मचारी इस संक्रमण से ग्रसित पाये गये हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर चीन हमें आंखें दिखा रहा है और अमेरिका इस अवसर का लाभ उठाते हुए हमारी रक्षा और विदेश नीति को प्रभावित करना चाहता है मगर सबसे बड़ा खतरा आन्तरिक मोर्चे पर आर्थिक रफ्तार के रुक जाने से पैदा हो रहा है क्योंकि लाॅकडाऊन ने मध्यम व लघु क्षेत्र की उत्पादन इकाइयों के रक्त को चूस लिया है और बड़े उद्योगों को उत्पादन धीमा रखने का पैगाम दे दिया है। हम अंधेरे में लाठी घुमा कर इस समस्या को हल करना चाहते हैं और सोचते हैं कि मंजिल को पा ही लेंगे।
तर्क दिया जा रहा है कि 24 मार्च को कोरोना पीड़ितों की संख्या छह सौ से भी कम होने पर राष्ट्रीय स्तर पर लाॅकडाऊन लागू करना इटली, फ्रांस, अमेरिका जैसे देशों में फैली इस महामारी के प्रकोप से प्रभावित होकर बिना पूर्वी देशों जैसे मलेशिया, इंडोनेशिया या फिलीपींस की तरफ देखे ही किया गया एेसा फैसला था जिसे लेने से पहले भविष्य के बारे में गंभीरता से विचार नहीं किया गया था। एेसे अचानक लाॅकडाऊन से न जान बच सकी और न ही जहान बच सका क्योंकि अब कोरोना संक्रमितों की संख्या दो लाख से ऊपर हो चुकी है। प्रख्यात उद्योगपति राहुल बजाज की एेसी ही सोच है जो कि भारत की आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी के साथ कदम मिला कर चलने वाले जमनालाल बजाज के प्रपौत्र हैं। उनकी राय में लाॅकडाऊन एक कड़ा कदम था जिसने पूरे भारत की सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था को चौपट कर डाला परन्तु इसके विरोध में भी तर्क बहुत दमदार है कि आम जनता को महामारी से बचाने के लिए सरकार द्वारा उठाया कदम न तो दमनकारी था और न जन विरोधी था क्योंकि इसमें आम हिन्दोस्तानी को संक्रमण से बचाने की इच्छा शक्ति छिपी हुई थी।
यह बात जरूर गौर करने वाली है कि इसे लागू करते समय पूर्वी व दक्षिण एशिया के दूसरे देशों द्वारा उठाये गये एहतियाती कदमों की तरफ नहीं देखा गया और न ही रोजगार से महरूम होने वाले लोगों खास तौर पर रोज कमा कर खाने वाले लोगों के लिए पहले से ही कोई राष्ट्रीय योजना बनाई गई और न ही लाॅकडाऊन से बाहर आने की समन्वित व समावेशी नीति तैयार की गई। इस पर बहस हो सकती है कि लाॅकडाऊन अवधि में आर्थिक संशोधनों के लागू करने का क्या अर्थ हो सकता है? क्योंकि प्रथम वरीयता अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की होनी चाहिए। इस मामले में कृषि सुधारों की बात की जानी चाहिए और पेट्रोलियम क्षेत्र को इसके विपरीत खड़ा हुआ देखा जाना चाहिए। लाॅकडाऊन समय में भी पेट्रोल व डीजल पर सरकार ने उत्पाद शुल्क इस तरह बढ़ा दिया कि एक लीटर पेट्रोल पर उपभोक्ता से सरकार 32 रुपए केवल शुल्क के रूप में वसूल कर रही है। दूसरी तरफ कृषि क्षेत्र को बाजार की शक्तियों के हवाले करने का इसने फैसला कर लिया है। ये दोनों परस्पर विरोधाभासी हैं।
कृषि क्षेत्र के बारे में इतना स्पष्ट रूप से समझ लिया जाना चाहिए कि भारत की भारी गरीब जनसंख्या को देखते हुए इस पर बाजार के आपूर्ति और सप्लाई के नियम लागू करके न तो किसान को बाजार की दया पर छोड़ा जा सकता है और न ही गरीब व मजदूर को। जबकि पेट्रोल के मामले में यह प्रणाली पूरी तरह कारगर है क्योंकि डीजल व पेट्रोल जीवन मूलक सामग्री न होकर उत्पादन मूलक सामग्री है। भारत में ठेके पर (कांट्रेक्ट फार्मिंग) खेती का मतलब है कि बड़े उद्योग घरानों को किसानों की जमीन की फसल विविधता और उत्पादकता की चाबी दे देना लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि हम आर्थिक भूमंडलीकरण के दौर में संरक्षणवादी अर्थव्यवस्था के दौर को वापस लाने की कोशिश में टैक्नोलोजी की दौड़ में पिछड़ जायेंगे और विश्व प्रतियोगिता से बाहर हो जायेंगे। आर्थिक मोर्चे पर यह दौर सिमटने का नहीं बल्कि टेक्नोलोजी नवोचार से सस्ते व बढि़या उत्पाद बना कर विश्व बाजार में छाने का है। हम इस दौर को उपभोक्तावादी दौर कहते हैं और इस दौर में किफायती कीमत पर गुणवत्ता का उत्पाद ही बाजार में टिक सकता है और विश्व व्यापार संगठन का सदस्य होने के नाते हम उसके नियमों से बंधे हुए हैं।
जाहिर है कि भारत ने इसी व्यापार तन्त्र के तहत 1991 से अपनी तरक्की का रास्ता तय किया है और इस तरह तय किया है कि औषधि व आयुष के क्षेत्र में आज यह विश्व का अग्रणी देश है जो कोरोना काल में अमेरिका जैसे देश को औषधियों का निर्यात कर रहा है। यह सब 1995 में पेटेंट कानून पर हस्ताक्षर करने के बाद ही हुआ। अतः हमें यथार्थ पर अपना विकास करना है और लाॅकडाऊन से हतोत्साहित लोगों में स्फूर्ति पैदा करनी है।
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