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अनुच्छेद 370 के भारतीय समर्थक !

जम्मू-कश्मीर राज्य से अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के सरकार के फैसले के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में जिस तरह थोक में याचिकाएं दाखिल की गई हैं।

03:48 AM Oct 03, 2019 IST | Ashwini Chopra

जम्मू-कश्मीर राज्य से अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के सरकार के फैसले के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में जिस तरह थोक में याचिकाएं दाखिल की गई हैं।

अनुच्छेद 370 के  भारतीय समर्थक
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जम्मू-कश्मीर राज्य से अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के सरकार के फैसले के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में जिस तरह थोक में याचिकाएं दाखिल की गई हैं उनसे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि भारत के भीतर ही एक ऐसा समूह है जो भारतीय संघ की राज्यगत समुच्य एकता को एक समान स्वरूप से देखने का विरोधी है। इस समूह में अधिकतर वे लोग हैं जो स्वयं को निजी स्वतन्त्रता और संविधानगत प्रदत्त मौलिक अधिकारों के अलम्बरदार कहते हैं और राष्ट्रभक्ति की परिभाषा भौगोलिक एकता के निरपेक्ष गढ़ते हैं।
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बेशक कोई भी राष्ट्र इसके लोगों से ही बनता है मगर वे आधारभूत रूप से यह तथ्य नजरन्दाज कर देते हैं कि राष्ट्र की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी लोगों की ही होती है क्योंकि उनसे ही किसी भी देश की फौज का निर्माण होता है जिसका दायित्व सीमाओं की चौकसी करना होता है। अतः अनुच्छेद 370 को लगातार जारी रखने के पक्ष में खड़े लोग न केवल जम्मू-कश्मीर के लोगों के भारतीय संघ की मिश्रित व्यवस्था में अन्तर्निहित विविधतापूर्ण पहचानों के एकाकार होने का विरोध कर रहे हैं बल्कि इस राज्य के लोगों को मिलने वाले संवैधानिक मौलिक अधिकारों का भी विरोध कर रहे हैं। इनमें सबसे बड़ा अधिकार सभी नागरिकों के ‘समानाधिकारों’ और गैर-बराबरी के निर्मूलीकरण का है।
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जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन का कानून संसद ने पारित किया है जिससे इस राज्य को मिला वह विशेषाधिकार समाप्त हो गया है जिसके तहत इसका अपना अलग संविधान था। यह संविधान  भारत के संविधान के भीतर अपने कानूनों को लागू करने का काम इस तरह करता था कि कश्मीरी नागरिकों के मूल अधिकार भारत के नागरिकों के मूल अधिकारों से अलग रहें। यहां तक कि भारत का फौजदारी कानून भी इस राज्य के लोगों पर लागू नहीं होता था और वे 1861 के करीब बने ‘रणबीर सजा जाब्ता कानून’ के दायरे में आते थे। यह कानून इस रियासत के उस दौर में रहे महाराजा रणबीर सिंह के शासनकाल में बनाया गया था।
दरअसल 370 परोक्ष रूप से इस राज्य के नागरिकों को दोहरी नागरिकता का आभास कराती रहती थी जिसकी वजह से पाकिस्तान को इस राज्य में अपना मजहबी एजेंडा चलाने में कुछ अलगाववादी तत्वों ने मदद दी और उन्होंने इस अनुच्छेद को कश्मीरी पहचान बनाने की हर चन्द कोशिश की जबकि हकीकतन कश्मीर की पहचान भारतीय संघ का हिस्सा होने के बाद ही महफूज रह सकी वरना 1947 में बने पाकिस्तान ने इसे तभी नेस्तनाबूद कर दिया होता जब उसने कबायली हमले कराकर अपनी फौज की मदद से कश्मीर घाटी के उस दो तिहाई हिस्से को अपने कब्जे में लिया था जिसे हम ‘पाक अधिकृत कश्मीर’ कहते हैं।
संविधान में वह पूरा जम्मू-कश्मीर भारतीय संघ का अभिन्न अंग है जो 26 अक्टूबर तक महाराजा हरिसिंह की रियासत का भाग था। जाहिर है इसमें पाक अधिकृत कश्मीर भी शामिल था जिसके हिस्से की 24 सीटें जम्मू-कश्मीर विधानसभा में खाली पड़ी रहती थीं। ऐसी व्यवस्था जम्मू-कश्मीर संविधान के तहत ही थी जिसे 370 के तहत भारत का संविधान मान्यता देता था। अतः अब इस अनुच्छेद के समाप्त हो जाने पर पाक अधिकृत कश्मीर भी उस केन्द्र प्रशासित जम्मू-कश्मीर का अंग हो जायेगा जो आगामी 31 अक्टूबर को अस्तित्व में आयेगा। इस दिन से लद्दाख अलग केन्द्र शासित क्षेत्र होगा।
अतः अब पाकिस्तान के साथ सीधे केन्द्र की सरकार को उसके कब्जे में दबे हुए कश्मीर पर दो टूक वार्ता करने का हक बिना किसी रोक-टोक या औपचारिकता के होगा। 370 को लेकर पाकिस्तान जिस तरह बिफर कर बौखला रहा है उसका मुख्य कारण यह है कि भविष्य में कश्मीर में उसके पाले हुए अलगाववादी गुर्गों की कोई भूमिका नहीं होगी। अतः रक्षामन्त्री राजनाथ सिंह का बार-बार यह कहना महज सियासी शगूफा नहीं है कि अब पाकिस्तान से बात होगी तो केवल उसके द्वारा कब्जाये गये कश्मीर पर ही होगी मगर भारत के भीतर ही नागरिक स्वतन्त्रता के अलम्बरदार  बने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका पर याचिका दायर करने वाले लोग जिस तरह 370 को हटाने का विरोध कर रहे हैं उन्हें इसी न्यायालय के न्यायमूर्तियों के इस आकलन को भी याद रखना चाहिए कि ‘निजी स्वतन्त्रता और राष्ट्रीय सुरक्षा’ में सन्तुलन रहना चाहिए।
आखिरकार किस जुर्रत और ताब के साथ राष्ट्रसंघ के मंच पर खड़े होकर पाकिस्तान के वजीरे आजम इमरान खान ने भारत को धमकी दी थी कि कश्मीर से प्रतिबन्ध हटते ही वहां ‘खून की नदियां’ बह जायेंगी। भारत की सरकार ने आम कश्मीरी अवाम से छीना क्या है ? बल्कि वास्तविकता यह है कि यहां की अवाम को उल्टे संवैधानिक मूल अधिकारों से सम्पन्न किया है। हां, इस राज्य के उन सियासतदानों  और अलगाववादी तंजीमों के सरपराहों को जरूर तकलीफ होगी जो 370 के नाम पर अपनी रोजी-रोटी चलाकर अपनी मिल्कियत बढ़ा रहे थे और अपनी औलादों को अवाम की किस्मत लिखने वाले रहनुमाओं के तौर पर पेश कर रहे थे।
चाहे नेशनल कान्फ्रेंस के नेता हों या पीडीपी के, दोनों ने ही कश्मीरियों को 370 के नाम पर भूखा-नंगा बनाये रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी और ‘पत्थरबाजी’ को एक उद्योग में पनपाने में पूरी ताकत लगा दी। याद कीजिये पत्थरबाजी की घटनाएं तब शुरू हुई थीं जब जनाब उमर अब्दुल्ला इस रियासत के मुख्यमन्त्री थे और फौज के सिपाहियों को पेड़ से बांध कर पीटने की वारदातें तब शुरू हुई थीं जब मरहूम मुफ्ती सईद पहली बार वजीरे आल्हा बने थे। फौज के खिलाफ नफरत फैलाने को ही सियासत का हिस्सा बना दिया गया! बेशक मुफ्ती साहब की पीडीपी के साथ ही भाजपा ने मिलकर कुछ अर्से तक सरकार भी चलाई मगर 370 को समाप्त करने का फैसला भी तो इस तजुर्बे के बाद ही किया! मसले हल करने के लिए कभी दुश्मन के दर की चौखट भी देखनी पड़ती है।
जाना पड़ा रकीब के दर पर हजार बार
ए काश जानता न तेरी रहगुजर को मैं 
है क्या जो कसके बांधिये मेरी बला डरे 
क्या जानता नहीं हूं तुम्हारी कमर को मैं 
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Ashwini Chopra

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