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भारत की बगराम रणनीति

04:45 AM Oct 09, 2025 IST | Aditya Chopra
पंजाब केसरी के डायरेक्टर आदित्य नारायण चोपड़ा

आज के दौर में समीकरण बदलते देर नहीं लगती। कूटनीति में धुर विरोधी दोस्त हो जाते हैं और पक्के दोस्त दुश्मन हो जाते हैं। भारत, चीन और पाकिस्तान के बीच बहुत कुछ ऐसा हो रहा है जो अप्रत्याशित है। अप्रत्याशित घटनाक्रम के लिए जिम्मेदार हैं अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प। ट्रम्प के मनमाने रवैये को देखते हुए भारत ने एक ऐसा कदम उठाया है जिसकी अमेरिका कल्पना भी नहीं कर सकता। मोदी सरकार ने ट्रम्प की दादागिरि का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए अपनी रणनीति में बदलाव कर लिया है। जिसका परिणाम मास्को फार्मेट की बैठक में दिखाई ​ दिया। मुद्दा था अफगानिस्तान का वो बगराम एयरबेस जो कभी अमेरिका के सैन्य अड्डे के तौर पर चर्चा में था। कुछ दिन पहले ट्रम्प ने अफगानिस्तान में सत्तारूढ़ तालिबान से बगराम एयरबेस वापिस मांगा था और धमकी दी थी कि अगर बगराम हवाई अड्डा अमेरिका को वापिस नहीं किया गया तो अफगानिस्तान के लिए बहुत बुरा होगा। तालिबान ने ट्रम्प की मांग को ठुकरा दिया था और साफ कहा था कि अफगानिस्तान किसी भी हालत में अपनी जमीन अमेरिका को नहीं सौंपेगा। बगराम एयरबेस दुनिया के सबसे बड़े एयरबेसों में से एक है और वह चीन के परमाणु हथियार बनाने के स्थान से एक घंटे की दूरी पर है। ट्रम्प इस एयरबेस को दोबारा हासिल कर चीन के प्रभाव को बेअसर करना चाहते हैं।
वैसे सच यही है कि बगराम वास्तव में 20 साल तक अमेरिकी सेना के बेस का केंद्र था। 9/11 को ट्विन टावर्स पर आतंकी हमले के बाद जब अमेरिकी सेना अलकायदा और उसके साथ-साथ तालिबान के खिलाफ जंग कर रही थी, तब अमेरिकी ऑपरेशन का संचालन बगराम से ही हो रहा था। हालांकि, बगराम एयरबेस का मूल निर्माता सोवियत संघ था, 1950 के दशक में काबुल में राजशाही के दौरान जाहिर शाह के शासन में इसका निर्माण हुआ था। 1980 के दशक में ही सोवियत संघ ने अफगानिस्तान से पीछे हटने का फैसला किया। 2001 में अमेरिका के 'आतंकवाद के खिलाफ युद्ध' अभियान की शुरूआत के बाद बगराम एयरबेस अफगानिस्तान में उसकी सैन्य शक्ति का केंद्रीय स्थल बन गया। हालांकि बगराम को वापस हासिल करना सिर्फ ट्रम्प के इस स्वयं घोषित दृष्टिकोण के बारे में नहीं है कि इस कदम के जरिए चीन के खतरे से निपटा जाए। ये उन व्यापक क्षेत्रीय चुनौतियों को भी सामने लाता है जो अगस्त 2021 से चल रही हैं। अगस्त 2021 में तत्कालीन राष्ट्रपति जो बाइडेन के शासनकाल में बगराम से बहुत ही नाटकीय और अराजक परिस्थितियों में अमेरिकी सेना की वापसी का आयोजन किया गया था। 30 अगस्त, 2021 को अमेरिका का आखिरी सैनिक अमेरिकी वायुसेना के सी-17 परिवहन विमान से स्वदेश रवाना हुआ। ये वही समय था जब अफगानिस्तान को दोबारा तालिबान के हाथों सौंप दिया गया। अमेरिका सेना ने अफगानिस्तान में करीब दो दशक लंबा युद्ध लड़ा लेकिन ये जंग किसी निर्णायक मुकाम तक नहीं पहुंची।
मास्को फार्मेट की बैठक में हुए अचानक घटनाक्रम में भारत ने भी तालिबान, पाकिस्तान, चीन और रूस के साथ मिलकर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के बगराम एयरबेस पर कब्जा करने के प्रयास का विरोध किया। यह घटना तालिबान शासित अफगानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर खान मुल्ताकी की भारत यात्रा से कुछ दिन पहले हुआ है। मास्को फार्मेट के संयुक्त बयान में कहा गया है कि अफगानिस्तान और पड़ोसी राज्यों में अमेरिका द्वारा सैन्य बुनियादी ढांचे को हासिल करने के प्रयास अस्वीकार्य है क्योंकि यह क्षेत्रीय शांति और स्थिरता के लिए खतरा है। ट्रम्प की जिद के खिलाफ भारत, पाकिस्तान, तालिबान, चीन और रूस एकजुट हो गए हैं। ट्रम्प को साफ-साफ कह दिया गया है कि बगराम एयरबेस पर कब्जा करने का सपना मत देखें।
अफगानिस्तान या उसके पड़ोसी देशों में कोई विदेशी सैन्य बेस बनाना बर्दाश्त नहीं होगा। यह एक ऐतिहासिक कदम है। खासकर भारत की नजर से देखें तो। क्योंकि भारत ने पहली बार इतने खुले तौर पर अमेरिका का विरोध किया है। वो भी तालिबान विदेश मंत्री की भारत यात्रा से ठीक पहले। यानी भारत ने अब साफ संदेश दुनिया को दे दिया है। यह नया भारत है, जहां उसे गलत लगेगा खुलकर बोलेगा। भारत तालिबान के विदेश मंत्री की मेजबानी की तैयारी कर रहा है और उसने अमेरिकी राष्ट्रपति की योजना का विरोध करके एक दुर्लभ कदम उठाया है। हालांकि भारत ने अभी तक तालिबान शासित अफगानिस्तान को आधिकारिक मान्यता नहीं दी है लेकिन वह मानवीय और विकास कार्यों में सहायता प्रदान करता रहा है। अब, दिलचस्प बात यह है कि मुत्ताकी की पहली भारत यात्रा से पहले जो किसी तालिबान विदेश मंत्री के लिए ऐतिहासिक पहली यात्रा है। इसके पहले भारत भी ट्रम्प की योजना का विरोध करने में शामिल हो गया है।
भारत और अफगानिस्तान के संबंध वैदिक युग से ही हैं क्योंकि गांधार कभी भारत का हिस्सा ही माना जाता था। भारत ने अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भले ही भारत ने तालिबान को मान्यता नहीं दी है लेकिन भारत ने हमेशा अफगानिस्तान काे मानवीय आधार पर सहायता दी है। सड़कें, बांध, स्कूल, अस्पताल और संसद भवन भारत ने ही बनाकर दिए हैं। तालिबान शासन के बावजूद भारत ने खाद्यान्न, दवाइयां, भूकम्प सहायता, कोविड वैक्सीन और अन्य जरूरी सामग्री भेजकर उसे मानवीय सहायता प्रदान की है। तालिबान को भी इस बात का अहसास है कि भारत से दूरी बनाए रखना व्यावहारिक नहीं है और भारत भी अपने हितों की रक्षा के लिए तालिबान से संबंधों का इच्छुक है।

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