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भारत-नेपाल सम्बन्ध पटरी पर

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08:10 AM Aug 28, 2017 IST | Desk Team

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भारत और नेपाल पड़ोसी देश नहीं हैं बल्कि इनका सम्बन्ध सदियों पुराना है जो इन्हें सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और धार्मिक रूप से जोड़ता है। नेपाल से भारत का रिश्ता रोटी और बेटी का है। सदियों से इस रिश्ते की परम्परा को दोनों देशों ने निभाया है। भारत-नेपाल के बीच कोई सामरिक समझौता नहीं लेकिन नेपाल पर किए गए किसी भी आक्रमण को भारत बर्दाश्त नहीं कर सकता। 1950 से लेकर अब तक नेपाल में जो भी समस्याएं आईं, भारत ने उनको अपना माना और मात्र साथ दिया। हालांकि दोनों देशों के रिश्तों में उतार-चढ़ाव आते रहे हैं। इसके बावजूद परम्परा का सम्मान दोनों देशों के सम्बन्धों में हमेशा मिठास घोलता रहा है।

भारत-नेपाल सम्बन्धों की शुरुआत 1950 की मैत्री और शान्ति संधि के साथ हुई थी। यह संधि दोनों देशों के बीच व्यापारिक गठजोड़ को भी बढ़ाती रही। वर्ष 1951 में जब नेपाल में राजनीतिक विवाद गहराया तो महाराजा त्रिभुवन दिल्ली पहुंचे थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने मध्यस्थता करते हुए उन्हें पूरा सहयोग दिया था। यह वह समय था जब नेपाल ने भारत से सैनिक सहायता की मांग की। सेना और प्रशासन के पुनर्गठन के लिए सहयोग मांगा था। भारत ने नेपाल को हर तरह की सहायता देकर वहां स्थायित्व लाने का प्रयास किया। तब से लेकर अब तक भारत में जितनी सरकारें आईं, सबका रुख नेपाल को लेकर सहयोगात्मक रहा।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नेपाल की यात्रा कर सम्बन्धों को नई दिशा देने की कोशिश की। नेपाल में आये विनाशकारी भूकम्प में भारत की मदद को नेपाल कभी भूल नहीं सकता लेकिन नेपाल में नया संविधान लागू किए जाने के बाद मधेसियों को दोयम दर्जे के नागरिक का दर्जा देने के मुद्दे पर दोनों के रिश्तों में कड़वाहट जरूर आई जो अब धीरे-धीरे खत्म हो रही है। मधेसियों के मुद्दे पर संविधान संशोधन किया जाना है जिससे उन्हें पूरे अधिकार मिल जाएंगे। पिछले कई वर्षों से चीन नेपाल पर प्रभाव जमाने की कोशिश कर रहा है। नेपाल में राजशाही के विरुद्ध आन्दोलन को चीन ने ही हवा दी। माओवादी आन्दोलनकारियों को हथियार और धन उपलब्ध कराया। सनï् 2008 में राजशाही समाप्त होने के बाद नेपाल में लोकशाही का प्रारम्भ तो हुआ लेकिन संविधान सशक्त समावेशी और त्रुटिरहित नहीं बन पाया। राजनीतिक अस्थिरता बनी रही। तब से लेकर नेपाल 10 प्रधानमंत्री देख चुका है।

भारत चाहता है कि नेपाल में लोकतन्त्र अपने पांव पर खड़ा हो जबकि चीन का लक्ष्य अपने उद्योग व्यापार का विस्तार करना है। जब मधेसी आन्दोलन के कारण नाकाबन्दी हुई तो भारत से नेपाल को रसद और ईंधन तेल की आपूर्ति के सारे मार्ग बन्द हो गए। दोनों देशों में कड़वाहट बढ़ी तो चीन और पाकिस्तान ने भरपूर फायदा उठाने के लिए ओली सरकार को काफी प्रलोभन भी दिए। तेल की आपूर्ति भी शुरू की। नेपाल में चीन समर्थक राजनेताओं का धड़ा हमेशा भारत पर नेपाल के अन्दरूनी मामलों में हस्तक्षेप का आरोप लगाता रहा है। नेपाल की अर्थव्यवस्था पूरी तरह भारत पर निर्भर है। उद्योग-धंधे नगण्य हैं। विकास की गति शून्य है। भारत में लगभग 50 लाख नागरिक काम करते हैं। भारत और नेपाल स्वभाविक मित्र हैं जबकि चीन जबरन उसका दोस्त बन रहा है। नेपाल के प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा ने प्रधानमंत्री पद सम्भालने के बाद पहला विदेश दौरा भारत का करके सम्बन्धों को सहज बनाने की दिशा में अहम कदम बढ़ाया है। भारत की चिन्ता यही है कि नेपाल में भारत विरोधी गतिविधियों के अड्डïे नहीं बने। चीन से डोकलाम विवाद के बीच शेर बहादुर देउबा का भारत आगमन काफी महत्व रखता है।

नेपाल में चीन का प्रभाव बढऩे देना रणनीतिक भूल होगी इसलिए यह जरूरी था कि जिन वजहों से नेपाल चीन की तरफ आकर्षित हो रहा है, उसकी भरपाई भारत करे। शेर बहादुर देउबा ने यह भरोसा दिलाया है कि नेपाल की जमीन का इस्तेमाल भारत के हितों के खिलाफ नहीं होने देंगे। भारत और नेपाल में 8 समझौते हुए। इनमें से 4 नेपाल में भूकम्प के बाद पुनर्निर्माण से सम्बन्धित हैं। भारत ने नेपाल में ढांचागत विकास से जुड़ी 10 नई परियोजनाओं को शुरू करने के प्रस्ताव पर गम्भीरता से विचार करने का आश्वासन दिया। पनबिजली, एलपीजी पाइप लाइन बिछाने, रेलवे नेटवर्क के विस्तार, ड्राइपोर्ट के निर्माण पर भी समझौते हुए। देउबा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संयुक्त बयान से भी भारत की बदली कूटनीति की झलक मिलती है। यह साफ है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कूटनीति से नेपाल में चीन की दाल नहीं गलने वाली। भले ही वह भारत-नेपाल सम्बन्धों पर कितना भी बवाल मचाए।

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