बंगलादेश के बहाने इकबाल व स्वामी रामतीर्थ
बेहतर होता यदि भारत के मुस्लिम नेताओं ने बंगलादेश के हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचारों…
बेहतर होता यदि भारत के मुस्लिम नेताओं ने बंगलादेश के हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाई होती। सौहार्द की बहाली का यह अवसर हो सकता था, मगर ओवैसी साहब या उनके सहयोगियों की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी।
वैसे अतीत के कुछ किस्से ऐसी किसी पहलकदमी का आधार बन सकते थे। थोड़ा पीछे लौटें तो उर्दू के प्रख्यात शायर एवं मुस्लिम विद्वान डॉ. इकबाल और स्वामी रामतीर्थ की दोस्ती के संदर्भ याद कर लेने चाहिए। अजब संयोग था कि दोनों की जन्मतिथि व वर्ष एक ही था, सिर्फ 8 माह का अंतर था। इकबाल का जन्म 22 फरवरी, 1873 था, जबकि स्वामी रामतीर्थ 22 अक्तूबर, 1873 को जन्मे। दोनों का जन्म स्थान दोआबा का क्षेत्र था। इक़बाल सियाल कोट में जन्मे थे, जबकि रामतीर्थ का गांव गुजरावालां के समीप मुरलीवाला नाम से था। दोनों पंजाबी तो थे ही, दोनों का मूल ब्राह्मण वंश था। इक़बाल के पूर्वज सप्रू ब्रह्मण थे, जबकि स्वामी रामतीर्थ तो थे ही गोस्वामी ब्राह्मण। दोनों की पारिवारिक पृष्ठभूमि, धार्मिक थी। इक़बाल के पिता शेख नूर मुहम्मद एक प्रतिष्ठित मुस्लिम दर्जी थे और इस्लाम में गहरी आस्था रखते थे, जबकि स्वामी रामतीर्थ के पिता गोस्वामी हीरानंद, एक पुजारी थे और हिन्दुओं में प्रतिष्ठित धर्म-प्रचारक माने जाते थे। स्वामी रामतीर्थ और इक़बाल दोनों की प्राथमिक शिक्षा मुस्लिम-शिक्षकों की देखरेख में हुई थी। इक़बाल के शिक्षक थे मौलवी मीर हसन सियालकोटी, जबकि स्वामी रामतीर्थ को भी गांव के मौलवी मुहम्मद अली ने आरंभिक शिक्षा दी थी। रामतीर्थ ने प्राइमरी शिक्षा के बाद अपने पिता को विवश कर दिया था कि सम्मान के रूप में घर में से एक भैंस या गाय मौलवी मुहम्मद अली को दान की जाए। बाद में कालेज-शिक्षा के दिनों भी दोनों की दोस्ती चर्चा का विषय बनी रही थी। दोनों को रावी नदी से बेहद लगाव था और दोनों ने ही रावी नदी पर नज़्में लिखीं थी। हालांकि इक़बाल सलवार कमीज़ पहनते थे और स्वामी रामतीर्थ एक संत की तरह शॉल और धोती। मगर दोनों ने मूछें रखने का फै़सला एक साथ लिया था। दोनों ही पंजाबी पगड़ी भी अक्सर पहन लेते थे लेकिन स्वामी रामतीर्थ ने जनवरी 1903 में संन्यास के लिए पूरे बाल ही मुंडवा लिए थे।
कुछ शोधार्थियों का मत है कि ढेरों समानताओं के बावजूद दोनों एक दूसरे के नज़दीकी सम्पर्क में 1895 में ही आए थे लेकिन दोनों ने लाहौर में उच्चशिक्षा भी प्राप्त की और पढ़ाते भी रहे। स्वामी रामतीर्थ गणित पढ़ाते थे, जबकि इकबाल फिलासफी पढ़ाते थे। दोनों का अक्सर एक-दूसरे के घर आना-जाना भी शुरू हो चुका था।
स्वामी रामतीर्थ के एक जीवनी-लेखक थे सरदार पूर्ण सिंह। उन्होंने ‘दी मौंक पोएट ऑफ पंजाब’ और ‘स्टोरी आफ रामा’ के नाम से जीवनी लिखी थी। उन्होंने एक सभा में डॉ. इकबाल और स्वामी रामतीर्थ के पारस्परिक संबंधों के बारे में इकबाल का ही एक कथन सुनाया। इकबाल के शब्दों में ‘एक बार मैं स्वामी रामतीर्थ से मिलने उनके घर गया। उस समय उनके पेट में तीव्र दर्द हो रहा था। लगता था वह दर्द असह्य था और बार-बार वह दर्द के मारे इधर-उधर करवटें बदल रहे थे लेकिन उस असह्य दर्द में भी वह हंस रहे थे। कह रहे थे, ‘अरे इकबाल! देखो दर्द जिस्म के एक हिस्से को लपेट रहा है, मगर आत्मा तेरी आमद के बाद बेहद प्रसन्न है। जिस्म अपनी लड़ाई लड़ेगा, आत्मा अपना आनंद ले रही है। मैं हैरान था कि यह शख्स वेदांत के मर्म को कितनी सुगमता से आत्मसात कर पा रहा है। जिस्म और आत्मा के अंतर को यह शख्स न केवल जानता है बल्कि जीता भी है।’
डॉ. इकबाल के एक शिष्य डॉ. हीरा लाल चोपड़ा डी-लिट्ट के अनुसार इकबाल और रामतीर्थ दोनों लाहौर में एक-दूसरे के पूरक बन गए थे। डॉ. चोपड़ा के अनुसार दोनों ने मसनवी-मौलाना रूमी को मिलकर पढ़ा था। दोनों ने उस पुस्तक के मुख पृष्ठ पर साथ-साथ अपना-अपना नाम लिखा था। इकबाल ने अपना नाम ‘शेख मुहम्मद इकबाल’ लिखा था, जबकि स्वामी रामतीर्थ ने अपना नाम ‘राम बादशाह’ लिखा था। इन दोनों के मध्य एक और समानता यह भी थी कि दोनों ही शायरी लिखते थे और दोनों का अंग्रेजी, संस्कृत, पर्शियन, हिंदी, पंजाबी और उर्दू पर समान रूप से अधिकार था। दोनों आपसी दोस्ती में इस कदर रच-बस गए थे कि एक बार ईद के दिन दोनों ने एक साथ चांद देखा। तब रामतीर्थ ने एक शेअर लिखकर इकबाल को सौंपा था।
झुक-झुक सलाम करता है अब चांद-ए-ईद है।
इकबाल राम-राम का खुद हो रहा है आज।।
जुलाई 1901 में स्वामी रामतीर्थ ने पंजाब यूनिवर्सिटी लाहौर के ओरिएंटल कॉलेज में गणित के रीडर के पद से अपना त्याग पत्र भेज दिया। त्याग पत्र पर विचार के लिए यूनिवर्सिटी की सीनेट की एक बैठक बुलाई गई। बैठक में सीनेट सदस्य के रूप में इकबाल भी मौजूद थे। अपने त्याग पत्र में स्वामी रामतीर्थ ने किसी पर आरोप लगाने के स्थान पर सिर्फ यही लिखा था, ‘राम बादशाह, अपने मालिक के अलावा किसी अन्य का खिदमतगार नहीं रह सकता। इसलिए मैं इस पद से त्याग पत्र दे रहा हूं।’ इस पर अधिकांश सीनेटरों ने कह डाला, ‘लगता है रामतीर्थ पागल हो गया है।’ इकबाल इसी बात पर बुलंद आवाज में बोले, ‘अगर रामतीर्थ पागल है तो मुझे नहीं लगता कि कोई भी व्यक्ति बुद्धिमान है।’
इसके बाद स्वामी रामतीर्थ लेखन व चिंतन में लीन हो गए। दोनों में मुलाकातों का सिलसिला जारी रहा। स्वामी 1902 में अपने दर्शन के प्रचार के लिए जापान, अमेरिका व मिस्र की यात्रा पर निकले तो इकबाल भी ब्रिटेन और यूरोप के अन्य देशों की यात्रा पर निकल गए। दोनों ही दो-दो वर्ष विदेशों में अपने-अपने संभाषणों के बाद दो वर्ष बाद स्वदेश लौट आए। लौटती बार स्वामी रामतीर्थ का काहिरा की जामा मस्जिद में तुर्की के क्रांतिकारी नेता मुस्तफा कमाल पाशा की प्रेरणा से एक प्रभावशाली एवं विचारोत्तेजक प्रवचन आयोजित हुआ, जिसका विषय था, ‘मैं वो हूं’। तत्कालीन विद्वानों ने इसे ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ पर केंद्रित भाषण बताया था। उसी मस्जिद में बाद में इकबाल को भी निमंत्रित किया गया था। मुस्तफा कमाल पाशा, इन दोनों दार्शनिक दोस्तों के बीच की एक कड़ी थे।
स्वामी रामतीर्थ ने अपना सांसारिक चोला 17 अक्तूबर, 1906 को 33 वर्ष की उम्र में ही त्याग दिया था। जाने से पूर्व उन्होंने इकबाल से कहा था, ‘मेरे से दो गुणा लम्बी उम्र पाओगे मेरे दोस्त! और यही हुआ, लगभग 66 वर्ष की उम्र में 22 अप्रैल, 1938 को इकबाल ने अंतिम सांस ली।’ इकबाल की जि़ंदगी की घटनाएं अनेक विविध प्रसंगों से भरी हैं। उसके आसपास गांधी भी थे, जिन्ना भी थे, खिलाफत-आंदोलन भी, मुहम्मद जौहर भी थे। गांधी ने उन्हें जामिया मिलिया इस्लामिया के प्रथम कुलपति का पद संभालने की पेशकश भी की थी मगर इकबाल ने स्वीकार नहीं किया। दरअसल किन्हीं कारणों से उन्हें कांग्रेस से भी चिढ़ थी और गांधी से भी।