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चीन की नीयत समझना जरूरी!

अंतर्राष्ट्रीय धरातल पर चीन के मुकाबले कम शक्तिशाली होने के बावजूद भारत की आवाज को वजनदार तरीके से लेती है।

04:39 AM Oct 12, 2019 IST | Ashwini Chopra

अंतर्राष्ट्रीय धरातल पर चीन के मुकाबले कम शक्तिशाली होने के बावजूद भारत की आवाज को वजनदार तरीके से लेती है।

चीन की नीयत समझना जरूरी
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चीन के समक्ष भारत की आज भी सबसे बड़ी ताकत इसका लोकतन्त्र है जिसका पूरी दुनिया भरपूर सम्मान करती है। अंतर्राष्ट्रीय धरातल पर चीन के मुकाबले कम शक्तिशाली होने के बावजूद भारत की आवाज को वजनदार तरीके से लेती है। हैरत में पड़ने की जरूरत नहीं है कि 1962 में चीन की फौजें असम के तेजपुर तक आने के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय दबाव की वजह से ही वापस अपनी  सीमाओं तक चली गई थीं, हालांकि भारत की 40 हजार वर्ग किलोमीटर भूमि उनके कब्जे में चली गई थी। चीन की तरफ से यह कार्रवाई तब हुई थी जब 1956 में इसके प्रधानमन्त्री ‘चाऊ-एन-लाई’ की प्रथम राजकीय यात्रा के दौरान ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ के नारे लगे थे और चीन ने पंचशील के सिद्धान्तों में अपना विश्वास जताया था।
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इसके बावजूद अचानक 1962 में चीन ने भारत का भरोसा तोड़ते हुए इकतरफा सैनिक कार्रवाई शुरू कर दी थी, जाहिर है इसके लिए भारत तैयार नहीं था। इसकी वजह मुख्य रूप से यह थी कि 1959 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने तिब्बत पर चीनी अधिग्रहण का विरोध किया था और इस क्षेत्र के नेता दलाई लामा को भारत में शरण दी थी। तिब्बत के लोगों के वैधानिक  सर्व मान्य नेता दलाई लामा थे और उन्होंने 1950 में चीन की तिब्बत में गतिविधियों का कड़ा प्रतिरोध किया था। इस सन्दर्भ में  भारत के तत्कालीन गृहमन्त्री सरदार पटेल ने पं. नेहरू के नाम एक खुला पत्र लिख कर सावधान किया तथा कि  चीन की नीयत पर उन्हें शक है। अतः एहतियात के साथ इस मामले को देखा जाये।
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इसका इतना असर तो जरूर हुआ कि पं. नेहरू ने तिब्बत के समीप लगे भारतीय इलाकों में प्रशासनिक व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त कर दिया जिससे इस क्षेत्र के लोगों की स्थिति को चीन विवादास्पद न बना सके। परन्तु 1960 में चाऊ एन लाई ने पुनः नई दिल्ली का दौरा किया और बीजिंग लौट कर रिपोर्ट दी कि भारत सीमा विवाद हल करने का इच्छुक नहीं है। इसकी वजह भी साफ थी कि पं. नेहरू ने तिब्बत को चीन का हिस्सा स्वीकार करने से मना कर दिया था और 1916 में भारत व चीन की सीमाओं का निर्धारण करने वाली मैकमोहन रेखा को अधिकृत करने पर बल दिया था।
यह शर्त चीन को मंजूर नहीं थी क्योंकि 1916 में जब भारत के शिमला में ही ‘मिस्टर मैकमोहन’ ने भारत, चीन व तिब्बत के प्रतिनिधियों को बुलाकर बैठक की थी और सीमा रेखा का निर्धारण किया था तो चीनी प्रतिनिधि  ने इस बैठक का यह कहते हुए बहिष्कार कर दिया था कि वह ‘तिब्बत’ को स्वतन्त्र दर्जा दिये जाने का विरोधी है क्योंकि तिब्बत चीन से बाहर नहीं है। इस प्रकार मैकमोहन रेखा को चीन ने शुरू से ही विवादों में डाल दिया। 1947 में भारत के आजाद होने और 1949 में चीनी कम्युनिस्ट क्रान्ति होने के बाद इसके स्वतन्त्र होने पर दोनों देशों के बीच दोस्ताना सम्बन्धों का मुख्य आधार इन देशों के लोगों के बीच वे ऐतिहासिक सम्बन्ध थे जो सांस्कृतिक रूप से सदियों से विद्यमान थे।
पं नेहरू स्वयं चीन के लोगों के स्वतन्त्रता संघर्ष से बहुत प्रभावित थे परन्तु कम्युनिस्ट विचारधारा से उनका कोई मेल नहीं था और चीनी नेताओं की ‘सैनिक मानसिकता’ के वह प्रबल विरोधी इस तरह थे कि 1962 में चीन से युद्ध हार जाने के बाद जब लोकसभा में उनकी सरकार के खिलाफ विपक्षी पार्टी प्रजा समाजवादी के नेता स्व. आचार्य कृपलानी ने अविश्वास प्रस्ताव रखा तो उस पर चली बहस का जवाब देते हुए पं. नेहरू ने कहा था कि ‘चीनी नेताओं का दिमाग  सैनिक मानसिकता वाला है जिसकी वजह से वे इसी रास्ते से विवादों का हल देखना चाहते हैं।’
चीन ने बेशक वर्तमान कम्युनिस्ट पूंजीवाद का रास्ता पकड़ लिया हो मगर उसकी मानसिकता में गुणात्मक परिवर्तन आया है इसकी गारंटी इसलिए नहीं दी जा सकती क्योंकि समूचे एशिया महाद्वीप में चीन अपनी आर्थिक ताकत को सामरिक ताकत का धक्का देकर बढ़ाना चाहता है जिसका प्रमाण हिन्द महासागर से दक्षिणी चीन सागर में उसके जंगी जहाजी बेड़ों की तैनाती है और पाकिस्तान जैसे आतंकवाद को पनपाने वाले देश का समर्थन है। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के भारत सरकार के फैसले का जिस अन्दाज में उसने अंतर्राष्ट्रीयकरण करने की नीति अपनाई है। उससे उसकी वही नीयत झलकती है जिसकी चेतावनी 1950 में सरदार पटेल ने पं. नेहरू को दी थी। बहुत स्पष्ट है कि अनुच्छेद 370 का अंतर्राष्ट्रीय सीमा से किसी प्रकार का कोई लेना-देना नहीं है।
भारत और चीन के बीच फिलहाल जो सीमा या नियन्त्रण रेखा है उनसे इसका रंचमात्र भी सम्बन्ध नहीं है तो चीन फिर क्यों पाकिस्तान के उस रुख को हवा दे रहा है जिसका विरोध 1947 में ही हर कश्मीरी ने बुलन्द आवाज में किया था और पाकिस्तान के निर्माण का ही विरोध किया था। मजहब की बुनियाद पर मुल्क के बंटवारे को कश्मीरियों ने तभी नकार दिया था वरना यह कैसे संभव था कि पाकिस्तान की मांग पर अड़े मुहम्मद अली जिन्ना को आजादी मिलने तक एक बार भी कश्मीरी अवाम ने नहीं पूछा और उनके फलसफे का हर मंच पर तिरस्कार किया। चीन भी भली भांति जानता है कि जम्मू-कश्मीर का भारतीय संघ में विलय कश्मीरी जनता की मर्जी से ही हुआ है  क्योंकि  महाराजा हरिसिंह ने जिस  विलय पत्र पर  दस्तखत किये थे उसी पर कश्मीरी जनता के नेता शेख अब्दुल्ला के दस्तखत भी पं नेहरू ने कराये थे।
अतः चीन किसी भी सूरत में सपने में भी तिब्बत की तुलना भारतीय संघ के संवैधानिक अंग जम्मू-कश्मीर से नहीं कर सकता। भारत के लोकतन्त्र की एक सबसे बड़ी खूबी यह भी है कि जब बात राष्ट्रीय हितों की  होती है तो दलगत हितों को ताक पर रख दिया जाता है। अतः प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी को चीन के साथ सम्बन्धों की समीक्षा करते हुए सरदार पटेल के पत्र से लेकर पं. नेहरू की सावधानियों पर निगाह भी मारनी होगी। हालांकि 2003 में वाजपेयी सरकार ने तिब्बत के मामले पर भारत के पूर्व रुख को सिरे से बदलते हुए उसे चीन का स्वायत्तशासी हिस्सा स्वीकार कर लिया था परन्तुु बदले में वह चीन के रुख में गुणात्मक परिवर्तन नहीं करा सके थे। अब समय आ गया है कि मोदी जैसे लोकप्रिय प्रधानमन्त्री कोई कमाल करें और चीन को आइना दिखाये जिससे उसे यकीन हो सके कि वक्त 1962 से वाकई में बहुत आगे बढ़ चुका है।
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Ashwini Chopra

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