Top NewsIndiaWorldOther StatesBusiness
Sports | CricketOther Games
Bollywood KesariHoroscopeHealth & LifestyleViral NewsTech & AutoGadgetsvastu-tipsExplainer
Advertisement

It’s My Life (3)

शिक्षा प्रसार के साथ स्वामी दयानंद शादी-विवाह भी बिना दहेज और सादे ढंग से एक रुपया लड़की वालों से शगुन लेकर लड़के वालों से लड़की को तीन कपड़ों में शादी के हक में थे।

04:28 AM Jul 10, 2019 IST | Ashwini Chopra

शिक्षा प्रसार के साथ स्वामी दयानंद शादी-विवाह भी बिना दहेज और सादे ढंग से एक रुपया लड़की वालों से शगुन लेकर लड़के वालों से लड़की को तीन कपड़ों में शादी के हक में थे।

शिक्षा प्रसार के साथ स्वामी दयानंद शादी-विवाह भी बिना दहेज और सादे ढंग से एक रुपया लड़की वालों से शगुन लेकर लड़के वालों से लड़की को तीन कपड़ों में शादी के हक में थे। पाठकों की जानकारी के लिए जहां मेरे दादाजी और पिताजी आर्य समाजी थे, मैं भी उन दोनों की तरह आर्य समाज के विचारों का बचपन से ही कट्टर समर्थक रहा हूं। मेरी किरण जी से शादी जालंधर के एक छोटे से आर्य समाज मंदिर होशियारपुर अड्डा रोड पर बहुत ही सादे ढंग से हुई। न बाजे-गाजे, सिर्फ न बाराती, न घोड़ी चढ़ाई, एक घंटे की शादी में लोगों को केवल चाय और मिश्री-इलायची दी गई। एक रुपया मैंने अपने ससुर जी से पकड़ा, ​बिना दहेज के तीन कपड़ों में किरण जी की विदाई उनके परिवार ने की और दो घंटे में यह सादगी से शादी हो गई परन्तु कई गवर्नर, मुख्यमंत्री और मंत्री शादी में उपस्थित थे। लगभग दस हजार लोग बाहर खड़े थे और देखने आए थे कि लालाजी और रमेश जी सचमुच अश्विनी की शादी एक रुपये में कर रहे हैं। क्या आज के जमाने में ऐसी शादियों की गूंज कहीं सुनाई देती है। 
Advertisement
मुझे याद है एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि अश्विनी जी अमीर आदमी दो ही मौकों पर अपने जीवन भर की कमाई खुलकर खर्च करता है। एक तो आलीशान घर बनाने में और एक लड़की की शादी पर, और कहीं किसी वस्तु पर खर्च करना बेकार है। पाठकगण मैंने अपने बुजुर्गों की ​​रवायत को कायम रखते हुए अपने बड़े बेटे आदित्य की शादी बहू सोनम के साथ ग्रेटर कैलाश दिल्ली के आर्य समाज मंदिर में ठीक वैसे ही की है जैसे कि मेरे दादाजी, पिताजी और मैंने आर्य समाज मंदिर में सादे ढंग से एक रुपया शगुन, 11 बाराती और सोनम को तीन कपड़ों में बहू बनाकर अपने घर लाया। अब मेरे दोनों जुड़वां अर्जुन और आकाश विवाह योग्य हैं। उनकी शादी भी मैं पारिवारिक रवायत को कायम रखते हुए आर्य समाज मंदिर में बिना बाजे-गाजे, एक रुपया शगुन के साथ अपनी दोनों बहुओं को तीन कपड़ों में अपने घर लेकर आऊंगा।
मैं और आर्य समाज की इस कदर पृष्ठभूमि बताना जरूरी था क्योंकि मेरा बचपन डीएवी स्कूल में ही बीता और हर मंगलवार मैं ही सभी बच्चों के साथ हवनपति बनकर संस्कृत के श्लोक पढ़कर हवन पूर्ण करवाया करता था। 
अब कहानी एक नया मोड़ लेती है। मेरा पतला-दुबला शरीर था। जब पढ़ाई की क्लासों के बीच एक घंटे की खाने की छुट्टी होती थी। बड़ी क्लासों के लड़के ईंटों की विकेट बनाकर गेंद और बल्ले से क्रिकेट खेला करते ​थे जिसे मैं दूर से देखा करता था। पहले तो मुझे यह क्रिकेट का खेल समझ नहीं आया। वैसे भी मैं पढ़ाकू और क्लासों में बिना छुट्टी किए पढ़ाई करने वाला टापर विद्यार्थी था लेकिन धीरे-धीरे मुझे क्रिकेट का खेल समझ भी आने लगा और अच्छा भी लगने लगा। एक दिन मेरा दिल चाहा तो मैंने सीनियर्स ​क्रिकेट खेल रहे ​विद्यार्थियों से प्रार्थना की कि मुझे भी एक-दाे बार गेंद फैंकने का मौका दे दो। पहले ताे उन्होंने मुझे भगा दिया, लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी और उनसे गेंद फैंकने की प्रार्थना करता रहा। आखिरकार एक दिन उन लड़कों का दिल पसीजा और उन्होंने मुझे गेंद फैंकने का मौका दे दिया।
जब मैंने पहली गेंद डाली तो मेरी बाजू अपने आप ही ऊपर से घूमी और गेंद गिरी तो लैग साईड पर टर्न हो गई। सभी खिलाड़ी देखते रह गए। दूसरी गेंद मेरे हाथ से निकली तो ईंटों की विकेट से दूर लैग साईड पर गिरी, लेकिन इतनी ज्यादा टर्न हुई कि बल्लेबाज बोल्ड हो गया। सभी मेरे को हैरत से देखने लगे। मैं खुद आश्चर्यचकित और हतप्रभ सा खड़ा सभी की निगाहों से बचने लगा। उसके बाद तो रोजाना एक घंटे की आधी छुट्टी पर सभी बल्लेबाज मुझे ही गेंद करने को कहते और मैं गेंद घुमाता, लेकिन मुझे खुद मालूम नहीं था कि मैं गेंद को घुमाता कैसे हूं और मैं कर क्या रहा हूं। क्योंकि डीएवी कालेज और डीएवी स्कूल साथ-साथ जुड़े थे। एक दिन डीएवी कालेज के क्रिकेट कोच स. राजेन्द्र सिंह जी उधर आए, उन्होंने जब मुझे शौकिया गेंद करते देखा तो साइकिल से उतर कर वहीं खड़े हो गए, हतप्रभ से मेरी गेंदबाजी को देखते रहे। कहते हैं कि एक पारखी ही हीरे की पहचान कर सकता है।
जब आधी छुट्टी की घंटी खत्म हुई तो राजेन्द्र सिंह कोच, हम आज भी उन्हें ‘कोच साहिब’ पुकारते हैं, मेरे पास आए और मेरा नाम पूछा और यह भी पूछा कि मैं कौन सी क्लास में हूं। मैंने जवाब दिया ‘सर मैं बारहवीं का स्टूडेंट हूं और अगले वर्ष डीएवी कालेज में दाखिला लेने की कोशिश करूंगा।’ उस समय डीएवी कालेज में दाखिला लेना भी एक बड़ी मशक्कत का काम होता था। उस समय डीएवी कालेज के प्रिंसिपल भीमसैन बहल (B.S. Behl) थे। बहुत ही पढ़े-लिखे, सख्त प्रशासक और सुना जाता था कि उनके समक्ष डीएवी कालेज के प्रोफैसर और विद्यार्थी डर से कांपते थे। ऐसा था उनका व्य​क्तित्व। उस समय डीएवी कालेज जालन्धर में 1000 से ज्यादा पढ़ाने वाले प्रोफैसर और 8000 विद्यार्थी पढ़ते थे, जो आज तक का किसी भी कालेज की लोकप्रियता का रिकार्ड है। इसीलिए डीएवी में दाखिला लेना टेढ़ी खीर थी।
Advertisement
Next Article