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Its My Life (53)

1981 से 1984 और 1984 से अब तक पारिवारिक तौर पर पहले तीन वर्ष पिताजी के लिए और मेरे लिए काफी कष्टदायक रहे।

05:11 AM Oct 13, 2019 IST | Ashwini Chopra

1981 से 1984 और 1984 से अब तक पारिवारिक तौर पर पहले तीन वर्ष पिताजी के लिए और मेरे लिए काफी कष्टदायक रहे।

1981 से 1984 और 1984 से अब तक पारिवारिक तौर पर पहले तीन वर्ष पिताजी के लिए और मेरे लिए काफी कष्टदायक रहे। कैसे पिताजी और मुझे पारिवारिक कलह के चलते प्रताड़ित होना पड़ा लेकिन इन सभी पारिवारिक मुसीबतों के चलते पिताजी और मैंने किस हालात में इस कष्टदायक समय का सामना किया? इस बारे फिर लिखूंगा।लाला जी की हत्या के पश्चात परिवार में यह फैसला हुआ कि पंजाब केसरी की बढ़ती लोकप्रियता के चलते राजधानी ​दिल्ली से पंजाब केसरी का संस्करण निकाला जाए। उसके लिए मैंने हाथ खड़ा किया तो सामने वाले लोगों को एक मौका और मिल गया कि अब तो ‘अश्विनी गया।’ 
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दिल्ली में उन दिनों नवभारत टाइम्स और हिन्दुस्तान हिन्दी का राज था। सभी ने सोचा ऐसे में आखिर उन दोनों ग्रुप के अखबारों से मुकाबला कौन करेगा। ‘अश्विनी’ दिल्ली जाएगा और हाथ-पैर मार कर, नाकामयाब होकर वापस आएगा, फिर जिन्दगी भर एक नाकाम व्यक्ति को ‘हम रौंद’ देंगे। मैं अपनी पत्नी किरण और छोटे 6 माह के लड़के आदित्य के साथ इस चैलेंज को स्वीकार कर दिल्ली पहुंच गया। शालीमार बाग में एक-दो बैड रूम का घर किराये पर लिया और जीटी रोड करनाल में छोटी सी इमारत में प्रैस और आफिस बनाया और 1982 के अंत में पंजाब केसरी दिल्ली का संस्करण शुरू कर दिया। दिल्ली पंजाब केसरी संस्करण की शुरूआत पर एक छोटा सा आयोजन किया गया, जिसमें दिल्ली भर के अखबार बेचने वाले ‘डिस्ट्रीब्यूर्ट्स’ को आमंत्रित किया गया। सिर्फ पिताजी इस समारोह में शामिल हुए। 
भगवान की करनी और मेरा भाग्य व दिन-रात मेहनत का नतीजा, पंजाब केसरी दिल्ली संस्करण धीरे-धीरे राजधानी में खड़ा होता गया। 1982 से 1984 तक मैंने खुद सुबह उठ-उठकर जमीन पर बैठ कर अपना अखबार बेचा। नतीजा यह हुआ कि 1984 के आते-आते दिल्ली में नवभारत और हिन्दुस्तान के मुकाबले पंजाब केसरी चल पड़ा। राजधानी में पंजाब केसरी की धाक जमनी शुरू हो गई और जल्दी ही राजधानी दिल्ली की अखबारी दुनिया में पंजाब केसरी छाने लगा। लेकिन इस कामयाबी से जलने वाले बाहर के नहीं बल्कि घर के ही लोग ईष्या करते थे। मेरे बढ़ते कदमों को रोकने के लिए पहले मेरे पर परिवार के ही लोगों ने कई तरह के इल्जाम लगाए। पिताजी को छोड़ मेरे सभी घर के लोग ईर्ष्या  से भरे हुए थे। इस कदर बिगड़े कि​ मेरे घर के लोगों ने मेरे खिलाफ कई साजिशें रचीं। 
नतीजा यह निकला मेरे घर और बाहर के लोगों द्वारा की गई मेरे विरुद्ध साजिश नाकाम रही। बाद में इस बात से और अन्य कई ईर्ष्या में जलते रहने वाले लोगों ने घर में कलेश डालने शुरू कर दिए। जिससे मेरे पिता जी को गहरा धक्का लगा लेकिन मैंनेे बेपरवाह होकर दिल्ली में काम किया और 1984 की शुरूआत में राजधानी दिल्ली का सबसे प्रमुख ज्यादा बिकने वाला अखबार पंजाब केसरी को ही बनाकर छोड़ा। आज राजधानी दिल्ली और दक्षिण हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश और राजस्थान में जो स्थान पंजाब केसरी को मिला है उसका श्रेय पूज्य पिता जी की दिन-रात की मेहनत लाला जी का आशीर्वाद और हम दोनों बाप-बेटे द्वारा ईर्ष्या से जलने वाले लोगों से एक साहसिक मुकाबले की सच्ची कहानी है। 
फिर 1984, 12 मई के दिन हमसे ईर्ष्या रखने वाले लोगों का दूसरा सपना और मेरे जीवन में कष्टों की शुरुआत हुई जब पूज्य पिताश्री की आतंकवादियों ने जालंधर शहर में हत्या कर दी गई। जालंधर में 12 मई, 1984 की शाम 6 बजे दादा जी की तरह रमेश जी को भी निर्ममता से गोलियों का निशाना बना कर शहीद कर दिया गया। पिताश्री की हत्या के दिन पूज्य चाचा अपने छोटे लाडले छोटू के साथ मुम्बई में थे। मैं तो पिताजी की हत्या के दिन दिल्ली में था। दिल्ली दफ्तर में शाम 7 बजे मेरे मैनेजर भाटिया ने मुझे खबर दी कि रमेश जी की जालंधर में छह से आठ आतंकवादियों ने शहर के बीच गोलियों से मारकर उनकी हत्या कर दी। मेरे पर मानो पहाड़ गिर गया। दिल्ली में उन दिनों मैं अकेला था। 
आदित्य को मेरे पिताजी और मेरी बहन कुछ दिन पहले ही जालंधर ले गए थे। किरण अपनी कैंसर से पीड़ित मां के पास अमृतसर अस्पताल में थीं। जब मैं घर पहुंचा तो अकेला बैठा सोच रहा था कि ‘‘भगवान यह कौन सी हमारी परीक्षा ले रहे हो? इतने में मेरे फोन की घंटी बजी पीएम हाऊस से प्रधानमंत्री के सैक्रेटरी श्री फोतेदार जी फोन पर आए और बोले अश्विनी जी प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी जी आप से बात करेंगी। जब श्रीमती गांधी फोन पर आईं तो मैंने रोना शुरू कर दिया। मेरे मुंह से शब्द नहीं ​निकले। श्रीमती इंदिरा जी बोलीं, ‘‘बेटा दुख की इस घड़ी में हम आपके साथ हैं, आप के पिताजी की हत्या पर हमें बड़ा दुख है, आप जालंधर जाओगे तो हम आपकी सुरक्षा का पूरा इंतजाम कर रहे हैं।’’ 
थोड़ी देर बाद राष्ट्रपति भवन से स. त्रिलोचन सिंह ने फोन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह को दिया तो मैंने दुबारा रोना शुरू कर दिया। ज्ञानी जी ने मुझे ढांढस बंधाया तो मैं बोला, ‘‘ज्ञानी जी यह क्या हो रहा है?, पहले मेरे दादा जी और अब पिताजी की हत्या? क्या आप देश के राजा हैं, आपसे पंजाब नहीं सम्भलता?’’ ज्ञानी जी बोले ‘‘बेटा, मुझे बहुत दुख है। मैंने और प्रधानमंत्री जी ने आप की सुरक्षा पर बात की है और ‘‘मैं आपको व्यक्तिगत जहाज से जालंधर के आदमपुर भेज रहा हूं, अपना ख्याल रखना।’’ बाद में त्रिलोचन सिंह जो खुद राष्ट्रपति भवन की गाड़ी लेकर मुझे शालीमार बाग से दिल्ली हवाई अड्डे पर छोड़ने आए। 
वहां दिल्ली से जब हवाई जहाज आदमपुर पहुंचा, रास्ते में पायलट मुझे लुधियाना, जालंधर और अमृतसर शहरों के ऊपर भी लेकर गया। पूरे पंजाब में पिताश्री रमेश जी की हत्या के उपरांत सिख-हिन्दुओं में पहली बार दंगे शुरू हो गए। तीनों शहरों में मैंने आग के शौले उभरते हुए देखे। बाद में पिताजी की हत्या, पंजाब में बसों से निकाल कर हिन्दुओं की हत्याओं और पारिवारिक कलह का असली रूप देखने को मिला। इसका जिक्र मैं आगे के लेखों में करूंगा।
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