जयशंकर की खरी-खरी
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के 80वें स्थापना दिवस के अवसर पर विदेशमंत्री एस. जयशंकर ने जमकर खरी-खरी सुनाई। विदेशमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र की आतंकवाद के प्रति प्रतिक्रिया पर सवाल उठाए। उन्होंने पाकिस्तान का नाम लिए बिना कहा कि जब सुरक्षा परिषद का एक सदस्य खुलेआम उस संगठन की रक्षा करता है जो पहलगाम जैसे बर्बर आतंकी हमलों की जिम्मेदारी लेता है तो इससे बहुपक्षवाद की विश्वस्नीयता पर गहरा असर पड़ता है। आतंकवाद के पीड़ितों और अपराधियों को एक ही श्रेणी में रखना दुनिया को अधिक निंदनीय बना देता है जब खुद को आतंकवादी कहने वालों को प्रतिबंधों से बचाया जाता है तो इसमें शामिल लोगों की ईमानदारी पर सवाल उठते हैं। विदेशमंत्री का अभिप्राय सुरक्षा परिषद द्वारा भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू में तोलने से था। उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा कि आल इज नाट वेल यानि संयुक्त राष्ट्र में सबकुछ ठीक नहीं है। संयुक्त राष्ट्र संघ को 80 साल हो गए लेकिन उसके खाते में सफलताओं से ज्यादा विफलताएं ही हैं। भारत संयुक्त राष्ट्र संघ के मौजूदा स्वरूप को बदलने और इसमें भारत की बड़ी भागीदारी सुनिश्चित करने की मांग करता आ रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लगातार वैश्विक मंचों पर भारत की स्थायी सदस्यता के लिए आवाज बुलंद करते आ रहे हैं। सवाल यह भी है कि भारत सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए कब तक इंतजार करता रहेगा जिस वैश्विक शांति के लिए संयुक्त राष्ट्र की स्थापना की गई थी उस लक्ष्य से संगठन पूरी तरह से भटक गया है।
आतंकवाद को लेकर सुरक्षा परिषद अभी भी कोई ठोस परिभाषा तय नहीं कर पाया। अगर सुरक्षा परिषद में जरूरी सुधार नहीं किए गए तो इसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। संयुक्त राष्ट्र के चार उद्देश्य हैं अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा का संरक्षण करना, विभिन्न राष्ट्रों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों का विकास करना, अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान में सहयोग एवं मानव अधिकारों के प्रति सम्मान का संवर्धन और देशों की कार्रवाइयों के बीच तालमेल के केन्द्र के रूप में काम करना लेकिन इधर दो वर्षों से जारी रूस और यूक्रेन युद्ध एवं इजराइल एवं अरब राष्ट्रों के बीच सीमित युद्धों ने संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रासंगिकता एवं उपयोगिता पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है, जहां तक संयुक्त राष्ट्र संघ के विभिन्न कार्यक्रमों के सफल संचालन में भारत के योगदान एवं भागीदारी का सवाल है तो आज भी भारत विकास एवं गरीबी उन्मूलन, जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद, निशस्त्रीकरण, मानवाधिकार और विश्व शांति स्थापना के प्रयासों में संयुक्त राष्ट्र संघ का कंधे से कंधा मिलाकर साथ दे रहा है। 140 करोड़ आबादी के साथ भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश और एक उभरती हुई आर्थिक महाशक्ति भी है।
भारत की विदेश नीति ऐतिहासिक रूप से विश्व शांति को बढ़ावा देने वाले देश के रूप में रही है। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी वैश्विक संस्था की नीति निर्धारक सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता से भारत को वंचित तथा बाहर रखना अन्याय ही माना जाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के समय से ही रक्षा मिशनों में भारत महत्वपूर्ण योगदान देता आया है। अब तक विभिन्न शांति अभियानों में भारत के 180000 सैनिक हिस्सा ले चुके हैं। भारत ने 82 देशों के लगभग 800 शांति स्थापना अधिकारियों को प्रशिक्षित भी किया है।
यूएन की विफलताओं का लंबा खासा इतिहास है। 1994 के खांडा नरसंहार इसका दु:खद उदाहरण है जहां यूएन शांति सेना के रहते भी 8 लाख लोग मारे गए। 2003 में अमरीका ने सुरक्षा परिषद की मंजूरी के बिना इराक पर हमला किया जिसके परिणाम स्वरूप लाखों लोग मारे गए। सीरिया के गृहयुद्ध में सुरक्षा परिषद मूक दर्शक बनकर बैठी रही जिसमें 5 लाख लोग मारे गए, अगर देखा जाए तो वीटों वाले देशों ने इस संस्था का दुरुपयोग अपनी स्वार्थसिद्धी के लिए किया।
कई शक्तिशाली देश संयुक्त राष्ट्र द्वारा पारित प्रस्तावों के विपरीत कार्य करते हैं और उनका अनादर करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय संधियों का उल्लंघन करने और उन्हें अपने हित में प्रयोग करने की प्रवृत्ति महाशक्तियों में भी देखी जाती है। संयुक्त राष्ट्र को पश्चिमी देशों के हाथों की कठपुतली माना जाता है। अगर सुरक्षा परिषद में कोई प्रस्ताव पारित करना है तो पूरी दुनिया को उनको मानना होगा। अमरीका संयुक्त राष्ट्र की शक्ति का आधार है। वह इसे अपनी मर्जी से चलाने की कोशिश करता है। इससे संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता को लेकर कई अनुत्तरित प्रश्न उठ खड़े हुए हैं और यह दुनिया की विडम्बना है कि जो दोषी है उसी पर कानून की रक्षा का भार है। इसके अलावा, संयुक्त राष्ट्र के औचित्य के बारे में जो प्रश्न उठते हैं, इसके मूल में अन्य तत्व भी हैं। जैसे राष्ट्रों की गुटबाजी, अंतर्राष्ट्रीय भावना की कमी, वीटो का दुरुपयोग आदि।
परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करने के बाद भी अमेरिका समेत सभी ताकतवर देशों के पास परमाणु हथियार हैं। विश्व में हथियारों की दौड़ बढ़ती जा रही है। आतंकवाद, विस्तारवाद तथा वैश्विक व्यापार पर एक तरफा कब्जा करने की कोशिशें संयुक्त राष्ट्र के लिए बड़ी चुनौतियां हैं। समय की नाजुकता को समझते हुए संयुक्त राष्ट्र की कार्यशैली में सुधार के लिए गंभीर प्रयास करने होंगे। संयुक्त राष्ट्र में सुधार न होने के चलते ही भारत ब्रिक्स और क्वाड जैसे वैकल्पिक मंचों की आेर बढ़ा है। सुधारों में पी 5 ने हमेशा ही रोड़े अटकाए हैं। अब यह संस्था पूरी तरह से अप्रसंगतिक हो चुकी है। बेहतर यही होगा कि सुरक्षा परिषद के 5 देशों के वीटो के दुरुपयोग पर अंकुश लगाया जाए। सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का विस्तार किया जाए। भारत, ब्राजील, जर्मनी, जापान आैर अफ्रीकी देशों को उसमें शामिल किया जाए, यदि संयुक्त राष्ट्र ने दुनिया के अनुरूप खुद को नहीं बदला तो यह केवल भाषण देने वालों का मंच बनकर रह जाएगा, वैसे भी इस समय संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का कोई महत्व नहीं रहा है।