Top NewsIndiaWorldOther StatesBusiness
Sports | CricketOther Games
Bollywood KesariHoroscopeHealth & LifestyleViral NewsTech & AutoGadgetsvastu-tipsExplainer
Advertisement

यरुशलम : रिंग ऑफ फायर

NULL

11:15 PM Dec 09, 2017 IST | Desk Team

NULL

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यरुशलम को इस्राइल की राजधानी के तौर पर मान्यता देकर न केवल मध्य एशिया की स्थिति को और विस्फोटक बना दिया है, साथ ही अमेरिका को भी भारी जोखिम में डाल दिया है। यद्यपि वर्ष 1980 में इस्राइल ने पूर्वोत्तर हिस्से पर कब्जा जमाने के साथ ही यरुशलम को अपनी सनातन राजधानी करार देने में देरी नहीं की थी लेकिन न सिर्फ संयुक्त राष्ट्र बल्कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने भी इस्राइल के इस कदम के प्रति कभी सहमति नहीं दी थी। संयुक्त राष्ट्र ने यरुशलम के पूर्वी हिस्सों को हड़पने पर आपत्ति जताई थी और इस विकल्प को एक सिरे से खारिज कर दिया था कि आंशिक या पूर्ण रूप से यह इलाका कभी इस्राइल की राजधानी भी बन सकता है। तब संयुक्त राष्ट्र ने इस्राइल को चेतावनी तक दी थी कि ऐसा कोई भी दावा अवैध करार दिया जाएगा। इस गंभीर मुद्दे पर ट्रंप ने एकतरफा ऐलान करके पूरी दुनिया से चुनौती मोल ले ली है।

​फलस्तीन में लोग इसे जंग की शुरूआत के तौर पर देख रहे हैं और चरमपंथी समूह हमास पहले ही कह चुका है कि वह हिंसा के लिए तैयारी कर रहा है। तुर्की के नेता कह रहे हैं कि यह इलाका रिंग ऑफ फायर में तब्दील हो चुका है। मौजूदा संघर्ष के चलते मध्य एशिया अब एक ऐसे बम का सामना कर रहा है जिसकी पिन निकाली जा चुकी है। विश्व के सबसे दुर्दान्त आतंकी संगठन आईएस ने खून की नदियां बहाने की धमकी दे डाली है। फ्रांस और ब्रिटेन भी यरुशलम को बतौर राजधानी मान्यता देने के ट्रंप के फैसले की आलोचना कर रहे हैं जबकि अमेरिका का खास दोस्त सऊदी अरब भी इसे गैर-जिम्मेदाराना बता रहा है। इराक और ईरान समेत अरब लीग इस फैसले को मुसलमानों को उकसाने वाला कदम मान रहे हैं। वे मानते हैं कि इसके चलते कट्टर और हिंसात्मक प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिलेगा। स्थिति बहुत विस्फोटक हो चुकी है, शांति प्रक्रिया की आवाज खामोश हो चुकी है। यरुशलम को लेकर विवाद बहुत पुराना है। उसके मशहूर होने की दो वजह हैं। एक धार्मिक वजह है आैर दूसरी राजनीतिक। धार्मिक वजह यह है कि यह तीन धर्मों के लिए असीम श्रद्धा का केन्द्र है। यहूदी, ईसाई आैर इस्लाम।

टेम्पल माउंट पर ही सुलेमानी मन्दिर बना है, जिसे यहूदी भी काफी पवित्र मानते हैं, कई बार उसे ध्वस्त किया गया। उसके अवशेष ही बचे हैं तो मुसलमानों की अल अक्सा मस्जिद भी यहीं बनी है। मुसलमानों का मानना है कि मोहम्मद साहब का अन्तिम समय इसी शहर में बीता और यहीं से वो जन्नत गए थे। सुन्नी मुस्लिमों के लिए मक्का आैर मदीना के बाद दुनिया की तीसरी सबसे पवित्र जगह है। दूसरे यहूदी मन्दिर को गिराकर बनाया गया डोम आॅफ रॉक भी इस्लाम मानने वालों के लिए श्रद्धा का केन्द्र है। यरुशलम में 73 मस्जिदें हैं तो 158 चर्च हैं। ईसाई मानते हैं कि यही वो शहर है जहां कभी ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाया गया था। इस शहर का जिक्र बाइबल में भी है। ईसाई सपुखर चर्च को काफी पवित्र मानते हैं क्योंकि इसी जगह ईसा को सूली पर लटकाया गया था। पहले यहूदी, फिर ईसाई और उसके बाद मुस्लिमों के कब्जे ने शहर को हर शताब्दी में अलग-अलग रंग में रंग दिया था। अब अहम सवाल यह है कि डोनाल्ड ट्रंप ने ऐसा क्यों किया? ट्रंप की मुस्लिम विरोधी बयानबाजी जगजाहिर है। इससे पहले भी वे सभी अमेरिकी मुस्लिमों के लिए धर्म के आधार पर अलग से पहचान पत्र बनवाने और अमेरिका में स्थित सभी मस्जिदों की निगरानी किए जाने की बात कह चुके हैं। कई मुस्लिम देशों के नागरिकों के अमेरिका प्रवेश पर पाबंदी लगा चुके हैं।

ट्रंप जिस रिपब्लिकन पार्टी से आते हैं उसे वैसे भी दक्षिणपंथी सोच वाली पार्टी माना जाता है, जो अमेरिकी राष्ट्रवाद को लेकर काफी मुखर है लेकिन पेरिस और कैलिफोर्निया में हुए हमले से आईएस के प्रति अमेरिकी लोगों के मन में इस्लाम के प्रति नफरत बढ़नी शुरू हो गई। यही वजह है कि ट्रंप ने मुस्लिमों के खिलाफ जुबानी हमले तेज कर दिए और इस्राइल के पक्ष में फैसला करना उसी रणनीति का हिस्सा है। ट्रंप के फैसले से इस्राइल-फलस्तीन विवाद में अमेरिका की निष्पक्ष मध्यस्थ की भूमिका खत्म हो गई है। 1993 के ओस्लो समझौते में इस्राइल ने यह भी स्वीकार किया था कि यरुशलम की स्थिति का फैसला वार्ता से होगा। ट्रंप ने एक तरह से इस्राइल के अवैध कब्जे को वैध मान लिया है।

बेशक ट्रंप को कट्टरपंथी ईसाई समुदाय और इस्राइल समर्थक लॉबी का समर्थन मिलेगा। इन समूहों को लुभाने के लिए ट्रंप इस्राइल के पक्ष में बयानबाजी करते रहे हैं मगर सत्ता में क्लिंटन, बुश, ओबामा भी आए लेकिन वह उस हद तक जाने की जुर्रत नहीं कर सके जहां ट्रंप चले गए हैं। उन्होंने आग में घी डाल दिया है। इसके चलते उथल-पुथल मचनी तय है। कच्चे तेल की कीमतों में उछाल आना तय है। मध्य एशियाई देशों के सम्बन्ध अमेरिका से बिगड़ सकते हैं। भारत फिलहाल बचकर चल रहा है। भारत दुनिया का पहला गैर-अरब मुल्क है जिसने फलस्तीन को मान्यता दी है। भारत ने परम्परागत रूप से फलस्तीन का समर्थन ​किया और 1992 में इस्राइल के साथ राजनयिक सम्बन्ध खोले। भारत को अमेरिकी रुख से अलग हटकर स्वतंत्र फैसला लेना होगा। भारत के सामने दोहरी चुनौती है, उसे न सिर्फ इस्राइल के साथ अपने सामरिक हितों के बारे में सोचना होगा बल्कि फलस्तीनियों को समर्थन देने के बारे में भी सोचना होगा।

Advertisement
Advertisement
Next Article