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न्यायाधीश घेरे में!

न्यायाधीशों और न्यायिक बिरादरी के सभी लोगों को अपनी जिम्मेदारी का अहसास…

11:05 AM Dec 11, 2024 IST | Aditya Chopra

न्यायाधीशों और न्यायिक बिरादरी के सभी लोगों को अपनी जिम्मेदारी का अहसास…

न्यायाधीशों और न्यायिक बिरादरी के सभी लोगों को अपनी जिम्मेदारी का अहसास होना चाहिए और उसी के अनुसार कार्य करना चाहिए। न्याय करने का मूल उद्देश्य निष्पक्ष होता है। न्यायाधीशों को संविधान द्वारा निर्धारित मूल्यों का कड़ाई से पालन करना चाहिए और पूर्वाग्रह से प्रेरित नहीं होना चाहिए। न्यायाधीशों द्वारा बिना सोचे-समझे की गई टिप्पणियां उन्हें नकारात्मक रूप से दिखाती हैं और पूरे न्यायिक संस्थान पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस शेखर कुमार यादव द्वारा विश्व हिन्दू परिषद के एक कार्यक्रम में की गई टिप्पणियों पर विवाद उत्पन्न हो गया है। विवाद के बाद सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट से पूरी रिपोर्ट मंगा ली है। हालांकि यह पहली बार नहीं है कि जस्टिस यादव ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। संवैधानिक न्यायालय के जज के रूप में उनके बयान, जैसा कि उनके आदेशों और निर्णयों में परिलक्षित होता है, लगातार अपने वैचारिक स्वरों के कारण समाचारपत्रों की और टीवी चैनलों की सुर्खियों में रहे हैं जिससे व्यापक बहस छिड़ गई है। जस्टिस यादव ‘‘गाय ऑक्सीजन छोड़ती है’’ मानने से लेकर अब तक के अपने बयानों से चर्चित रहे हैं।

विश्व हिन्दू परिषद के कार्यक्रम में उन्होंने समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर कहा ​िक भारत में रहने वाले बहुसंख्यकों के अनुसार ही देश चलेगा। उन्होंने यह भी कहा ​िक कठमुल्ले देश के लिए घातक हैं। उन्होंने श्रीराम मंदिर, तीन तलाक, हलाला के अधिकार आदि कई ​िवषयों की भी चर्चा की। उनके भाषण के वीडियो वायरल होते ही तूफान खड़ा हो गया। न्यायिक जीवन के मूल्यों की पुनर्स्थापना-1997 में कहा गया है कि कोई न्यायाधीश सार्वजनिक बहस में शा​िमल नहीं होगा या राजनीतिक मामलों या उन मामलों पर सार्वजनिक रूप से अपने ​िवचार व्यक्त नहीं करेगा, जो लम्बित हैं या जिसके न्यायिक निर्धारण के​ लिए उठने की सम्भावना है। एक न्यायाधीश का कर्त्तव्य है कि वह अपने शब्दों और कार्यों के माध्यम से समाज को एकजुट करे न कि वैमनस्य को बढ़ावा दे। असंवेदनशील और आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग करने से न्यायपालिका की निष्पक्षता पर भी प्रश्नचिन्ह लगता है। यह भी संवैधानिक नहीं है कि एक सि​िटंग जज एक संगठन द्वारा आयोजित कार्यक्रम में सक्रिय रूप से भाग ले। यह धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ है। विश्व हिन्दू परिषद और कुछ अन्य संगठनों के लोग यह तर्क दे रहे हैं कि विश्व हिन्दू परिषद विधि प्रकोष्ठ पर न तो बैन लगा है और न ही यह संगठन कोई अवैध काम कर रहा है। यह वकीलों का कानूनी संगठन है और वकीलों के मंच पर जज आते रहे हैं, तो जस्टिस शेखर यादव को लेकर विवाद क्यों खड़ा किया जा रहा है।

हाल ही के दिनों में देखा जा रहा है कि हाईकोर्ट के न्यायाधीश केसों की सुनवाई के दौरान कुछ ऐसी ​िटप्पणियां कर देते हैं जो संविधान के तहत बुनियादी तौर पर गलत है। कर्नाटक हाईकोर्ट के न्यायाधीश ने पश्चिमी बैंगलुरु के एक मुस्लिम बहुल इलाके को पाकिस्तान कहा था। इस पर भी भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की विशेष पीठ ने कर्नाटक हाईकोर्ट के जज वी. श्रीशानंद और दो अलग-अलग मामलों में एक महिला वकील के प्रति की गई टिप्पणियों को स्वतः संज्ञान लिया था। बाद में न्यायाधीश द्वारा माफी मांग लेने पर शीर्ष अदालत ने कार्यवाही समाप्त कर दी थी। अगस्त महीने में भी न्यायालय ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश को कार्यवाही के दौरान “बेतरतीब, अनुचित” टिप्पणी करने से रोकने के लिए चेतावनी दी थी। 2023 में न्यायालय ने न्यायपालिका के भीतर लैंगिक रूढ़िवादिता का मुकाबला करने के लिए एक पुस्तिका जारी की। महिलाओं के बारे में रूढ़िवादिता को पहचानने, समझने और उससे निपटने में कानूनी समुदाय की सहायता करने के उद्देश्य से, इसने लिंग-अन्यायपूर्ण शब्दों की एक शब्दावली तैयार की, जिसमें दलीलों के साथ-साथ आदेशों और निर्णयों का मसौदा तैयार करते समय इस्तेमाल किए जाने वाले वैकल्पिक शब्दों या वाक्यांशों का सुझाव दिया गया। न्यायालय के अधिकारियों के लिए लिंग के प्रति संवेदनशील होना अनिवार्य है। न्यायिक पारिस्थितिकी तंत्र को किसी भी समुदाय के प्रति बिना किसी पूर्वाग्रह के चलना चाहिए। लिंग या धर्म के आधार पर किसी भी व्यक्ति को रूढिबद्ध करना हानिकारक असमानताओं को बनाए रखेगा और न्याय के वाहकों को हर समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए।

न्यायिक जवाबदेेही और सुधार अभियान ने भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना को पत्र लिखकर जस्टिस शेखर यादव के​ िखलाफ उचित कार्रवाई करने के लिए इन हाऊस जांच का आग्रह किया है। पत्र में कहा गया है कि जस्टिस यादव के आचरण ने आम नागरिकों के मन में न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता के बारे में संदेह पैदा किया है। अब एक मजबूत संस्थागत प्रतिक्रिया की जरूरत है। जस्टिस यादव ने न केवल धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाई है बल्कि उनका भाषण न्यायाधीश के रूप में उनकी शपथ का भी खुला उल्लंघन है। “न्याय केवल किया ही नहीं जाना चाहिए बल्कि न्याय किया जाना भी दिखना चाहिए। उच्च न्यायपालिका के सदस्यों के व्यवहार और आचरण से न्यायपालिका की निष्पक्षता में लोगों के विश्वास की पुष्टि होनी चाहिए। तदनुसार, सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट के जज का कोई भी कार्य चाहे वह आधिकारिक या व्यक्तिगत क्षमता में हो जो इस धारणा की विश्वसनीयता को नष्ट करता हो उससे बचना चाहिए।” “न्यायाधीश को अपने पद की गरिमा के अनुरूप एक हद तक अलगाव का अभ्यास करना चाहिए।” विपक्ष ने जस्टिस शेखर यादव के खिलाफ महाभियोग लाने की तैयारी कर ली है। उन्हें पद से हटाने की मांग भी जोर पकड़ रही है। अब सुप्रीम कोर्ट इस मामले पर क्या कार्रवाई करता है, उस पर विधि विशेषज्ञों की नजरें लगी हुई हैं।

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