न्यायपालिका और लोकतन्त्र
भारत का संविधान 26 नवम्बर, 1949 को बन गया था और बाबा साहेब अम्बेडकर ने इसे इसी दिन संविधान सभा को सौंपते हुए कहा था कि भारत के लोगों को यह दस्तावेज राजनीतिक स्वतन्त्रता देते हुए सभी के अधिकार एक समान करेगा परन्तु आर्थिक आजादी के बिना राजनीतिक आजादी अधूरी ही मानी जायेगी।
01:57 AM Nov 27, 2020 IST | Aditya Chopra
भारत का संविधान 26 नवम्बर, 1949 को बन गया था और बाबा साहेब अम्बेडकर ने इसे इसी दिन संविधान सभा को सौंपते हुए कहा था कि भारत के लोगों को यह दस्तावेज राजनीतिक स्वतन्त्रता देते हुए सभी के अधिकार एक समान करेगा परन्तु आर्थिक आजादी के बिना राजनीतिक आजादी अधूरी ही मानी जायेगी। बाबा साहेब ने भारतीय शासन प्रणाली को मुख्य रूप से त्रिस्तरीय बनाते हुए स्वतन्त्र न्यायपालिका की स्थापना की थी जिसकी मार्फत उन्होंने सुनिश्चित कर दिया था कि कानून का शासन हर स्तर पर लागू रहे। न्यायपालिका, विधायिका व कार्यपालिका के बीच संविधान में कामों का बंटवारा इस प्रकार किया गया कि यह अदृश्य रहते हुए भी स्पष्ट विभाजन रेखा खींचे।
उपराष्ट्रपति श्री वैंकय्या नायडू ने गुजरात के केवडिया में चुने हुए सदनों के पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में यह आशंका व्यक्त की है कि न्यायपालिका कभी-कभी अपनी सीमाओं को लांघ कर निर्णय कर देती है। यह बहुत गंभीर टिप्पणी है जिसे भारतीय संसदीय लोकतन्त्र में सतही स्तर पर नहीं लिया जा सकता। हमारे संविधान में स्पष्ट व्याख्या है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था चलाने के तीनों अंग अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में काम करते हुए एक-दूसरे के अधिकारों का सम्मान करेंगे। बाबा साहेब ने जिस लोकतन्त्र को भारत के स्वतन्त्र नागरिकों के हवाले किया था उसे चौखम्भा राज कहा था। इन चारों खम्भों में चुनाव आयोग की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी क्योंकि इसके ऊपर संसदीय प्रणाली को काबिज करने की जिम्मेदारी थी। चुनाव प्रणाली को लोकतन्त्र की गंगोत्री कहा गया और इसे शुद्ध व पवित्र बनाये रखने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग पर डाली गई। इसके लिए संसद में कानून बना कर एेसी व्यवस्था की गई कि चुनाव होने के समय किसी भी राजनीतिक दल की सरकार उदासीन हो जाये और वह केवल शासन चलाने के प्राथमिक कार्यों को करती रहे जिससे हर हालत में संविधान का शासन लागू रहे। यहां यह समझना बहुत जरूरी है कि चौखम्भा राज में न्यायपालिका और चुनाव आयोग सरकार का अंग नहीं हैं। इन दोनों की पृथक स्वतन्त्र सत्ता है और ये अपने अधिकारों का उपयोग संविधान से लेकर ही करते हैं। इन अधिकारों पर सरकार का कोई नियन्त्रण नहीं होता। हालांकि संसद चुनाव आयोग के अधिकारों को जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में संशोधन करके समय-समय पर परिमार्जित करती रही है।
बेशक हमारे संविधान में न्यायपालिका पर नियन्त्रण करने या उसके कार्य क्षेत्र की सीमा निर्धारित करने के अधिकार संसद के हाथ में भी नहीं हंै मगर संसद को यह अधिकार हमारे संविधान निर्माता देकर गये हैं कि यदि वह चाहे तो संविधान में संशोधन कर सकती है। संसद का यह अधिकार उसे लोकतन्त्र में सर्वोच्च जरूर बनाता है मगर संविधान के दायरे से बाहर जाकर कोई भी फैसला करने की इजाजत नहीं देता और यह दायरा संविधान का आमूल ढांचा है जिसके ऊपर इसके सैकड़ों अनुच्छेद लिखे गये हैं। अतः स्वतन्त्र न्यायपालिका हमारे संविधान की एेसी ‘डायलिसिस मशीन’ है जो अशुद्धता को दोनों हाथ छान कर हमें सिर्फ कानून या संविधान के अनुरूप ही राज करने की इजाजत देती है। संसद के भीतर भी पूर्व में अति उत्साहित न्यायपालिका के बारे में कई बार गाहे-बगाहे चर्चा हुई है। विशेषकर स्व. प्रधानमन्त्री श्री चन्द्रशेखर इस बारे में ज्यादा चिन्तित रहा करते थे और कार्यपालिका से सम्बन्धित कार्यों के बारे में न्यायपालिका के फैसलों को चिन्तनीय मानते थे मगर उनकी चिन्ता बेवजह थी क्योंकि लोकतन्त्र में न्यायपालिका की जिम्मेदारी केवल कानून की परिभाषा करने की नहीं होती बल्कि कानून को लागू होते हुए देखना भी उसकी जिम्मेदारी होती है।
भारत के विद्वान न्यायाधीशों ने इस मोर्चे पर देश की जनता को कभी निराश नहीं किया है और हर जोखिम लेकर संविधान का शासन कायम रखने के प्रयास किये हैं मगर दूसरी तरफ विधायिका व कार्यपालिका के स्तर में जिस तरह की गिरावट आ रही है उससे न्यायपालिका का निरपेक्ष रहना बहुत बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। संसद से लेकर विधानसभाओं में जिस प्रकार नियमावलियों का मजाक बनाया जा रहा है उससे आने वाली पीढि़यों का विश्वास डगमगा रहा है जिसकी वजह से नवयुवक राजनीति से विमुख होते जा रहे हैं। स्वस्थ लोकतन्त्र के लिए यह स्थिति किसी भी प्रकार से उत्साहजनक नहीं मानी जा सकती। कभी इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिए कि देश में घटने वाली घटनाओं में से कुछ हृदय विदारक कांडों का संज्ञान न्यायपालिका स्वतः क्यों लेती है? यह शासन के संवेदनहीन होने का प्रमाण होता है। जबकि लोकतन्त्र न केवल लोकलज्जा से बल्कि संवेदनशीलता से चलता है। यह संवेदनशीलता ही शासन को लोकन्मुख बनाती है और उसे जनता की सरकार घोषित करती है। शासन को लगातार संवेदनशील बनाये रखने का श्रेय निश्चित रूप से इस देश की स्वतन्त्र न्यायपालिका को दिया जा सकता है क्योंकि केवल इमरजेंसी के दौर को छोड़ कर हमारे विद्वान न्यायाधीशों ने केवल और केवल न्याय का ही झंडा फहराने का पराक्रम किया है। संविधान ने भी न्यायपालिका की प्राथमिक जिम्मेदारी यह नियत की है और इसी वजह से बाबा साहेब ने न्यायपालिका को सरकार का अंग नहीं बनाया था और संसद द्वारा बनाये गये कानून को भी संविधान की कसौटी पर कसने का इसे अधिकार दिया था।
Advertisement
Advertisement